भारतीय इतिहास का सबसे करुण और गौरवपूर्ण अध्याय : धर्म के लिए बलिदान का सप्ताह
दिसम्बर माह का अंतिम सप्ताह भारतीय इतिहास के सबसे मार्मिक, प्रेरक और गौरवपूर्ण अध्यायों में से एक है। ये दिन सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविन्द सिंह जी के चार साहबजादों के अद्वितीय साहस, अडिग आस्था और मातृभूमि व धर्म के लिए दिए गए सर्वोच्च बलिदान की स्मृति से जुड़े हैं।
इन चारों पुत्रों ने भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, किंतु समान दृढ़ता के साथ यह सिद्ध कर दिया कि धर्म और स्वाभिमान की रक्षा के लिए आयु नहीं, बल्कि चरित्र और साहस निर्णायक होते हैं। दो साहबजादों ने युद्धभूमि में शत्रु सेना से लोहा लिया, तो दो नन्हे बालकों ने जीवित दीवार में चुन दिए जाना स्वीकार किया, परंतु धर्मांतरण नहीं किया। उस समय सबसे बड़े साहबजादे की आयु मात्र सत्रह वर्ष और सबसे छोटे की आयु केवल पाँच वर्ष थी।
यह काल भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब के अत्यंत क्रूर शासन का अंतिम चरण था। औरंगजेब ने सिखों को समूल नष्ट करने का अभियान छेड़ रखा था। मुगल सेनाएँ पूरे पंजाब में सिखों की खोज कर उन्हें निर्दयता से मौत के घाट उतार रही थीं। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह जी आनंदपुर साहिब के किले में थे, जिसे मुगल सेना ने चारों ओर से घेर रखा था।
यह घेरा लगभग छह महीने तक चला। किले के भीतर अन्न, जल और अन्य आवश्यक संसाधन समाप्त हो चुके थे। गुरु गोविन्द सिंह जी के सामने दो ही मार्ग थे—या तो किले में अंतिम युद्ध लड़कर वहीं बलिदान दे दिया जाए, या फिर सुरक्षित निकलकर संघर्ष को आगे बढ़ाया जाए। गुरु जी ने दूसरा मार्ग चुना, क्योंकि उनका जीवन केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पंथ और राष्ट्र के लिए आवश्यक था।
आनंदपुर से निकलकर गुरु गोविन्द सिंह जी चमकौर पहुँचे। वहाँ एक पुराना किला था, जिसके निवासी गुरु जी के प्रति श्रद्धा रखते थे। गुरु जी अपने परिवार और कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ 21 दिसम्बर 1704 की रात चमकौर पहुँचे। किंतु इसकी सूचना शीघ्र ही मुगल सेना को मिल गई। सरहिन्द के नवाब वजीर खान के नेतृत्व में विशाल मुगल सेना चमकौर पर टूट पड़ी और किले को घेर लिया।
चमकौर की इमारत बहुत पुरानी थी। कई दीवारें मिट्टी की थीं और लंबे समय तक घेरा सहने की स्थिति में नहीं थीं। ऐतिहासिक ग्रंथों में मुगल सेना की संख्या लगभग तीन लाख बताई जाती है, जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या लगभग दो हजार थी, जिनमें अधिकांश स्त्रियाँ और बच्चे थे। वास्तविक युद्ध करने वाले सैनिक केवल कुछ सौ ही थे। इसके बावजूद सिखों ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। यहीं से यह उक्ति प्रसिद्ध हुई—
“सवा लाख से एक लड़ाऊँ।”
किले के भीतर यह निर्णय लिया गया कि छोटे-छोटे जत्थों में युद्ध किया जाए और गुरु गोविन्द सिंह जी को सुरक्षित बाहर निकाला जाए। प्रत्येक जत्थे में केवल दस योद्धा थे। पहले जत्थे का नेतृत्व बड़े साहबजादे अजीत सिंह को सौंपा गया। अन्य सैनिकों ने उनकी अल्पायु को देखते हुए उन्हें रोकने का प्रयास किया, किंतु साहबजादे अजीत सिंह अडिग रहे।
