भारत की आत्मा का स्वर और राष्ट्र चेतना का गीत वन्दे मातरम्

राष्ट्रभक्ति के अद्वितीय ऋषि एवं साहित्यधर्मी बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा कार्तिक शुक्ल नवमी, अक्षयनवमी 07 नवम्बर 1875 के पावन दिवस पर रचित राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् 150 वर्ष से निरन्तर भारत के जन-जन में स्वराष्ट्र के प्रति चेतना का गीत बना हुआ है । इस प्रेरक गीत को 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में राष्ट्रकवि एवं संगीतसाधक श्रद्धेय रविन्द्रनाथ ठाकुर के श्रीमुख से सस्वर गायन सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे। यह सबके अन्तर्मन में गहरे उतर जाने वाले गीत के भावपूर्ण शब्दों का ही प्रभाव था ।
बंग-भंग आंदोलन में प्रखर हुआ राष्ट्रभक्ति के महामंत्र सा यह गीत वीर स्वतंत्रता सेनानियों की प्रेरणा का प्रमुख आदर्श बन गया था, तब से आज तक भारत की आत्मा का ओजस्वी स्वर बना हुआ है । यह गीत भारतीय समाज की राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक पहचान और एकात्म भाव का सार्थक आधार है जो सर्वसमाज में स्वीकार्यता के कारण भारत को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सक्षम है |
वन्दे मातरम् स्वदेश के प्रति प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का आत्मीयता प्रगटीकरण करने वाला प्रेरक गीत है। भारतीय संस्कृति में मातृभूमि को जन्मदात्री माता से भी उत्तम स्थान दिया गया है। अथर्ववेद में कहा है ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण में श्रीराम मातृभूमि की स्तुति करते हुए कहते हैं ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी´ अर्थात जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक महान है।
महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में भी कहा है ‘दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम् ।’ अर्थात दुर्लभ भूमि भारत में मनुष्य जन्म प्राप्त करना अत्यंत ही दुर्लभ है। इस प्रकार अपनी जन्मभूमि को मातृभूमि मानते हुए वन्दना करना भारतीय सांस्कृतिक परंपरा है। हमारे वेद, पुराण, उपनिषदों में उद्घोषित स्वराष्ट्र के प्रति दिव्य भाव को इस गीत में भी अभिव्यक्त किया गया है। इसीलिए यह गीत भारत की आत्मा की अन्तर्ध्वनि ही है।
वन्दे मातरम् के प्रथम दो छंद में मातृभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य व अन्न-जल-संसाधनों के वैभव व सुख से परिपूर्ण वातावरण और विपदाओं को दूर कर देने वाली भारतीय जन-समाज की सामूहिक शक्ति के बल से सशक्त मातृभूमि के यशोगान का गीतात्मक वर्णन किया गया है । बाद के दो छंद में मातृभूमि को दशप्रहरणधारिणी दुर्गा देवी के समान दुर्गति का नाश करने वाली, देवी लक्ष्मी और वाणी की देवी सरस्वती के समान समृद्धि व ज्ञान प्रदायक कहते हुए बिना भेदभाव के सबका पोषण करने वाली मां समान स्तुति की गयी है।
इसमें भारत की भौगोलिक क्षमता – सामर्थ्य, जन-समाज के मातृभूमि से जुड़ाव और राष्ट्रधर्म की बात कही गयी है। अपने देश से प्रेम करने वाले प्रत्येक भारतवासी के मन में भी अपनी जन्मभूमि भारत के प्रति ऐसी ही श्रद्धा और भक्ति है, इसीलिए यह गीत भारतवासियों के अन्तस का मधुर स्वर ही है।
स्वामी विवेकानन्द भी कहते हैं कि ‘यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है जिसे हम धन्य पुण्यभूमि कह सकते हैं, जहां मानव जाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और जहां आध्यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्मान्वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है।’ वे यह भी कहते हैं कि ‘आत्मा जैसे अनादि, अनन्त और अमृतस्वरूप है, वैसे ही हमारी भारतभूमि का जीवन है, हम इसी देश की सन्तान हैं ।’ वन्दे मातरम् गीत ऐसी परम वैभव की भूमि, ज्ञान व आदर्श की भूमि, हम सबकी जन्मदात्री और सर्वजातिसमाज में एकात्मभाव से पोषण करने वाली मातृसम दिव्य भूमि के प्रति भारतवासी पुत्रों की श्रद्धा – अभिव्यक्ति का सरस गान है।
भारत के स्व का बोध कराते हुए भारत के प्रति निष्ठा का भाव जन-जन में संचारित करने वाला गीत है वन्दे मातरम् । वर्तमान समय में जाति, क्षेत्र, भाषा की संकुचित सोच को तिरोहित करते हुए राष्ट्र के पुनर्निमाण में राष्ट्र के स्व की चेतना को पुनः जाग्रत करने की आवश्यकता है, इसमें वन्देमातरम् गीत के भाव अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रभावी हैं |
–उमेश कुमार चौरसिया, लेखक, साहित्यकार व स्वतंत्र पत्रकार
क्षेत्रीय संयुक्त मंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद राजस्थान क्षेत्र

