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गंगा अवतरण का पर्व गंगा दशहरा

संध्या शर्मा

गंगा दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। हर साल ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मां गंगा की पूजा-अर्चना की जाती है। इस तिथि को गंगा दशहरा या गंगावतरण भी कहा जाता है। इसी दिन मां गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था। भारत में गंगा नदी को बहुत पवित्र माना जाता है और उन्हें माता का दर्जा प्राप्त है।

ऐसी मान्यता है कि गंगा केवल जीवनदायिनी ही नहीं बल्कि वह सभी पापों को नष्ट करती है और मोक्ष की प्राप्ति करवाती है। भारत में गंगा को मां के रूप में पूजा जाता है, ‘गंगा मां’ क्योंकि उनमें जीवन को बनाने, संरक्षित करने और नष्ट करने की क्षमता है, जो हिंदू त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान शक्तियों को दर्शाती है।

हर साल, भारत में करोड़ों हिंदू गंगा दशहरा मनाते हैं, ऐसा माना जाता है कि गंगा दशहरा वह दिन है जब देवी गंगा स्वर्ग से धरती पर उतरी थीं। गंगा दशहरा पर गंगा स्नान का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि कोई भी धार्मिक कार्य गंगा जल के बिना अधूरा माना जाता है। गंगा दशहरा पर गंगा में स्नान करने से जाने-अनजाने में किए गए पापों से मुक्ति मिलती है। इस दिन बड़ी संख्या में श्रद्धालु गंगा स्नान करते हैं।

गंगां वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतं ।

त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु मां ।।

अर्थ : गंगाका जल, जो मनोहारी है, विष्णुके श्रीचरणोंसे जिनका जन्म हुआ है, जो त्रिपुरारी के शीश पर विराजित हैं, जो पापहारिणी हैं, हे मां तू मुझे शुद्ध कर !

गंगा अवतरण की पौराणिक कथा:

गंगा अवतरण की जो कथा विभिन्न पुराणों में एवं महाभारत में भी वर्णित है, वह कथा संक्षेप में यह है कि गंगा नदी को भगीरथ ने स्वर्ग (हिमालय त्रिविष्टप) से धरती पर उतारा था। मान्यता है कि गंगा श्रीहरि विष्णु के चरणों से निकलकर भगवान शिव की जटाओं (शिवालिक की जटानुमा पहाड़ी) में आकर बसी गई थी। पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगीरथी नदी गंगा की उस शाखा को कहते हैं, जो गढ़वाल (उत्तरप्रदेश) में गंगोत्री से निकलकर देवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है व गंगा का नाम प्राप्त करती है।

ब्रह्मा से लगभग 23वीं पीढ़ी बाद और राम से लगभग 14वीं पीढ़ी पूर्व भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था। इससे पहले उनके पूर्वज सगर ने भारत में कई नदी और जलराशियों का निर्माण किया था। उन्हीं के कार्य को भगीरथ ने आगे बढ़ाया। पहले हिमालय के एक क्षेत्र विशेष को देवलोक कहा जाता था। राजा सगर ने खुद को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए अश्‍वमेध यज्ञ का आयोजन किया। इस खबर से देवराज इन्‍द्र को चिन्ता सताने लगी कि कहीं उनका सिंहासन न छिन जाए।

इन्‍द्र ने यज्ञ के अश्‍व को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के एक पेड़ से बाँध दिया। जब सागर को अश्‍व नहीं मिला तो उसने अपने 60 हजार बेटों को उसकी खोज में भेजा। उन्‍हें कपिल मुनि के आश्रम में वह अश्‍व मिला। यह मानकर कि कपिल मुनि ने ही उनके घोड़े को चुराया है, वो पेड़ से घोड़े की रस्सी खोलते हुए शोर कर रहे थे। उनके शोरगुल से मुनि के ध्‍यान में बाधा उत्‍पन्‍न हो रही थी। जब उन्‍हें पता चला कि इनकी सोच है कि मैने घोड़ा चुराया है तो वे अत्‍यन्‍त क्रोधित हुए। उनकी क्रोधाग्नि वाली एक दृष्टि से ही वे सारे राख के ढेर में बदल गए।

वे सभी अन्तिम संस्‍कारों की धार्मिक क्रिया के बिना ही राख में बदल गए थे। इसलिए वे प्रेत के रूप में भटकने लगे। उनके एकमात्र जीवित बचे भाई आयुष्‍मान ने कपिल मुनि से याचना की वे कोई ऐसा उपाय बताएँ जिससे उनके अन्तिम संस्‍कार की क्रियाएँ हो सकें ताकि वो प्रेत आत्‍मा से मुक्ति पाकर स्‍वर्ग में जगह पा सकें। मुनि ने कहा कि इनकी राख पर से गंगा प्रवाहित करने से इन्‍हें मुक्ति मिल जाएगी। गंगा को धरती पर लाने के लिए ब्रह्मा से प्रार्थना करनी होगी।कई पीढि़यों बाद सागर के कुल के भगीरथ ने हजारों सालों तक कठोर तपस्‍या की। तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर ब्रह्मा ने गंगा को धरती पर उतारने की भगीरथ की मनोकामना पूरी कर दी।