गुरु गोविन्द सिंह जी ने स्वयं अपने पुत्र को अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए। साहबजादे अजीत सिंह दस वीरों के साथ शत्रु सेना पर टूट पड़े। वे कुशल तीरंदाज थे और तलवार चलाने में भी निपुण थे। उन्होंने अंतिम तीर तक युद्ध किया और फिर तलवार से तब तक लड़े, जब तक तलवार टूट नहीं गई। केवल दस योद्धाओं के साथ लड़ा गया यह युद्ध दिन के तीसरे पहर तक चला। 22 दिसम्बर 1704 को साहबजादे अजीत सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
अगले दिन दूसरे जत्थे का नेतृत्व साहबजादे जुझार सिंह ने किया, जिनकी आयु उस समय मात्र पन्द्रह वर्ष थी। उन्होंने भी अद्भुत वीरता का परिचय दिया और शत्रु सेना से युद्ध करते हुए बलिदान हो गए।
इसके बाद पंच प्यारों ने गुरु गोविन्द सिंह जी से आग्रह किया कि वे सुरक्षित निकल जाएँ। गुरु जी ने पंथ की आज्ञा स्वीकार की और अपने परिवार तथा कुछ सैनिकों के साथ किले के गुप्त मार्ग से बाहर निकले। यह संख्या लगभग इक्यावन बताई जाती है, कुछ स्थानों पर साठ भी लिखी गई है। शेष सिख योद्धाओं ने किले में रहकर युद्ध जारी रखा, ताकि मुगल सेना को यह आभास न हो कि गुरु जी निकल चुके हैं।
चमकौर के पास बहने वाली सरसा नदी उस समय उफान पर थी। यह 23 और 24 दिसम्बर 1704 की मध्यरात्रि थी। कड़ाके की ठंड और मावठे की बारिश हो रही थी। नदी का पानी बर्फ की तरह ठंडा था। गुरु जी का काफिला नदी पार ही कर रहा था कि वजीर खान को इसकी सूचना मिल गई। उसकी सेना ने नदी पर धावा बोल दिया। इस अफरातफरी में गुरु गोविन्द सिंह जी का परिवार बिखर गया।
सबसे छोटे दो साहबजादे—साहबजादा जोरावर सिंह (लगभग सात वर्ष) और साहबजादा फतेह सिंह (लगभग पाँच वर्ष)—अपनी दादी माता गुजरी के साथ अलग हो गए। उनके साथ न कोई सैनिक था, न कोई सेवक। अंधेरी रात, भीषण ठंड और अनजान रास्तों के बीच माता गुजरी दोनों बच्चों को लेकर किसी तरह नदी पार कर गईं और जहाँ रास्ता मिला, उसी दिशा में चल पड़ीं।
सुबह होने पर वे अत्यंत थक चुकी थीं। बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था करनी थी। तभी गंगू नामक व्यक्ति मिला, जिसने माता गुजरी को पहचान लिया। विश्वास दिलाकर वह उन्हें अपने गाँव खैहैड़ी ले गया, भोजन कराया और विश्राम दिया। किंतु उसी दिन, 24 दिसम्बर को, उसने लालच में आकर वजीर खान को इसकी सूचना दे दी और बदले में सोने की मुहर प्राप्त की।
शाम तक मुगल सैनिक आ पहुँचे और माता गुजरी तथा दोनों साहबजादों को पकड़कर ले गए। उन्हें रात भर ठंड में बिना वस्त्रों के बुर्ज की दीवार पर बांधकर रखा गया। अगले दिन, 25 दिसम्बर 1704 को, उन्हें वजीर खान के सामने प्रस्तुत किया गया।
वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों बच्चों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा। दोनों नन्हे साहबजादों ने दृढ़ स्वर में इंकार कर दिया। तब आदेश दिया गया कि यदि वे धर्म परिवर्तन न करें, तो उन्हें जीवित दीवार में चुन दिया जाए। बच्चों को भूखा रखा गया और एक और रात कठोर यातनाओं में बिताने को विवश किया गया।
26 दिसम्बर 1704 को दोनों साहबजादों को जीवित दीवार में चुन दिया गया। यह दृश्य इतना हृदयविदारक था कि कई दरबारी भी विचलित हो उठे। इन असहनीय पीड़ाओं को सहन करते हुए माता गुजरी जी ने भी अपने प्राण त्याग दिए।
इस प्रकार दिसम्बर माह का यह अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों साहबजादों के अद्वितीय बलिदान, धर्मनिष्ठा और शौर्य की अमर स्मृति बन गया। यह केवल सिख इतिहास नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत के स्वाभिमान, आस्था और साहस का प्रतीक है।
