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जब बाबा ने मेरे कान उमेंठे

प्रस्तुति बसंत राघव

बाम्बे-हावड़ा मार्ग पर एक छोटा-सा स्टेशन है—नैला। स्टेशन से दो किलोमीटर की दूरी पर कलचुरी राजा जाज्वल्यदेव द्वारा बसाया गया नगर है जांजगीर, जो मध्ययुग से ही मिम्मा तालाब और विष्णु के फूटहा मंदिर के कारण प्रसिद्ध है। हिन्दी के कवि शेषनाथ शर्माशील, बच्चू जांजगीरी और विद्याभूषण का यह जन्मस्थान भी है। स्वाभाविक है, यहाँ साहित्यिक हलचल स्वतंत्रता के पूर्व से रही है।

एक बार यहाँ घुमक्कड़ कवि बाबा नागार्जुन आए थे। उनके सम्मान में शासकीय प्रशिक्षण विद्यालय में एक काव्य गोष्ठी आयोजित हुई थी। यह घटना विशेष कारणों से इकतालीस-बयालिस साल बाद भी अविस्मरणीय बनी हुई है, जैसे अभी हाल ही में घटी हो।

बात सन् 1968 के फरवरी महीने की है। उस समय मैं हायर सेकेंडरी जांजगीर में शिक्षक था। उसके सामने स्थित राजकीय बुनियादी प्रशिक्षण संस्था के सभा भवन में हिन्दी के चर्चित कवि नागार्जुन के सम्मान में काव्य गोष्ठी रखी गई थी। स्वागत द्वार पर संस्था के प्राचार्य श्री एच.एस. मिश्र, मल्टीपरपज के प्राचार्य एन.पी. शर्मा तथा हायर सेकेंडरी के प्राचार्य श्री रामशरण तम्बोली ने फूलमालाओं से बाबा का भव्य स्वागत किया। तत्पश्चात् शिक्षक एवं प्रशिक्षार्थियों ने भी उन्हें फूलमालाओं से लाद दिया।

सभा भवन के तीन हिस्सों पर दरियाँ बिछी थीं, जिन पर खद्दर के पाजामा-कुर्ते में प्रशिक्षार्थी एवं शिक्षकगण बैठे हुए थे। फर्श से डेढ़ फीट ऊँचे मंच पर गद्दे बिछे थे। बीच में दो ग़ाव तकिए रखे थे—एक मुख्य अतिथि के लिए, दूसरा संचालक के लिए। मुख्य अतिथि के रूप में बाबा नागार्जुन और संचालन के लिए श्री रामशरण तम्बोली ने आसन ग्रहण किया।

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शुभ्र वस्त्रों की धवलता के बीच बाबा नागार्जुन एकदम देहाती दिख रहे थे। उनका पाजामा-कुर्ता उनकी घुमक्कड़ी का संदेश दे रहा था। सामान्य कद, दुबली-पतली काया, अधपके बाल, खिचड़ी दाढ़ी, और गहरी आँखें जो सामने वाले की आँखों में उतर जातीं—दिखने में पूरे अघौरी।

नागार्जुन आसन पर बैठे ही थे कि संचालक की अतिशयोक्तिपूर्ण अभ्यर्थना पर बोले—“बस भी करो गुरुजी, कार्यक्रम शुरू करो।” संचालक कुछ झेंप गए, फिर कवियों को आमंत्रित करने लगे—

“दिखने को पहलवान हैं, रोज़ लगाते दण्ड,
अब काव्य पाठ करें कविवर श्री भरबंड।”

कोने से एक पहलवान-नुमा कवि मंच की ओर लपके। उनके हावभाव से ही सभाभवन में हँसी का फव्वारा फूट पड़ा। उन्होंने हास्य रस में वीर रस का मिश्रण करते हुए पढ़ा—

“तुम बाटा की सैंडिल हो तो मैं चमरौधा का जूता हूँ,
तुम मेमसाहब की नेकलेस हो तो मैं जांजगीरहिन का सूता हूँ।”

तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठा। बाबा मुस्कुराते हुए बोले—“थोड़ा और आगे बढ़ो उस्ताद।” कवि ने उत्साहित होकर अगली पंक्तियाँ पढ़ीं—

