गाँव की यादें : कुछ तो है -कविता वर्मा
यूँ तो बहुत साल हो गए गाँव गए। गाँव कहें तो अपना वह पैतृक स्थान जहाँ दादी बहू बन कर गईं जहाँ पापा का जन्म हुआ और जहाँ बचपन में गर्मियों की छुटियाँ बिताईं। इसलिए गाँव की स्मृतियाँ भी ऐसी ही टुकड़े-टुकड़े में बिखरी हैं लेकिन जैसी भी हैं, एक मुस्कान लेने एक टीस पैदा करने और एक तसल्ली देने को काफी हैं कि मेरी स्मृतियों में गाँव की मिटटी की सौंधी सौंधी खुशबू है लहराते खेत हैं पशु बाड़े की गोबर की गंध है और नदी का बहता कल-कल जल है।
नरसिंगपुर जिले के छोटे से रेलवे स्टेशन गाडरवारा से चौदह किलोमीटर दूर एक छोटा सा गाँव चीचली। सुबह चार बजे पहुँचती थी एकमात्र सीधी गाड़ी और रास्ते में दादी मुझे उठा कर कहती थीं, बेटा जरा स्टेशन का नाम तो पढ़ो कौन सा स्टेशन आया है।
दरअसल स्टेशन की धुंधली रोशनी और पीछे छूटते बोर्ड में उनकी आँखें जवाब दे जाती थीं।
वे जाग कर एक एक स्टेशन गिनती और कभी आँख लग जाने पर फिर मुझे जागती बेटा देखो तो कौन सा स्टेशन आया है ? सुबह चार बजे स्टेशन से गाँव जाने के लिए बैलगाड़ी ही एक सहारा था बस सुबह नौ बजे चलती थी। रेतीले रास्ते का पहुँच मार्ग जिसमे पैदल चलने में पैर धंसते थे उसपर ठंडी सुबह में हिचकोले खाती बैलगाड़ी का सफर जागते सोते ही पूरा होता था।
बड़ा सा बाड़ा उसमें भटिया वाला घर उसी में गाय का बंधान और उसके पास ही आँगन में लाइन से बिछी खटियाँ जिनपर गर्मियों की रात तारे देखते कहानियाँ सुनते गुजारी जाती थी। कई बार जब रात में हवा बंद हो जाती दादी हाथ पंखे से हवा झलती सोते जागते करवट बदलते रात गुजरती। ठीक से याद तो नहीं लेकिन शायद उस समय इतने ज्यादा मच्छर नहीं होते थे। हाँ सुबह सुबह अच्छी नींद आती थी तब तक सूरज सिर पर आ जाता था और उठना ही पड़ता था।
सुबह सुबह बड़ी माँ गाय की सानी बनाती थीं मैं उनके बगल में उकड़ू बैठकर सानी बनाते देखती फिर गाय को देती। गायें सुबह जंगल में चली जातीं लेकिन एक बछड़ा घर पर ही रहता। वह बहुत छोटा था। शाम को बड़ी माँ उसे दौड़ने को कहतीं ताकि उसके खुर घिस जाएँ। माँ कहतीं खुर बढ़ने से जानवर को तकलीफ होती है। मैं घर के चारों तरफ की सड़क पर उसे दौड़ाती या कहूँ वह मुझे दौड़ाता। गजब की फुर्ती और ताकत थी उसमें। अगले साल जब गाँव गई तो पता चला उसे बेच दिया गया है। बहुत दुःख हुआ था मुझे।
गाँव में नदी के किनारे हमारे कई खेत थे। गर्मियों में बहुत खेती नहीं होती थी लेकिन घर में गेहूँ चने की कुटाई फटकाई होती थी। बड़ी माँ भाभी और दीदियाँ दिन भर इसमें लगी रहती थीं। एक बार हम बैलगाड़ी से खेत पर गए थे। मेड पर लगे अमरुद खाये थे इतना भर याद है।