अन्ततः भगीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुईं और उनसे वरदान माँगने के लिया कहा। भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा कि माता! मेरे साठ हजार पुरखों के उद्धार हेतु आप पृथ्वी पर अवतरित होने की कृपा करें। इस पर गंगा ने कहा वत्स! मैं तुम्हारी बात मानकर पृथ्वी पर अवश्य आउँगी, किन्तु मेरे वेग को भगवान शिव के अतिरिक्त और कोई सहन नहीं कर सकता। इसलिये तुम पहले भगवान शिव को प्रसन्न करो।

यह सुन कर भगीरथ ने भगवान शिव की घोर तपस्या की और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी हिमालय के शिखर पर गंगा के वेग को रोकने के लिये खड़े हो गये। गंगा जी स्वर्ग से सीधे शिव जी की जटाओं पर जा गिरीं। इसके बाद भगीरथ गंगा जी को अपने पीछे-पीछे अपने पूर्वजों के अस्थियों तक ले आये जिससे उनका उद्धार हो गया। भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करके गंगा जी सागर में जा गिरीं और अगत्स्य मुनि द्वारा सोखे हुये समुद्र में फिर से जल भर गया।”

और तब गंगा भगीरथी के नाम से धरती पर आईं। उन राख के ढेरों से गुजरते हुए गंगा ने जहनु मुनि के आश्रम को डुबो दिया। गुस्‍से में आकर मुनि ने गंगा को लील लिया। एक बार फिर भगीरथ को मुनि से गंगा को मुक्‍त करने हेतु प्रार्थना करनी पड़ी। इस तरह गंगा बाहर आईं और अब वो जाह्नवी कहलाईं। इस तरह से गंगा का धरती पर बहना शुरू हुआ और लोग अपने पाप धोने उसमें पवित्र डुबकी लगाने लगे।

व्यवहारिक सन्दर्भ :

पौराणिक कथाओं का वास्तविकता से क्या सम्बन्ध हैं और क्या वे प्रमाणिक हैं, यह प्रश्न अक्सर आम जनमानस में उठता है, परन्तु यह जानना जरुरी है की महाभारत में या पुराणों में जितनी भी कथाएं हैं वे समस्त वेदों को विस्तार देने के लिए बनाई गयी हैं जो कुछ तो बिम्बात्मक ढंग से वेद की बातों को पहुँचाने के लिए है। कुछ भारत में जो घटित हुआ उसका इस प्रकार कथानक के रूप में दिया गया की लोग उसमे रूचि लें और जाने, उस समय कोई लिखित साहित्य नहीं होता था, या तो श्रुति ग्रन्थ होते थे या स्मृति ग्रन्थ होते थे। लिपि का अविष्कार बहुत बाद में हुआ, उसके बाद से ग्रंथों का लिपि बद्ध होना प्रारंभ हुआ।

भारत में प्रथम लिपि ब्राह्मी मानी गयी है जो की उनके अनुसार ईसा से ६०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई, हम इसको स्वीकार भी कर लें तो यह मानना ही पड़ेगा की इसके पहले का इतिहास जो लिखित नहीं था वह था तो अवश्य, इसी क्रम में पौराणिक कथाएं रोचक कहानियों में परिवर्तित हो गयी, आज भी जब हमें बच्चों को कोई बात कहनी होती है तो परियों की, जानवरों की कथाओं में परिवर्तित करके बताते हैं ताकि बच्चों की रूचि बनी रहे, ठीक वैसे ही पुरातन काल में जब कुछ लोग ही आचार्य थे वे जन जन तक उद्देश्यात्मक बातों को रुचिकर बनाने हेतु इस प्रकार कथा में गढ़ते थे |

गंगा के बारे में मान्यताएं और उनका वैज्ञानिक आधार-

गंगा की शुचिता हेतु धार्मिक आधार पर कई नियम भी बनाये गए ताकि यह अमृत सलिला कभी प्रदूषित न हो। जैसे घाटों की निरंतर सफाई, इसमें मल मूत्र त्यागने की मनाही, कुछ कार्य गंगा में ही किये जाते हैं जैसे अस्थि विसर्जन। इसके पीछे भी बहुत बड़ा वैज्ञानिक आधार माना गया है, अस्थियों में कैल्शियम होता है जो भूमि को उर्वरक बनता है, जब गंगा के जल के साथ यह अस्थियाँ तट की भूमि पर आती है तो यह भूमि उर्वरक हो जाती है इसी लिए अस्थि विसर्जन हरिद्वार या प्रयाग में उचित माना गया है ताकि यहाँ से आगे बहने वाले पूरे कृषि क्षेत्र में गंगा जल सिंचित करती है और भूमि उर्वरक होती रहे।