“तुम तो रसभरी जलेबी हो, मैं शंभु का आलू गुंडा हूँ,
लखनऊ की तुम बेगम हो, मैं खोखरा का मुस्तंडा हूँ।”

फिर नरेन्द्र श्रीवास्तव को बुलाया गया, जिन्होंने गाया—

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“हाथों पर गंगाजल है, फिर भी प्यास नहीं जाती,
दिन की बातें कहने में, रात बेचारी शरमाती।”

इसके बाद विद्याभूषण मिश्र ने अपना गीत सुनाया—

“साँसों की गोपियाँ बिलखतीं,
मन का वृंदावन जलता है,
मेरा कृष्ण कन्हैया मुझको,
भूखा-प्यासा ही लगता है।”

मिश्र जी ने गोष्ठी को ऊँचाई दी। बाबा ने उनकी और नरेन्द्र श्रीवास्तव की खूब प्रशंसा की।

अब संचालक ने फिर तुकबंदी की—

“देखन में सूधो लगे, ज्यों बछिया के ताऊ,
अब काव्य पाठ करें, प्रियवर श्री बलदाऊ।”

यह सुनकर बाबा उखड़ गए—“ये क्या दो-दो पंक्तियों में टुच्च-टुच्च मार रहे हो? अब कवियों को सीधे नाम से बुलाओ।” सब सन्न। फिर बाबा बोले—“अब तुम पढ़ो।”

मैंने कविता “अँधेरे में” का पाठ शुरू किया—
(कविता वही रही, पर विराम सुधार दिए गए)।

पंक्तियों के बीच बाबा भड़क उठे—“बंद करो! तुम्हें शर्म नहीं आती मुझ बूढ़े के सामने ऐसी कविता सुनाते हुए?” सभा में सन्नाटा छा गया। वरिष्ठ व्याख्याता श्री बिस्नोई ने हाथ जोड़कर कहा—“बाबा, क्षमा करें, बलदेव नया कवि है, अनजाने में भूल हुई।”

बाबा बोले—“अब तो यही कवि अपनी कविता पूरी करेगा, तभी कार्यक्रम होगा।” मैं काँप गया, पर संभलकर बोला—“बाबा, मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।”
बाबा बोले—“पूछो!”

मैंने कहा—“शलभ श्रीराम सिंह आपके पास रहते हैं?”
बाबा बोले—“हाँ, तो?”
“उन्होंने मृत स्त्री के साथ संभोग पर कविता लिखी, तब आपने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी?”

बाबा तमतमा गए—“अच्छा, तो तुम भी शलभ बनना चाहते हो?”
“नहीं बाबा, मेरा मतलब था—”
“मतलब कुछ नहीं! प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं होना चाहिए!”

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थोड़ी देर बाद बाबा शांत हुए और बोले—“अब बिना ‘कामद गंध’ के कविता फिर से पढ़ो।” मैंने वैसा ही किया। बाबा मुस्कुराए—“अब ठीक है।”

फिर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता “अकाल के बाद” सुनाई—

“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास,
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास…”

सभा में भावनाओं की लहर दौड़ गई। बाबा ने आगे “सिन्दूर तिलकित भाल” और फिर अपनी कालजयी रचना “बादल को घिरते देखा है” भी सुनाई।

उनके स्वर में हिमालय की छटा उतर आई थी। हर पंक्ति जैसे जीवन का सत्य कह रही थी।

सभा समाप्त होने के बाद लोग बाबा को घेरकर उनसे बातें करने लगे। उन्होंने सबका स्नेहपूर्वक धन्यवाद किया—“मैं बिहार में जन्मा, पर यह देश मेरा अपना है। यायावरी में मुझे कभी नहीं लगा कि मैं अपने गाँव तरौनी से दूर हूँ। आप सब मेरे अपने हैं।”

बाबा ने चारों ओर नज़र घुमाई और पूछा—“अरे बलदेव कहाँ गया?”
“बाबा, मैं यहीं हूँ।”
“अच्छा, अब यह बताओ क्या करना है?”
मैंने कहा—“आपको मेरे घर चलना है, बच्चों को आशीष देना है।”
“हाँ हाँ, याद है, चलो चलो।”

मैंने देखा—सामान्य लगने वाला यह व्यक्ति मेरे सामने कितना विराट हो गया था। कोई उन्हें छोड़ना नहीं चाहता था।

आलेख – डॉ बलदेव साव