गाँव में हर बुधवार को सारे दिन लाइट नहीं रहती थी। वह दिन बहुत बड़ा होता था। सारे दिन पंखा झलते झलते हाथ दुःख जाते लेकिन दिन ख़त्म नहीं होता। उस दिन पूरे गाँव में बड़ा सन्नाटा रहता था। छोटे भैया की किराने की दुकान थी जो बहुत चलती थी इसलिए भैया को दिन में घर आकर खाना खाने की फुर्सत भी नहीं मिलती थी तब बड़ी माँ मझे दुकान पर भेजती थीं उन्हें बुलाने।
गाँव में सड़कें तो थीं नहीं सड़क पर रेत भरी धूल रहती थी। दोपह की गर्मी में उस पर चलते चप्पल में रेत घुस जाती और पैर झुलस जाते लेकिन भैया संतरे की गोलियाँ देते कभी कभी एंटी सोडा पिलाते लेकिन घर आने की फुर्सत न निकाल पाते। बहुत सालों बाद पता चला कि भैया कि वह दुकान बंद हो गई और फिर वे किसी और बिजनेस में नहीं जम पाए और अब तो भैया ही नहीं रहे।
उस समय नल की पाइप लाइन तो थी नहीं लेकिन घर में हैंड पम्प थे। हमारे घर में भी तीन हैंड पम्प थे। एक तो घर के अंदर ही था जिस पर से पीने का पानी भरा जाता था। एक बाथरूम में था वह बाथरूम एक बड़े कमरे जितना बड़ा था जिसमे बड़े बड़े गंगाल रखे रहते थे। उसमे बच्चों का नहाना दीदी भाभी का कपड़े धोना साथ साथ चलता और साथ चलती ढेर सारी बातें हँसी मजाक और मस्ती।
जब ढेर सारे कपडे धोने होते तब हम नदी पर जाते। दो तीन तसले में कपडे भर कर सुबह सुबह नदी पर जाने की तैयारी हो जाती। साथ में एक पुड़िया में नमक मिर्च रखे जाते क्योंकि नदी पर जाने का रास्ता एक अमराई से होकर जाता था और रास्ते भर नीचे गिरी केरियाँ बटोरते चलते थे। गाँव की नदी बहुत नीचे उतर कर थी लेकिन गर्मी में भी वह कलकल छलछल बहती थी। पथरीली नदी में कई छोटी बड़ी धाराएं बन जाती थीं जिसमे हम बच्चे खूब नहाते बिना किसी डर के।
किसी चट्टान पर कपडे धोये जाते और लहरों में फैलाकर निचोड़े जाते। एक बार जब घर लाकर साड़ी सुखाने के लिए झटकी तो उसमे से एक मछली निकली। वह देर तक जमीन पर पड़ी छटपटाती रही किसी की उसे हाथ लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई। उसे आँगन के सफ़ेद गुलाब के नीचे जड़ में मैंने ही गाड़ा था उसे । बड़ी माँ ने कहा था उसकी खाद बन जाएगी और अच्छे फूल आयेंगे। उसी गुलाब के पास एक अनार का पेड़ था। उसके अनार सिर्फ बड़ी माँ ही तोड़ती थीं और वह भाभी के बेटे को और मुझे ही मिलता था। मुझे इसलिए कि मैं दादी की लाड़ली थी और मेहमान भी।
आँगन में एक तुलसी का चौरा था जिसमें हर बार नदी में मिले शालिग्राम का घर बनता रहता और वह चौरा भरा भरा रहता। घर के सभी सदस्य उसमे जल चढ़ाते थे। वहीँ से तुलसी में जल चढ़ाने की आदत लगी जो आज तक कायम है।
