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सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक छठ पूजा

आचार्य ललित मुनि

भारतीय संस्कृति के विशाल कैनवास पर छठ पूजा एक ऐसा चित्र उकेरती है जो सूर्य की किरणों की तरह निष्पक्ष, प्रदीप्त और जीवनदायी है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला यह महापर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल के तराई क्षेत्रों में धूमधाम से उत्साहित होता है। लेकिन आज यह केवल क्षेत्रीय सीमाओं में बंधा नहीं रहा; बल्कि प्रवासी भारतीयों के माध्यम से विश्व के कोने-कोने में अपनी जड़ें जमा चुका है। छठ पूजा मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, अपितु सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकता का जीवंत प्रतीक है। यह पर्व सूर्य देवता और उनकी बहन छठी मैया की उपासना के माध्यम से प्रकृति, परिवार और समाज को एक सूत्र में बांधता है।

इस त्योहार की विशेषता इसकी सादगी और समावेशिता में निहित है। महिलाएं तो इसका केंद्र हैं, जो निर्जला व्रत धारण कर परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं, लेकिन पुरुषों का भी इसमें सक्रिय सहयोग होता है। यह पर्व ऊंच-नीच, जाति-धर्म की सीमाओं को लांघकर सबको एक मंच पर लाता है। घाटों पर इकट्ठे होकर अर्घ्य चढ़ाने वाले लोग, चाहे वे किसी भी वर्ग के हों, सभी एक ही धागे में पिरोए जाते हैं। सामाजिक समरसता का यह संदेश इतना गहरा है कि सभी समुदाय के लोग भी इसमें भाग लेते हैं, जो सांस्कृतिक एकता की मिसाल कायम करता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी छठ पूजा अद्भुत है। कार्तिक मास में सूर्य की पराबैंगनी किरणें त्वचा के लिए लाभकारी होती हैं, जो विटामिन डी प्रदान करती हैं। यह पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देता है, नदियों की सफाई और प्रकृति पूजा। आज जब विश्व पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है, छठ जैसे पर्व हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य सिखाते हैं।

छठ पूजा का इतिहास और उत्पत्ति

छठ पूजा की जड़ें वैदिक काल में दिखाई देती हैं। ऋग्वेद में सूर्य और उषा की पूजा का वर्णन मिलता है, जहां सूर्य को जीवन का स्रोत और ऊर्जा का केंद्र माना गया है। यह पर्व आर्य परंपरा का हिस्सा है, जो कृषि-प्रधान समाज की आस्था को प्रतिबिंबित करता है। प्राचीन काल में सूर्योपासना फसल चक्र और समृद्धि से जुड़ी थी। ऐतिहासिक रूप से, बिहार के मुंगेर स्थित सीताचरण मंदिर से इसकी उत्पत्ति मानी जाती है, जहां माता सीता ने लंका विजय के पश्चात छठ व्रत किया था। रामायण की इस कथा के अनुसार, भगवान राम और सीता ने वनवास के दौरान सूर्य देव की कृपा से कष्टों से मुक्ति पाई।

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महाभारत से जुड़ी कथाएं छठ की महिमा को और मजबूत करती हैं। सूर्य पुत्र कर्ण ने अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देकर अपार शक्ति प्राप्त की। द्रौपदी ने पांडवों के वनवास काल में छठ व्रत रखा, जिससे उन्हें ताम्रपात्र प्राप्त हुआ। एक ऐसा पात्र जो कभी खाली न होता। मार्कण्डेय पुराण में राजा प्रियवद की कथा है, जहां षष्ठी देवी की पूजा से नि:संतान दंपति को पुत्र प्राप्ति हुई। देव माता अदिति ने भी सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की, जिससे तेजस्वी पुत्र आदित्य का जन्म हुआ। ये कथाएं न केवल धार्मिक हैं, बल्कि सामाजिक मूल्यों को भी रेखांकित करती हैं।

वर्ष में दो बार मनाया जाने वाला यह पर्व—चैती छठ (चैत्र शुक्ल षष्ठी) और कार्तिकी छठ (कार्तिक शुक्ल षष्ठी), कृषि चक्र से जुड़ा है। कार्तिकी छठ फसल कटाई के बाद कृतज्ञता का प्रतीक है। मध्यकाल में यह बिहार की लोक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया, जहां मैथिल, मगही और भोजपुरी बोलने वाले समुदायों ने इसे अपनाया। ब्रिटिश काल में भी यह पर्व दबाया नहीं जा सका, बल्कि प्रवासियों के साथ विश्व तक फैला। आज यह बिहारवासियों की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है, जो सामाजिक एकता को मजबूत करता है। इतिहास गवाह है कि छठ ने हमेशा विभाजनकारी ताकतों का मुकाबला किया, एकता का संदेश देकर।

रीति-रिवाज और परंपराएं

छठ पूजा के रीति-रिवाज सादगी और पवित्रता के प्रतीक हैं। यह चार दिवसीय पर्व कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से सप्तमी तक चलता है। पहला दिन ‘नहाय-खाय’ होता है, जहां व्रती नदी या तालाब में स्नान कर शुद्ध होते हैं। घर की सफाई अनिवार्य है, और भोजन में अरवा चावल, कद्दू की सब्जी और चने की दाल शामिल होती है, सब मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी से पकाया जाता है। यह शारीरिक और मानसिक शुद्धि का प्रारंभ है।

