भारत की एकता और अखंडता के शिल्पकार लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
 सरदार वल्लभभाई पटेल भारत की उन विरल विभूतियों में से एक हैं जिन्होंने स्वाधीनता के लिए जितना संघर्ष किया, उतना ही संघर्ष भारत को आकार देने के लिए भी किया। स्वतंत्रता के साथ आरंभ हुए इस संघर्ष का प्रत्येक पल मानो भीषण षड्यंत्र और उत्पात से भरा था। उन परिस्थितियों में यदि किसी ने लोहा लिया, तो वे सरदार वल्लभभाई पटेल ही थे। उनकी दूरदर्शिता, रणनीतिक कौशल और संकल्पशीलता से ही भारत का वर्तमान गणतांत्रिक स्वरूप उभर सका। इसीलिए उन्हें “लौहपुरुष” कहा गया।
सरदार वल्लभभाई पटेल भारत की उन विरल विभूतियों में से एक हैं जिन्होंने स्वाधीनता के लिए जितना संघर्ष किया, उतना ही संघर्ष भारत को आकार देने के लिए भी किया। स्वतंत्रता के साथ आरंभ हुए इस संघर्ष का प्रत्येक पल मानो भीषण षड्यंत्र और उत्पात से भरा था। उन परिस्थितियों में यदि किसी ने लोहा लिया, तो वे सरदार वल्लभभाई पटेल ही थे। उनकी दूरदर्शिता, रणनीतिक कौशल और संकल्पशीलता से ही भारत का वर्तमान गणतांत्रिक स्वरूप उभर सका। इसीलिए उन्हें “लौहपुरुष” कहा गया।
कद-काठी, बोली-वाणी या शरीर सौष्ठव से व्यक्ति की पहचान स्थायी नहीं होती। प्रतिदिन लाखों लोग जन्म लेते हैं और लाखों लोग विदा होते हैं, परंतु सभी स्मृति में स्थायी नहीं रहते। करोड़ों में से कोई एक छवि ही स्थायी स्मृति में बसती है। स्मृति का यह स्थायित्व ही व्यक्तित्व, कृतित्व और विषम परिस्थिति में अडिग रहने वाले नेतृत्व की सफलता का आधार होता है। ऐसे प्रज्ञावान और पुरुषार्थी मनुष्य सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी जनश्रद्धा के केंद्र बने रहते हैं।
सरदार वल्लभभाई पटेल ऐसे ही महान व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें संसार से विदा हुए पचहत्तर वर्ष बीत गए, लेकिन आज भी उन्हें आत्मीयता से स्मरण किया जाता है और प्रत्येक भारतीय श्रद्धा से शीश नवाता है। सरदार पटेल संसार के उन विरले महापुरुषों में से एक हैं जिनका कोई आलोचक नहीं। वे सही मायने में “अजातशत्रु” थे, जिनका समूचा जीवन समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए समर्पित रहा।
संक्षिप्त जीवन परिचय
सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में हुआ। उनके पिता झाबेरभाई खेड़ा जिले के कारमसद में रहते थे और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय थे। माता लाडबा पटेल धार्मिक स्वभाव की घरेलू महिला थीं। वल्लभभाई सात भाई-बहनों में से एक थे। उनसे बड़े विट्ठल भाई पटेल भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।
1891 में उनका विवाह हुआ। कुछ कारणों से पढ़ाई में बाधा आई, लेकिन 1897 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की, तब उनकी आयु 22 वर्ष थी। 1907 में पत्नी झबेरबा का निधन हो गया। 1910 में वे वकालत पढ़ने लंदन गए, जहाँ उन्होंने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की। 1913 में भारत लौटकर अहमदाबाद में वकालत प्रारंभ की।
1915 में वे ‘गुजरात सभा’ से जुड़े और यहीं से उनका सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ। 1917 में वे अहमदाबाद नगर पालिका के लिए चुने गए और इसी वर्ष कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रिय हुए।
1918 में खेड़ा सत्याग्रह में भाग लिया, 1920 में गुजरात प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने अहमदाबाद नगर पालिका का चुनाव जीतकर सफलता पाई। 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लिया, 1923 में नागपुर में झंडा सत्याग्रह और बोरसाद सत्याग्रह में शामिल हुए।
1924 में वे अहमदाबाद नगर पालिका के अध्यक्ष बने। 1927 में गुजरात में बाढ़ आई, तब उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर सहायता समूह बनाकर राहत कार्य किया। 1928 में उन्होंने बारडोली सत्याग्रह का नेतृत्व किया, जिसने उन्हें “सरदार” की उपाधि दिलाई।
1931 में कराची अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और गिरफ्तार हुए। वे कुल छह बार गिरफ्तार हुए और लगभग सोलह माह जेल में रहे।
1946 में संविधान सभा के सदस्य बने। 15 अगस्त 1947 को वे स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री बने। 15 दिसंबर 1950 को उनका निधन हुआ। 1991 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उनका जन्मदिन 31 अक्टूबर भारत में राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
