पाकिस्तान पर भारत की 1971 विजय और नमकहराम बंगलादेश

दक्षिण एशिया का इतिहास केवल सीमाओं का इतिहास नहीं है, बल्कि स्मृतियों, पीड़ाओं और साझा संघर्षों की लंबी कथा भी है। भारत और बांग्लादेश का रिश्ता इसी कथा का सबसे संवेदनशील अध्याय है। यह रिश्ता किसी औपचारिक संधि से नहीं, बल्कि 1971 के उस रक्तरंजित संघर्ष से जन्मा, जब अत्याचार के विरुद्ध खड़ा होना नैतिक अनिवार्यता बन गया था। भारत ने तब केवल एक पड़ोसी देश की सहायता नहीं की, बल्कि मानवीय विवेक के पक्ष में हस्तक्षेप किया। आधी सदी बीत जाने के बाद आज जब दोनों देशों के संबंधों में खटास दिखाई देती है, तो स्वाभाविक रूप से सवाल उठते हैं। क्या इतिहास की वह साझी पीड़ा भुला दी गई है, या वर्तमान की राजनीतिक और आर्थिक जटिलताएं पुराने भरोसे को चुनौती दे रही हैं।
1971 का युद्ध केवल दो देशों के बीच सैन्य संघर्ष नहीं था, बल्कि वह मानवीय हस्तक्षेप का एक दुर्लभ उदाहरण था। 1947 के विभाजन ने पाकिस्तान को भौगोलिक रूप से दो हिस्सों में बांट दिया था, जिनके बीच भारत खड़ा था। पश्चिमी पाकिस्तान की सत्ता संरचना में पूर्वी पाकिस्तान की आवाज दबा दी गई थी। आर्थिक संसाधनों का असमान वितरण, सांस्कृतिक दमन और राजनीतिक अधिकारों का हनन वर्षों से जारी था। 1952 का भाषा आंदोलन, जिसमें बंगाली भाषा के लिए छात्रों ने बलिदान दिया, इस असंतोष का प्रारंभिक संकेत था।
1970 के आम चुनावों में अवामी लीग की ऐतिहासिक जीत के बावजूद सत्ता हस्तांतरण से इनकार ने स्थिति को विस्फोटक बना दिया। 25 मार्च 1971 की रात पाकिस्तानी सेना द्वारा शुरू किए गए ऑपरेशन सर्चलाइट ने पूर्वी पाकिस्तान को भयावह हिंसा में धकेल दिया। विश्वविद्यालयों, बस्तियों और गांवों में हत्याएं हुईं, महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार हुए और लाखों लोग जान बचाकर भारत की ओर भागे। यह संकट केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि गहरा मानवीय था।
भारत ने उस समय वैश्विक दबावों की परवाह किए बिना शरणार्थियों को आश्रय दिया, मुक्ति वाहिनी को समर्थन दिया और अंततः सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लिया। दिसंबर 1971 में हुए युद्ध में भारत की निर्णायक भूमिका ने इतिहास की दिशा बदल दी। ढाका के रेसकोर्स मैदान पर 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण केवल सैन्य जीत नहीं था, बल्कि यह अत्याचार के विरुद्ध एक नैतिक घोषणा थी। बांग्लादेश का जन्म भारत की सहायता के बिना संभव नहीं था, यह तथ्य दोनों देशों के इतिहास में दर्ज है।
स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षों में भारत और बांग्लादेश के रिश्ते विश्वास और सहयोग पर आधारित थे। शेख मुजीबुर रहमान भारत को मित्र राष्ट्र मानते थे और दोनों देशों ने मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए। लेकिन 1975 में मुजीब की हत्या ने बांग्लादेश को राजनीतिक अस्थिरता में धकेल दिया। इसके बाद सैन्य शासन और सत्ता संघर्षों ने विदेश नीति की दिशा भी बदल दी।
जिया उर रहमान और बाद में एरशाद के दौर में पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारे गए और भारत के प्रति अविश्वास बढ़ा। इसी समय सीमा विवाद, जल बंटवारे और उग्रवादी गतिविधियों जैसे मुद्दों ने संबंधों को जटिल बना दिया। फरक्का बैराज और गंगा जल विवाद ने बांग्लादेश में यह भावना पैदा की कि भारत अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाकर दबाव बना रहा है। दूसरी ओर भारत का मानना था कि बांग्लादेश की धरती का उपयोग पूर्वोत्तर भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए किया जा रहा है।
1990 के दशक में लोकतंत्र की वापसी और 1996 की जल संधि से कुछ सुधार हुआ, लेकिन तीस्ता नदी का विवाद अनसुलझा ही रहा। सीमा पर गोलीबारी, अवैध घुसपैठ और मानवाधिकार के आरोप दोनों देशों के बीच अविश्वास को गहराते रहे। 2001 से 2006 के बीच बीएनपी और जमात गठबंधन के शासनकाल में भारत विरोधी रुख और उग्रवादी संगठनों को संरक्षण देने के आरोप भारत में तीव्र असंतोष का कारण बने।