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दूसरा दिन ‘खरना’ या ‘लोहंडा’ है, जहां पूर्ण निर्जला उपवास रखा जाता है। सूर्यास्त के बाद गुड़-गन्ने की खीर, रोटी और फल प्रसाद के रूप में ग्रहण किए जाते हैं, जो परिवार और पड़ोसियों में वितरित होते हैं। मध्यरात्रि में ठेकुआ बनाना परंपरा है, गेहूं के आटे, गुड़ और घी से बने ये मिष्टान्न सूर्य को अर्घ्य के लिए समर्पित होते हैं। तीसरा दिन ‘संध्या अर्घ्य’ का है, जहां डूबते सूर्य को ठेकुआ, फल, गन्ना, नारियल और हल्दी से भरी दौरी (बांस की टोकरी) में प्रसाद लेकर घाट पर जाया जाता है। जल में खड़े होकर अर्घ्य चढ़ाया जाता है, और रात्रि जागरण में भक्ति गीत गाए जाते हैं जैसे “कांच ही बांस, काहे का ताड़” या “सेवला चरन तोहार हे छठी मैया”।

चौथा दिन ‘उषा अर्घ्य’ से समापन होता है। भोर में उगते सूर्य को अर्घ्य देकर पारण किया जाता है, शरबत और प्रसाद से व्रत तोड़ा जाता है। नियम कठोर हैं: लहसुन-प्याज वर्जित, सूती वस्त्र बिना सिलाई के, सुखद शय्या त्याग। महिलाएं धोती पहनती हैं, जो मिथिला की परंपरा है। पुरुष भी व्रत रखते हैं, जो लिंग समानता को दर्शाता है। ये रीति-रिवाज न केवल धार्मिक हैं, बल्कि सामूहिक सहयोग को बढ़ावा देते हैं—घाट सजाना, प्रसाद बांटना सब मिलकर करते हैं। लोकगीत और नृत्य इसकी सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत रखते हैं।

सामाजिक समरसता का प्रतीक

छठ पूजा सामाजिक समरसता का सर्वोत्तम उदाहरण है। यह पर्व जाति, धर्म, वर्ग की सीमाओं को तोड़ता है। परिवारिक स्तर पर यह बंधनों को मजबूत करता है। महिलाओं का व्रत परिवार कल्याण के लिए होता है, लेकिन पुरुष सहयोग करते हैं, प्रसाद तैयार करना, बच्चों की देखभाल। सामाजिक स्तर पर घाट सफाई अभियान एकता सिखाता है। बिहार जैसे क्षेत्रों में, जहां जातिगत विभाजन गहरा है, छठ एकता का पुल बनता है। यह सामाजिक समरसता का प्रतीक है, जो विश्व स्तर पर बिहारी पहचान मजबूत करता है। यह पर्व नारी सशक्तीकरण भी करता है, क्योंकि व्रती महिलाएं तपस्या से समाज को प्रेरित करती हैं। कुल मिलाकर, छठ समरसता का ऐसा माध्यम है जो भेदभाव मिटाकर मानवता सिखाता है।

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सांस्कृतिक एकता का माध्यम

छठ पूजा सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है, जो वैदिक परंपराओं को लोक जीवन से जोड़ता है। बिहार की भोजपुरी-मगही संस्कृति से निकलकर यह उत्तर भारत से दक्षिण तक, यहां तक कि अमेरिका-यूरोप तक फैला है। प्रवासी समुदाय पार्कों में घाट बनाकर इसे मनाते हैं, जो सांस्कृतिक निरंतरता दर्शाता है।

लोकगीत इसकी आत्मा हैं—”केलवा जे फरेला घवद से” जैसे गीत पीढ़ियों को जोड़ते हैं। मिथिला में धोती परंपरा, बंगाल में स्थानीय स्वाद, ये विविधताएं एकता में समाहित हैं। यह पर्व पर्यावरणीय चेतना जगाता है, नदी पूजा से जल संरक्षण। आधुनिक समय में सोशल मीडिया पर छठ वीडियो वायरल होते हैं, जो युवाओं को संस्कृति से जोड़ते हैं। यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का माध्यम है, जो राष्ट्रवाद को मजबूत करता है। छठ एकता का ऐसा धागा है जो विविधता को सजाता है।

आज के दौर में छठ पूजा का महत्व और बढ़ गया है। २०२५ में यह ३८,००० करोड़ का व्यापार उत्पन्न करेगा, जो सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है। शहरीकरण के बावजूद, लोग छतों पर अस्थायी घाट बनाते हैं। यह स्वास्थ्य लाभ भी देता है, उपवास से detoxification, सूर्य स्नान से विटामिन डी। वैश्विक स्तर पर यह भारतीय डायस्पोरा की एकता का प्रतीक है। महामारी के बाद यह सामूहिक उत्सव के रूप में मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है। छठ पूजा सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकता का अमर प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि सूर्य की किरणों की तरह जीवन सबके लिए समान है। इसकी सादगी में छिपी गहनता हमें प्रकृति, परिवार और समाज से जोड़ती है।