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जीवन और सुख-दुःख का आधार मन : मनकही

मन चंचल होता है, मन की गति अत्यधिक तीव्र होती है। जीवन में सुख-दुःख क्या है? मन के भाव ही तो हैं। इच्छाओं का बीज मन में दबा रहता है, जो खरपतवार की भांति उपजने लगता है। किसी वस्तु, परिस्थिति के प्रति मन में जैसे भाव उत्पन्न होते हैं वैसा ही अनुभव मनुष्य करता है। यदि सन्तुष्ट हैं तो मन सुखी या प्रसन्न होगा यदि असन्तुष्ट हैं तो मन दुःखी होगा। मानसिक स्थिरता या अस्थिरता मन के उपजे भावों पर ही निर्भर करती है।

मन रूपी घोड़े को नियंत्रित करना कठिन तो है परन्तु असंभव नहीं। इसके लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। जैसे पतंग तो असमान में उड़ती है परंतु उसकी डोर धरती पर खड़े व्यक्ति के हाथों में होती है जो बड़ी एकाग्रता और धैर्य के साथ पतंग को डोर से नियंत्रित करते हुए असमान में ऊँचाइयों तक ले जाता है। ध्यान भंग होते ही पतंग अनियंत्रित हो जाती है तो पुनः डोर खींच कर नियंत्रित किया जाता है। ऐसा ही मानव मन होता है। पतंग और डोर तो भौतिक वस्तु है। परंतु यहाँ स्वयं मनुष्य है मन भी स्वयं का ही है और उसे नियंत्रित भी स्वयं को ही करना है। है ना! आश्चर्यजनक बात कि यहाँ मनुष्य किसी पर दोषारोपण नहीं कर सकता।

मन को नियंत्रित करने की आदत बचपन से सिखाई जाती है। बच्चों का मन कोमल, निश्छल, निश्चिंत एवं प्रसन्न रहता है। खेलना-कूदना, खाना-पीना, अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। जीवन की सच्चाई से अनभिज्ञ, हर प्रकार की चिंता और कर्त्तव्यों से परे रहते हैं। परन्तु उनके भविष्य एवं अच्छे चरित्र निर्माण के लिए माता-पिता उन्हें अच्छे संस्कार देते हैं।

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इसलिए जीवन के रणक्षेत्र में उतरने से पहले उन्हें शारिरिक एवं मानसिक रूप तैयार करने माता-पिता और परिवार के लोग उनके मन को नियंत्रित करने के लिए उन्हें छोटे-छोटे कार्यों को करने के लिए प्रेरित करते हुए, स्वयं भी कार्य कर उनको सिखाते और सहयोग करते हैं। ताकि उसका मन इधर-उधर व्यर्थ की बातों की ओर ना जाये और वह अपना मन-मस्तिष्क सही कार्यों में केंद्रित करना सीखे। धीरे-धीरे बच्चा उस कार्य में रुचि लेने लगता है।

परिणामस्वरूप बच्चे के माता-पिता उसकी रुचि को समझ कर उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए अवसर प्रदान करते हैं। यह कथन सत्य है कि मन लगता नहीं लगाया जाता है। मन में उपजती वृत्तियाँ नकारात्मक ऊर्जा का पुंज होती हैं। सांसारिक वस्तुओं एवं सुखों के प्रति आसक्ति दुःख का कारण बनती है। मनुष्य को इनकी आदत पड़ जाती है और
उसकी पूर्ति के लिए जीवन भर दौड़ता रहता है। कबीर ने कहा भी है -माया महा ठगनी हम जानी।

किसी भी प्रकार की दासता जीवन में दुःख का कारण बनती है, चाहे भौतिक वस्तुओं की हो या मानसिक दासता। मन में इच्छाएं एकत्रित रहने से मन कलुषित हो जाता है। मनुष्य का मन प्रत्येक परिस्थितियों को समझते हुए चिंतन-मनन कर किसी निर्णय तक पहुँचने के लिए होता है, अतः अंधानुकरण से बचना ही श्रेयस्कर होता है। अन्यथा मन की विकृति से तन भी पंगु बन जाता है।

मन के विचलित होने से क्रोध, दुःख, निराशा, उद्वेग, ईर्ष्या, छल-कपट इत्यादि विभिन्न प्रकार की विकृतियां उत्पन्न होती हैं। इन्ही कारणों से मनुष्य अनुचित कार्यों की ओर प्रवृत्त होता है। मानुस तन है, तो मन है और मन है तो इच्छाएं भी रहेंगी ही। ये कटु सत्य है।

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मनोदशा का प्रभाव मनुष्य के कार्यों पर पड़ता है। यह प्रत्येक व्यक्ति पर अलग-अलग रूप में परिलक्षित होता है। कुछ लोग आलस्य से बैठे सोचते रहते हैं क्योंकि उनका मन ही नही करता कुछ कार्य करने का। वहीं कुछ लोग शीघ्रता से कार्य करने को तत्पर हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति मन को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते क्योंकि जीवन में उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए परिवार, समाज के लिए सदैव अनेक कार्य करना ही पड़ता है। जहां रुचि-अरुचि का कोई मापदंड निर्धारित नहीं है। सभी को संतुष्ट करना असंभव है परंतु प्रयास तो किया जा सकता है। बुद्धिजीवी मनुष्य यही विचार कर कर्मप्रधान बनता है।

मन को नियंत्रित करने पर आदतें भी बदलने लगती हैं। मन में संतोष का भाव उत्पन्न होता है ऐसा होने पर मन मे स्थिरता आती है। मन को नियंत्रित करने के लिए मन में श्रद्धा और समर्पण का भाव रखकर कार्य करना होगा। मन को दर्पण कहा गया है। उचित-अनुचित, भला-बुरा, सत्य-असत्य सभी का ज्ञान मानव मन को रहता है। अतः पूरी निष्ठा से स्वयं को सत्कर्म की ओर केंद्रित करना होता है।

कहा जाता है न,जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन। अतः विचारों की शुद्धता अति आवश्यक है। एकाग्रचित्त हो आत्मावलोकन करते हुए अपनी बुद्धि -विवेक के अनुरूप ही परिस्थितियों से सामंजस्य बनाकर ही किसी कार्य को करना उचित होता है। विपरीत परिस्थितियों में बेमन से किये गए कार्य वैसे परिणाम नहीं देते जैसा हम चाहते हैं। सुख-दुःख का आधार मन है इसलिए मन की दशा को बदल कर कार्य करना चाहिए। ऐसा करके ही मन को नियंत्रित किया जा सकता है।

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आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय (लिपि)
व्याख्याता हिन्दी
अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़