2009 में शेख हसीना की वापसी से रिश्तों में नया अध्याय शुरू हुआ। उन्होंने भारत को रणनीतिक साझेदार माना और सुरक्षा सहयोग को प्राथमिकता दी। उग्रवादी शिविरों पर कार्रवाई, भूमि सीमा समझौता, व्यापार और कनेक्टिविटी परियोजनाओं ने संबंधों को मजबूत किया। भारत ने बांग्लादेश को बिजली दी, बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाया और क्षेत्रीय संपर्क को बढ़ावा दिया। यह दौर सहयोग का प्रतीक बना, हालांकि बांग्लादेश के भीतर यह धारणा भी बनी कि यह साझेदारी असमान है।
व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में रहा और तीस्ता जल समझौते पर प्रगति नहीं हो सकी। इसके बावजूद, हसीना सरकार ने भारत के साथ रिश्तों को प्राथमिकता दी। यही कारण था कि 2024 में जब बांग्लादेश में व्यापक जन आंदोलन हुआ और हसीना को देश छोड़ना पड़ा, तो भारत की भूमिका पर सवाल उठे।
छात्रों के नेतृत्व में शुरू हुआ आंदोलन धीरे धीरे सरकार विरोधी जन विद्रोह में बदल गया। पुलिस कार्रवाई और दमन ने हालात बिगाड़ दिए। हसीना का भारत आना बांग्लादेश में इस धारणा को मजबूत कर गया कि वे भारत समर्थित शासक थीं। मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार ने विदेश नीति में संतुलन की बात की, लेकिन उसके कदम भारत में शंका का कारण बने।
चीन, पाकिस्तान और तुर्की के साथ बढ़ते संपर्क, भारत के पूर्वोत्तर को लेकर दिए गए बयान, और व्यापारिक प्रतिबंधों की श्रृंखला ने तनाव को और बढ़ाया। भारत द्वारा ट्रांजिट सुविधा रोकने और आयात पर पाबंदी लगाने के जवाब में बांग्लादेश ने भी कड़े कदम उठाए। सबसे संवेदनशील मुद्दा शेख हसीना का प्रत्यर्पण बन गया। भारत द्वारा इनकार और बांग्लादेश द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों ने रिश्तों को भावनात्मक स्तर पर भी चोट पहुंचाई।
भारत में यह भावना उभरी कि बांग्लादेश अपनी जन्मकथा भूल रहा है। सोशल मीडिया और राजनीतिक बयानों में कृतघ्नता जैसे शब्द उछलने लगे। वहीं बांग्लादेश का तर्क है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के नाते वह अपनी विदेश नीति स्वयं तय करने का अधिकार रखता है। उनके लिए 1971 सम्मान का विषय है, लेकिन आज की समस्याएं वर्तमान की वास्तविकताओं से जुड़ी हैं।
हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमलों की खबरें भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय हैं। बांग्लादेशी समाज में भी इस पर मतभेद हैं। कुछ इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हैं, कुछ राजनीतिक उकसावे का परिणाम। वहीं युवा पीढ़ी, जिसने 1971 नहीं देखा, भारत को अक्सर हस्तक्षेप करने वाले बड़े पड़ोसी के रूप में देखती है।
इन सबके बीच यह प्रश्न कि क्या बांग्लादेश नमक हरामी कर रहा है, भावनाओं से उपजा प्रतीत होता है। इतिहास कृतज्ञता का साक्षी है, लेकिन संबंध केवल स्मृतियों पर नहीं टिके रहते। वे समानता, सम्मान और आपसी हितों पर आधारित होते हैं। भारत को यह समझना होगा कि बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति और नई पीढ़ी की आकांक्षाएं बदल रही हैं। वहीं बांग्लादेश को भी यह स्वीकार करना होगा कि 1971 केवल अतीत नहीं, बल्कि वर्तमान रिश्तों की नैतिक नींव है।
उपसंहार के रूप में कहा जा सकता है कि भारत और बांग्लादेश का संबंध किसी साधारण कूटनीतिक रिश्ते से कहीं अधिक गहरा है। यह रक्त, पीड़ा और साझा संघर्ष से उपजा संबंध है। आज का तनाव स्थायी नहीं है, यदि दोनों पक्ष संवाद, संवेदनशीलता और संतुलन का मार्ग अपनाएं। जल बंटवारे, व्यापार असमानता और अल्पसंख्यक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर ठोस पहल विश्वास बहाल कर सकती है।
जैसे पद्मा और गंगा की धाराएं सीमाओं के बावजूद एक दूसरे से जुड़ी हैं, वैसे ही भारत और बांग्लादेश का भविष्य भी एक दूसरे से जुड़ा है। यह कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। यह परीक्षा की घड़ी है, जहां इतिहास की स्मृति और वर्तमान की समझ मिलकर तय करेगी कि यह रिश्ता कटुता में बदलता है या एक नए संतुलन के साथ आगे बढ़ता है।