वैज्ञानिक संभावनाओं के अनुसार गंगाजल में पारा अर्थात मर्करी विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्शियम और फॉस्फोरस पानी में घुल जाता है, जो जल-जंतुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है। वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है, जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण करता है, इसके साथ-साथ ये दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड सॉल्ट का निर्माण करते हैं। हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है। धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है। सभी जीव अंतत: शिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।

इतना पवित्र है गंगा जल –

इसका वैज्ञानिक आधार सिद्ध हुए वर्षों बीत गए। वैज्ञानिकों अनुसार नदी के जल में मौजूद बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु गंगाजल में मौजूद हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित नहीं रहने देते अर्थात ये ऐसे जीवाणु हैं, जो गंदगी और बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। इसके कारण ही गंगा का जल नहीं कभी भी सड़ता है।

भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी गंगा का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है। इसका जल घर में शीशी या प्लास्टिक के डिब्बे आदि में भरकर रख दें तो बरसों तक खराब नहीं होता है और कई तरह के पूजा-पाठ में इसका उपयोग किया जाता है। ऐसी आम धारणा है कि मरते समय व्यक्ति को यह जल पिला दिया जाए तो ‍उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा जल में प्राणवायु की प्रचुरता बनाए रखने की अदभुत क्षमता है। इस कारण पानी से हैजा और पेचिश जैसी बीमारियों का खतरा बहुत ही कम हो जाता है।

गौर से देखने से ऐसा परिलक्षित होता है कि आज का भारतवर्ष और भारतीयों की प्रसन्नता सचमुच गंगा की ही देन है। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली अतुलनीय गंगा नदी का पृथ्वी पर अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ था ।संसार की सर्वाधिक पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने अर्थात अवतरित होने का पर्व गंगा दशहरा है । वैसे तो प्रतिदिन ही पापमोचनी, स्वर्ग की नसैनी गंगा का स्नान एवं पूजन पुण्यदायक है और प्रत्येक अमावस्या एवं अन्य पर्वों पर भक्तगण दूर-दूर से आकर गंगा में स्नान-ध्यान, नाम-जप-स्मरण कर मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं , परन्तु गंगा दशहरा के दिन गंगा में स्नान-ध्यान, दान, तप, व्रतादि की अत्यंत महिमा पुराणिक ग्रन्थों में गायी गई है ।

गंगा नदी स्नान नियम-

गंगा दशहरा पर गंगा नदी में स्नान करते समय कुछ बातों का ध्यान जरूर रखना चाहिए। ऐसा नहीं करने से अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। आइए जानते हैं कि गंगा स्नान करते समय कौन-सी गलतियां नहीं करनी चाहिए:

* गंगा नदी में स्नान करने के बाद घर लौटकर दोबारा स्नान नहीं करना चाहिए। ऐसा करना अपशकुन माना जाता है।

* गंगा नदी के किनारे मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। नदी में स्नान करने से पहले या बाद में उसमें गंदे कपड़े नहीं धोने चाहिए। यह अकाल मृत्यु का कारण भी बनता है। धार्मिक दृष्टि से यह ब्रह्महत्या के समान माना जाता है।

* गंगा नदी में स्नान समय साबुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से आप नदी की पवित्रता को भंग करते हैं और पाप के भागी बनते हैं।

* नदी में स्नान करने के दौरान कुल्ला भी नहीं करना चाहिए। ये कार्य अशुभ माने जाते हैं, इससे व्यक्ति पाप का भागीदार बनता है।

आईये हम संकल्प लें की जिस पवित्र अमृतमयी गंगा को भागीरथ ने हमे सौंपा था उसे उसी अवस्था में लाकर भागीरथ के प्रयासों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें। प्रदूषण ग्रषित गंगा जो हरिद्वार तक आते आते इतनी प्रदूषित हो चुकी थी की स्नान के लायक भी नहीं थी। सरकार, संस्थाओं और जान सामान्य के सम्मिलित प्रयासों के फलस्वरूप अब जल विशेषज्ञों ने घोषित किया है कि गंगा इतनी शुद्ध हो चुकी है कि इसमें हम स्नान कर सकते हैं। अतः प्रकृति से सीख लें और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए अपनी इस धरोहर रूपी माँ गंगा का संरक्षण करें।

 

लेखिका न्यूज एक्सप्रेस में फ़ीचर एडिटर एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं।

One thought on “गंगा अवतरण का पर्व गंगा दशहरा

  • June 16, 2024 at 12:01
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    अच्छा लगा पढ़ कर आपको एवं लेखिका को बधाई

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