विषम परिस्थिति में सुगम मार्ग निकाला
भारत स्वतंत्र हुआ तो परिस्थितियाँ अत्यंत जटिल थीं। विभाजन की त्रासदी, हिंसक घटनाएँ, शरणार्थियों की पीड़ा, और कुछ रियासतों का स्वतंत्र रहने या पाकिस्तान में जाने का प्रयास—ये सभी चुनौतियाँ सरदार पटेल के सामने थीं।
गृहमंत्री के रूप में उन्हें इन सभी समस्याओं से निपटना था। अंग्रेजों और मुस्लिम लीग ने सत्ता हस्तांतरण से पहले ही षड्यंत्रों के बीज बो दिए थे। मुस्लिम लीग ने प्रशासन में गहरी पैठ बना ली थी और ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ (16 अगस्त 1946) से आरंभ हुई हिंसा का सिलसिला स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा।
सत्ता हस्तांतरण के बावजूद अंग्रेजों का तंत्र यथावत रहा और लॉर्ड माउंटबेटन एक वर्ष तक गवर्नर जनरल बने रहे। प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को यह पद कांग्रेस की प्रांतीय इकाइयों के बहुमत से नहीं, बल्कि गांधीजी की इच्छा से मिला था, जबकि बहुमत पटेल के पक्ष में था। परंतु गांधीजी के प्रति सम्मानवश पटेल ने गृहमंत्री का दायित्व स्वीकार किया और पूरी निष्ठा से भारत को एकीकृत करने में जुट गए।
उनकी नीति, दृढ़ता और व्यावहारिक दृष्टिकोण ने भारत को विभाजन के बाद स्थायित्व प्रदान किया। भोपाल, जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर के विलय, सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार तथा सांस्कृतिक एकता जैसे विषयों पर नेहरूजी से मतभेद के बावजूद उन्होंने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा।
आंदोलनों में दृढ़ता और “सरदार” की उपाधि
लंदन से लौटने के बाद सरदार पटेल ने 1918 में खेड़ा सत्याग्रह का नेतृत्व किया। सूखा, भुखमरी और महामारी से त्रस्त जनता से अंग्रेज सरकार जबरन कर वसूल रही थी। वल्लभभाई पटेल ने किसानों, व्यापारियों और लोकशिल्पकारों को संगठित किया और अहिंसक आंदोलन छेड़ा।
आंदोलन की सफलता के बाद जनता ने उन्हें “सरदार” कहना प्रारंभ किया। बाद में गांधीजी ने भी यही संबोधन दिया और वे पूरे देश में “सरदार पटेल” के नाम से प्रसिद्ध हुए।
1928 का बारडोली सत्याग्रह उनके नेतृत्व का अगला उदाहरण था। अंग्रेज सरकार ने जबरन लगान बढ़ाया, तो पटेल ने किसानों को एकजुट किया। आंदोलन ने व्यापक रूप लिया और सरकार को झुकना पड़ा।
इन आंदोलनों ने उन्हें राष्ट्रव्यापी नेतृत्व की पंक्ति में स्थापित किया।
रियासतों के विलीनीकरण में रणनीतिक कौशल
स्वतंत्र भारत के निर्माण में सरदार पटेल की सबसे बड़ी भूमिका 562 रियासतों के भारतीय संघ में विलीनीकरण की थी। अंग्रेजों के प्रस्थान के समय मुस्लिम लीग रियासतों को पाकिस्तान में मिलाने या स्वतंत्र रखने की साजिशें रच रही थी।
पटेल ने समय रहते सभी रियासतों से संपर्क साधा और उन्हें भारत में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। हैदराबाद और जूनागढ़ में उन्होंने सेना का भी प्रयोग किया, जबकि नेहरू और माउंटबेटन इसके पक्ष में नहीं थे। कश्मीर के भारत में विलय में भी उनकी रणनीति निर्णायक रही।
उन्होंने आरएसएस के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी को महाराजा हरि सिंह से वार्ता हेतु श्रीनगर भेजा, जिसके परिणामस्वरूप कश्मीर भारत का अंग बना।
शरणार्थियों के पुनर्वास और प्रशासनिक स्थायित्व में भी उनका योगदान अमूल्य रहा। प्रधानमंत्री नेहरू की असहमति के बावजूद उन्होंने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, जो भारत की सांस्कृतिक पुनर्स्थापना का प्रतीक बना।
75 वर्ष की आयु में निधन के समय उनके पास न तो निजी संपत्ति थी, न मकान। उनका परिवार अहमदाबाद में किराए के मकान में रहता था और बैंक खाते में केवल 260 रुपये थे। उन्होंने कभी अपने परिवार को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया। उनके निधन के बाद गुजरात कांग्रेस के आग्रह पर उनकी पुत्री ने लोकसभा चुनाव लड़ा।
सरदार वल्लभभाई पटेल ने न केवल भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, बल्कि उसके अखंड स्वरूप को भी सुरक्षित किया। उनके अद्वितीय नेतृत्व, कठोर अनुशासन और अडिग संकल्प के बिना भारत की एकता संभव नहीं थी


 
							 
							