इस देश में शहीदों का नामों निशां न होगा….
भारत को स्वतंत्रता आसानी से नहीं मिली है, अंग्रेजों की गुलामी के दो सौ वर्षों में अनगिनत लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी है। जब 15 अगस्त या 26 जनवरी के दिन जगह जगह देशभक्ति के गीत बजते हैं तो उन गीतों में जगदम्बा प्रसाद मिश्र की यह पंक्ति सुनने को मिलती है,
“शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा”
लेकिन क्या वाकई देश को स्वतंत्र कराने वाले और इसके निर्माण में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले महापुरुषों के प्रति हम कृतज्ञ हैं? ऐसा लगता तो नहीं है, 1857 के क्रांतिकारियों से लेकर कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं, क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करने वाले विनायक दामोदर सावरकर, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु और अन्य सभी महापुरुषों के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणियां की जाती है। क्या वर्तमान पीढ़ी वाकई इन नेताओं से नाराज है इसलिए वे इनका सम्मान नहीं करते या कोई सोची समझी रणनीति के तहत देश के महापुरूषों और सेना के वीरों की शहादत का अपमान किया जा रहा है?
वर्तमान पीढ़ी की बात से अगर शुरू करें तो देश की शिक्षा व्यवस्था को इस तरह बना दिया गया है कि देश के महापुरूषों की पर्याप्त जानकारी स्कूल से लेकर कॉलेज तक कहीं नहीं मिलती है। 1991 के बाद उदारीकरण के साथ शिक्षा का भी दुर्गतिकरण प्रारंभ हुआ, देश के इतिहास का पाठ्यक्रम ऐसा बना कि अपने अतीत के प्रति गौरव का भाव ही खत्म हो गया। इसलिए नई पीढ़ी अगर महापुरूषों के प्रति कोई टिप्पणी करती है तो वह अज्ञानता है और इस अज्ञानता लाभ व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के एजेंडेबाज प्रोफ़ेसर उठा रहे हैं। एक तथ्य में भ्रम का जाल बुनकर ऐसे परोसा जाता है मानों कोई महापुरूष खलनायक हो। दस प्रतिशत सच के साथ नब्बे प्रतिशत झूठ का मिक्सचर तैयार किया जा रहा है। क्या ऐसी स्थिति निर्मित हो इसकी शुरूआत शिक्षा पाठ्यक्रम में छेड़छाड़ से की गई?
वैसे तो स्वतंत्रता के बाद ही महापुरुषों की आलोचना, उनके विचारों के विरूद्ध नीति व कार्यक्रम बनाना शुरू हो चुका था लेकिन 1970 के बाद महात्मा गांधी, पं नेहरू जैसे नेताओं के खिलाफ एक अभियान शुरू हुआ। यह समय था जब भारत अपनी आजादी के बाद जनता को दिखाए गए सपनों को पूरा करने में असफल नजर आने लगा था, देश में समस्याएँ उभरती गई और राजनीति प्रभावी होती चली गई। यही समय था जब भारत की राजनीतिक और आर्थिक कमजोरियां का लाभ उठाकर साम्यवादी दलों ने समाजवादी क्रांति की कोशिश शुरू की, नक्सलबाड़ी में एक प्रयोग हुआ।
यही समय था जब सोवियत संघ अपनी गुप्तचर एजेंसी केजीबी के जरिए भारत की राजनीति और प्रशासन में घुसपैठ की। समाचार पत्रों, साहित्य जगत और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में घुसपैठ की। केजीबी के एक बड़े अधिकारी वसिल निकितिख मीत्रोखिन के नोट्स को संग्रहित कर क्रिस्टोफ़र एन्ड्रू ने अपनी पुस्तक मित्रोखिन अर्काइव्स में विस्तार से इन विषयों की चर्चा की है। यह विषय तब के सत्तारूढ़ पार्टी के साथ वैसा ही था जैसे 2008 में कांग्रेस पार्टी ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौता किया है।
एक बात तो तय है कि भारत में महात्मा गांधी की मान्यता इतनी है कि उसे लांघ कर कम्यूनिस्ट कोई बड़ा सशस्त्र क्रांति कर देश पर कब्जा कर लेंगे, ऐसा संभव नहीं है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान भी जब भारत में 1925 में साम्यवादी दल की औपचारिक घोषणा हुई थी तब रूस में हुए कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल में यह निर्णय लिया गया था कि असहयोग आन्दोलन की असफलता के कारण गांधी के प्रति जो नाराजगी है, उसका लाभ कम्यूनिस्ट पार्टी को उठाना चाहिए। इसके लिए कांग्रेस में घुसपैठ कर धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी पर कब्जा करने की साज़िश रची गई थी, लेकिन कम्यूनिस्ट तब सफल नहीं हुए।
