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जीवन यात्रा के रास्तों में छिपा हुआ आत्मबोध

रेखा पाण्डेय (लिपि)

यात्रा का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। उद्देश्यों में भिन्नता हो सकती है, पर बिना यात्रा के किसी लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव है। घर बैठे सारी व्यवस्था का लाभ लेना हो, तो भी छोटी ही सही, यात्रा तो करनी ही पड़ती है। यात्राएँ कई तरह की होती हैं—पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि।

यात्राओं के साधन भी भिन्न होते हैं, जैसे पदयात्रा, बैलगाड़ी, हाथी, घोड़ा, खच्चर गाड़ी, साइकिल यात्रा, स्कूटर अथवा मोटरसाइकिल से यात्रा, बस यात्रा, रेल यात्रा, वायुयान से यात्रा। विकास के साथ साधन बनते गए, परन्तु यात्रा की यात्रा निरन्तर चल रही है, साधन चाहे जो हो।

मानव जीवन की यात्रा माँ के गर्भ से आरंभ होती है और जन्म के पश्चात इस लोक में आकर प्राणी जीवन की यात्रा सांसारिकता एवं संघर्ष के साथ ईश्वर द्वारा प्रदत्त सांसों के तारतम्य में जन्म से मृत्यु तक चलायमान रहती है।

बस और रेल की यात्रा सभी करते हैं, परन्तु इन दोनों की यात्राओं में बहुत अंतर है। मनुष्य कभी जीवन की गाड़ी की तुलना बस से नहीं करता। संभवतः रेलगाड़ी के आविष्कार के साथ ही मनुष्य ने रेलगाड़ी से तुलना करना प्रारंभ किया। उसके पहले तो बैलगाड़ी या घोड़े की रस्सी को कसकर पकड़कर नियंत्रित किया जाता था। तभी तो आज तक किसी व्यक्ति को नियंत्रित करने के लिए “लगाम लगाने” को कहा जाता है। अर्थात नियंत्रण रखने के उपायों की ओर संकेत किया जाता है।

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बस की यात्रा और रेल यात्रा में बहुत अंतर है। बस से कच्चे-पक्के, ऊबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े सब प्रकार के मार्गों से यात्रा कर सकते हैं। आवश्यकतानुसार कहीं भी, कभी भी रुककर पुनः प्रारंभ की जा सकती है। यात्रीगण सुविधानुसार अपने-अपने गन्तव्य स्थानों में उतरते चले जाते हैं। कहीं कोई बाध्यता नहीं होती।

किंतु रेलगाड़ी के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित इंजीनियरों, मैकेनिकों द्वारा बड़ी सावधानीपूर्वक रेल की पटरियों का निर्माण किया जाता है। मार्ग निर्मित कर उन्हें बिछाया जाता है। रेल में हजारों यात्री एक साथ यात्रा करते हैं, जैसे इस धरती पर अनगिनत लोग जन्म लेकर अपनी जीवन यात्रा प्रारंभ करते हैं। रेल केवल अपनी पटरी में ही चलती है, जैसे जीवन क्रम निश्चित होता है। उसी पर जीवन चलता रहता है।

रेल के स्टेशन और रुकने का निश्चित समय होता है। वह पटरी पर बड़ी तीव्रता से दौड़ती है। रेल पर चढ़ने-उतरने की पूरी जिम्मेदारी स्वयं यात्रियों की होती है। रेल किसी की प्रतीक्षा नहीं करती। निश्चित स्टेशन पर निश्चित समय तक ही रुकती है। जैसे रेलगाड़ी का अपनी पटरी से विचलित होने पर दुर्घटना होना निश्चित है, साथ ही समस्याओं का उत्पन्न होना प्रारंभ हो जाता है।

इसी तरह मनुष्य का जीवन एक पटरी पर चलता रहता है। सबके अपने कर्म निश्चित हैं। सबके विश्राम का समय, स्थान भी तय है। मनुष्य अपने अच्छे-बुरे कर्मों के आहार पर जीवन में सुख-दुःख भोगता है। यदि कर्म अच्छे होंगे, तो आनंद की प्राप्ति होगी। अर्थात मर्यादित जीवन शैली से सुखी जीवन और नियमों के विरुद्ध कर्म एवं कार्यों से दुःख-कष्ट मिलेगा।

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मनुष्य सुखद जीवन यात्रा का स्वप्न देखता है। यात्रा प्रारंभ होने पर उल्लासित होता है, मानो शीघ्रता से गन्तव्य तक आराम से पहुँच जाएंगे। परन्तु वास्तव में कोई भी यात्रा उतनी सुखद व सरल नहीं होती, जितनी हमने सोच रखी थी।

यदि सुखद यात्रा का लाभ लेना है, तो सामान कम तथा मन में बोझ कम और मस्तिष्क खुला रखें। फकीराना अंदाज से घुमक्कड़ी करते रहें और मौज लेते रहें। बाकी जीवन के झमेले कभी खत्म होने से रहे। इसलिए जब समय मिले, यात्रा में अवश्य जाएँ। परन्तु यह यात्रा स्वयं की प्रसन्नता और आत्मसंतुष्टि के लिए होनी चाहिए, न कि किसी उत्तरदायित्व निर्वहन के लिए।

अंततः यह कहा जा सकता है कि यात्रा केवल स्थान परिवर्तन का नाम नहीं है, बल्कि यह जीवन को समझने, परखने और स्वीकारने की प्रक्रिया है। यात्रा हमें सिखाती है कि हर मार्ग सीधा नहीं होता, हर मोड़ सहज नहीं होता और हर गंतव्य उतना आसान नहीं होता, जितना हमने कल्पना की होती है। जैसे रेल अपनी निश्चित पटरी पर चलते हुए भी अनेक स्टेशन पार करती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी निश्चित कर्म-पथ पर चलते हुए अनेक अनुभवों, सुख-दुःख, आशा-निराशा और सीखों से होकर गुजरता है।

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यात्रा में मिलने वाली असुविधाएँ, प्रतीक्षाएँ और अनिश्चितताएँ हमें धैर्य और संतुलन का पाठ पढ़ाती हैं। जीवन भी इसी प्रकार है—यह न तो बस की तरह हर जगह रुकता है और न ही हमारी सुविधा की प्रतीक्षा करता है। समय अपनी गति से चलता रहता है और हमें उसी प्रवाह में अपने कर्म और आचरण को साधना पड़ता है। जो व्यक्ति नियम, मर्यादा और संतुलन के साथ जीवन-यात्रा करता है, वही अंततः शांति और संतोष प्राप्त करता है।

यात्रा हमें यह भी सिखाती है कि हल्का सामान लेकर चलना ही बुद्धिमानी है। जीवन में भी अनावश्यक अपेक्षाओं, द्वेष, अहंकार और भय का बोझ कम हो, तो यात्रा अधिक सुखद बनती है। फकीराना भाव से, खुले मन और सहज स्वीकार्यता के साथ आगे बढ़ने वाला व्यक्ति ही जीवन की वास्तविक सुंदरता को महसूस कर पाता है।

इसलिए जब भी अवसर मिले, यात्रा अवश्य करनी चाहिए, न केवल बाहरी संसार की, बल्कि अपने भीतर की भी। क्योंकि बाहरी यात्राएँ हमें रास्ते दिखाती हैं और भीतरी यात्राएँ हमें स्वयं से परिचित कराती हैं। यही जीवन की सच्ची यात्रा है, जो अंततः आत्मसंतोष और आनंद की ओर ले जाती है।

लेखिका साहित्यकार एवं हिन्दी की व्याख्याता हैं।