एक बार गर्मी की छुट्टी में बड़ी दीदी रुद्राष्टक याद कर रही थीं। घर में एक कोठरी थी एकदम छोटी सी अँधेरी कोठरी जिसमें बैठकर दीदी लोग अपनी खुसुरपुसुर बातें करतीं गाने गातीं जो वे बड़े मंझले भैया के डर से घर में कहीं और नहीं कर सकती थीं। उसी कोठरी में दिन में हम लोग रुद्राष्टक याद करते। संस्कृत तब तक स्कूल में पढ़ी नहीं थी लेकिन मुझे श्लोक जल्दी याद हो गए और दीदी लोग बड़े आश्चर्य में लेकिन उन्हें नहीं पता था और शायद मुझे भी नहीं पता था कि मम्मी के मुँह से रुद्राष्टक सुनते सुनते आधा तो मुझे वैसी ही याद हो चुका था।
गाँव में रसोई का एक अलग कमरा था जो पूरे घर से लगभग डेढ़ फ़ीट ऊँचा था। उसमे सिर्फ चार पाँच लोगों के बैठने की जगह थी। वहां भी एक कोने में छोटा सा चबूतरा था जिस पर बना /पका हुआ खाना रखा जाता था ताकि उस स्थान पर किसी के पैर ना रखायें।उसी चबूतरे पर कुलदेवी की पूजा होती थी। रसोई में कभी जूठा गिलास भी नहीं पहुँच सकता था। दरअसल रसोई में हमारी कुलदेवी की पूजा होती थी और इसलिए रसोई की पवित्रता का बहुत ध्यान रखा जाता था।
एक बार की बात है खाना खाते हुए मैंने दाल लेने के लिए अपनी जूठी थाली रसोई की देहरी पर टिका दी और मानों घर में हड़कंप मच गया। उस दिन पूरी रसोई की सफाई लिपाई पुताई हुई। आज सोचती हूँ तो लगता है कैसे उस समय सभी में इतनी जिजीविषा होती थी जो शुद्धि के लिए अचानक आये इतने बड़े काम को बिना किसी शिकन के कर लिया जाता था।
बड़ी माँ की पाँच लड़कियाँ थीं जिन्हें वे बहुत प्यार करती थीं। उन्होंने लड़कियों से कभी जूठी थाली भी नहीं उठवाई। बड़ी भाभी की तीन लड़कियाँ थीं उसके बाद एक बेटा हुआ। लड़कियां थीं तो दादी की लाड़ली लेकिन मैं देखती थी रोज़ सुबह उनके लिए कम दूध की चाय बनती थी जिसे बड़ी भाभी थाली में ठंडा करके उन्हें पिलाती थीं जबकि बेटे के लिए गाय का दूध सबसे पहले ही अलग कर दिया जाता था। यह सब देखकर बड़ा अजीब लगता था ऐसा क्यों होता था उस समय समझ नहीं आता था। समझ तो अब भी नहीं आता कि ऐसा व्यवहार अपने बच्चों के साथ कोई कैसे कर सकता है ?
बड़े पिताजी और भैया कांसे की थालियाँ बनाते थे। उसके लिए पीछे एक बड़ा कमरा बनवाया गया था जिसे भटिया वाला घर कहा जाता था जिसमें किसी दीदी भाभी को जाने की इजाजत नहीं थी लेकिन मैं बहुत छोटी थी और बड़े पिताजी के साथ बैठकर उन्हें कांसी पिघलते उसकी सिल बनाते देखती थी। बड़े भैया रोलिंग मशीन से आई बेतरबीब पतरे जैसे कांसे को खूबसूरत नक़्क़शीदार थाली में बदलते थे। प्रकार से गोलाई देते बेढंगे किनारे काटते उसपर नुकीले प्रकार से डिज़ाइन बनाते। बड़ा तिलिस्मी अनुभव था वह।
महीने पंद्रह दिन का गाँव की यात्रा सहज सरल अनुभवों और यादों की गठरी होती जिसे वापसी में साथ तो लाते लेकिन लाकर बस रख छोड़ते। आज लगता है हमारे पास कम से कम जाने के लिए एक गाँव तो था उससे जुड़ी कुछ यादें तो हैं जो आज की पीढ़ी में कितनों के पास हैं।
संस्मरण