देश की जनता की सोच गांधी की सोच है, यही भारतीय समाज का मौलिक चिंतन है सो कम्यूनिस्ट पार्टियों को अपने मंसूबों पर सफल होना है तो जरूरी है कि महात्मा गाँधी के विचार को मारा जाए। यही कोशिश 1970 के बाद शुरू हुई। देश को आज़ादी क्रांतिकारियों ने दिलाई, महात्मा गांधी ने नहीं जैसे विचार युवाओं के बीच प्रचारित किए गए। एक धड़ा दलितों को गांधी के विरूद्ध उकसाया और डॉ अम्बेडकर के विरोधी के रूप में प्रचारित किया गया। सुभाष चंद्र बोस को गांधी विरोधी बताने के प्रयास हुए, कई पुस्तकें लिखी गई जिसमें हाल में अरुंधती रॉय की पुस्तक ‘एक था डॉक्टर, एक था संत’ इस बात को पुष्ट करती है।
देश के महापुरुषों को बदनाम करने से क्या हासिल होगा? इसका जवाब देश में पिछले दो दशक से चल रही विचारधारा पर आधारित राजनीति में मिलता है। पता नहीं ये विचार कहां से आया कि किसी विचार के महापुरुषों को बदनाम करने से चुनाव में फायदा मिलेगा। वर्ष 2014 में जब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी है, तब से राष्ट्रवादी नेताओं पर हमले किए जा रहे हैं, मुख्य रूप से विनायक दामोदर सावरकर पर। कभी उन्हें भारत के विभाजन का दोषी बताया जा रहा है तो कभी कायर, अंग्रेजों से माफी मांगने वाला, अंग्रेजपरस्त, पेंशन लेने वाला जैसी उपमाएं दी जा रही हैं। वो लोग सावरकर की वीरता का उपहास कर रहे हैं जिनका देश को स्वतंत्र कराने और निर्माण करने में रत्ती भर का योगदान नहीं है।
विनायक सावरकर का देश के क्रांतिकारी आंदोलन में योगदान है और उनको जो काला पानी की सज़ा मिली वह इतनी कठोर थी कि लिखित संस्मरण पढ़ सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सावरकर को वीर कहकर महात्मा गांधी ने संबोधित किया था, तब जब वे कालापानी की सज़ा भोग रहे थे और तबीयत बिगड़ने के कारण उनकी सजा माफ़ करने वे स्वयं एक याचिका अंग्रेज सरकार को दे रहे थे। उन्होंने सावरकर के योगदान को देश के लिए महान बताया था, तब जब गांधी वैचारिक रूप से सावरकर के विपरीत धुरी के थे।
आज की तारीख़ में हम अपने देश के महापुरुषों के साथ-साथ सेना के जवानों की शहादत पर भी तंज कसे जा रहे हैं। सेना के अधिकारियों पर बार-बार आरोप लगाना, कठिन परिस्थिति में सीमा की रक्षा करने वाले जवानों के शौर्य पर राजनीतिक आरोप मढ़ देना यहां तक की शहीद जवानों की धर्म और जातिगत टिप्पणी करना, ऐसे बयान दिए जा रहे हैं कि सेना का मनोबल पर असर पड़े। राजनीति होती है देश चलाने, सरकार बनाने लेकिन जब देश ही न रहे तो राजनीति कैसी? यह बात अभी के अपरिपक्व राजनेताओें को समझ नहीं आ रही, वहीं विदेशी प्रभाव में भारत के बुद्धिजीवी भी अपने तरह से देश के ख़िलाफ़ षडयंत्र रचने में लगे हैं।
देश को जिन पर भरोसा है, उन भरोसे को खत्म कर दो। समाज की सद्भावना को खत्म कर छोटी दरारों पर इतनी चोट करो कि वे गहरी खाई में तब्दील हो जाएं। देश के महापुरूषों को बदनाम कर दो जिससे नई पीढ़ी नए नायकों की तलाश में जुट जाएं। याद करें कुछ वर्षों से देश के युवा सद्दाम हुसैन, चे ग्वेएरा, फिदेल कास्त्रो, कार्ल मार्क्स, माओत्से तुंग जैसे विश्व के व्यक्तित्व के चित्र वाली टी शर्ट पहने घुमते देखे जा सकते थे। अपनी सुरक्षा बल और सेना को जनता का विरोधी साबित कर दो, उनमें भी जाति-धर्म का विभेद पैदा कर दो यानि जितनी अराजकता फैलाई जा सकती है, प्रयास करो, एक दिन आएगा जब समाज की एकात्मता छिन्न भिन्न हो जाए और देश पर कब्जा करने वाली शक्तियों को मौका मिल जाए।
हमने अपने महापुरुषों और शहीदों का सम्मान नहीं किया तो याद रखें व्यक्ति देश के लिए काम करना बंद कर देगा। जब देश के सामने मुसीबत आ जाए तो मदद नहीं मिलेगी, और यह भाव धीरे-धीरे कम हो ही रहा है। जिनकी पिछली पीढ़ी सर्वस्व त्याग कर देश की सेवा की, उनकी वर्तमान पीढ़ी यही कहती है कि उनके परिवार को क्या मिला। सेना में काम करने वालों की पीढ़ी अब सेना में शामिल नहीं होना चाहती, योग्य अधिकारियों की कमी हो रही है। अभी भी समय है, राजनीतिक दाँवपेंच से महापुरूष को दूर रखें, सेना को दूर रखें, उनका सम्मान करें, वर्ना यही होगा कि इतिहास को गलत पढ़ा और गलत सीखा। कही कवि जगन्नाथ प्रसाद मिश्र की वह पंक्ति सही साबित न हो जाए कि…
“जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा”
(लेखक रायपुर देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक चिंतक हैं।)
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