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नरकासुर वध और छोटी दीपावली: असुरता पर दिव्यता की विजय का पर्व

आचार्य ललित मुनि

भारतीय संस्कृति का हर पर्व केवल उत्सव नहीं होता, वह जीवन के अंधकार को मिटाकर आत्मा के भीतर प्रकाश फैलाने का एक संदेश भी देता है। दीपावली इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। पाँच दिनों तक चलने वाला यह पर्व जहाँ बाहरी उजियारे का प्रतीक है, वहीं भीतर की गहराइयों में यह आत्मा के पुनर्जागरण का उत्सव भी है। दीपावली की भूमिका स्वरूप जो दिन आता है, उसे “नरक चतुर्दशी” या “छोटी दीपावली” कहा जाता है। यह दिवस हमें स्मरण कराता है कि असली दीपक वह नहीं जो मिट्टी का बना हो, बल्कि वह है जो हमारे अंतर्मन में जलता है, जो भीतर के अंधकार को मिटाकर सच्चे प्रकाश की अनुभूति कराता है।

नरकासुर वध के कारण इसे नरक चतुर्दशी कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि नरकासुर, भूदेवी अर्थात् पृथ्वी माता और भगवान विष्णु के वराह अवतार के संयोग से उत्पन्न हुआ था। उसका जन्म उद्देश्य था धर्म की रक्षा और लोककल्याण, परंतु शक्ति जब संयम से दूर हो जाती है तो वही विनाश का कारण बनती है। नरकासुर बुद्धिमान, बलवान और तेजस्वी था, किन्तु धीरे-धीरे उसके भीतर अहंकार ने घर कर लिया। उसने अपने सामर्थ्य को दूसरों पर शासन के लिए प्रयोग करना शुरू किया।

उसकी शक्ति इतनी बढ़ी कि उसने इंद्रलोक पर आक्रमण कर दिया, देवताओं का ऐरावत छीन लिया और सोलह हज़ार कन्याओं को अपने महल में कैद कर लिया। उसके अत्याचारों से धरती और स्वर्ग दोनों कांप उठे। देवगण भयभीत होकर भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना करने लगे। विष्णु ने आश्वासन दिया कि समय आने पर उसका अंत अवश्य होगा, क्योंकि अधर्म चाहे जितना बलवान क्यों न हो, वह सत्य के आगे टिक नहीं सकता।

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समय आया जब नरकासुर के अत्याचार असहनीय हो गए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ उसके विनाश का संकल्प लिया। कथा कहती है कि नरकासुर को एक वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु केवल उसकी माता के हाथों से ही होगी, और यही कारण था कि सत्यभामा को इस युद्ध में सम्मिलित होना पड़ा, क्योंकि वे भूदेवी का ही अवतार थीं।

श्रीकृष्ण गरुड़ पर आरूढ़ होकर युद्धभूमि में पहुँचे। युद्ध भयंकर था, तीरों की वर्षा, रणभेरी की गूंज और आकाश में उठती धूल, मानो प्रकाश और अंधकार आमने-सामने खड़े हों। लड़ाई के दौरान जब एक बाण श्रीकृष्ण को लगा और वे मूर्छित होकर गिर पड़े, तब सत्यभामा के भीतर की मातृशक्ति जाग उठी। उन्होंने धनुष उठाया, और एक निर्णायक बाण चलाकर नरकासुर का अंत कर दिया।

मृत्यु के क्षणों में नरकासुर के भीतर पश्चाताप जागा। उसने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, “हे प्रभु! मेरे कर्म भले ही अधर्म से भरे हों, पर मैं चाहता हूँ कि मेरी मृत्यु का यह दिन लोग दुख से नहीं, प्रकाश और आनंद से मनाएँ।” श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर कहा, “ऐसा ही होगा। आज के दिन से हर वर्ष लोग दीप जलाएँगे, ताकि संसार में यह स्मरण बना रहे कि असुरता चाहे कितनी भी प्रबल क्यों न हो, दिव्यता अंततः विजयी होती है।”

तभी से यह दिन “नरक चतुर्दशी” या “छोटी दीपावली” के रूप में मनाया जाने लगा। यह दिन केवल पौराणिक कथा का स्मरण नहीं, बल्कि उस भावना का प्रतीक है कि मनुष्य को अपने भीतर बसे अंधकार से मुक्त होना चाहिए। इस दिन प्रातःकाल अभ्यंग स्नान की परंपरा है, तेल लगाकर शरीर की मालिश करना, फिर स्नान कर नया वस्त्र धारण करना। यह केवल शारीरिक शुद्धि नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक शुद्धि का प्रतीक है।

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लोग अपने घरों में दीप जलाते हैं ताकि प्रतीकात्मक रूप से यह कहा जा सके कि हमने भीतर का अंधकार मिटा दिया है। इस दिन को ‘छोटी दीपावली’ इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह अगली रात की महालक्ष्मी पूजा से पहले मनुष्य को शुद्ध, निर्मल और उज्ज्वल बनने की प्रेरणा देता है।

नरकासुर कोई व्यक्ति मात्र नहीं है; वह मानव के भीतर छिपा वह अंधकार है जो हमें स्वार्थ, ईर्ष्या, लोभ और अहंकार की ओर खींचता है। हर मनुष्य के भीतर यह नरकासुर मौजूद होता है, जब हम दूसरों को नीचा दिखाने में सुख पाते हैं, जब शक्ति का उपयोग सेवा के बजाय स्वार्थ में करते हैं, तब यह असुर सक्रिय हो जाता है।

और कृष्ण? वे हमारे भीतर की चेतना हैं, जो सदा धर्म की दिशा में प्रेरित करती है। सत्यभामा हमारी अंतरंग शक्ति है, माँ, करुणा और साहस का संगम। जब हम इन दोनों को पहचान लेते हैं, तो भीतर के नरकासुर का अंत स्वाभाविक हो जाता है। यही इस कथा का गूढ़ संदेश है: असुरता बाहर नहीं, हमारे भीतर ही बसती है, और दिव्यता भी वहीं जन्म लेती है।

दीपक केवल मिट्टी, तेल और बाती का मेल नहीं है; वह जीवन का प्रतीक है। बाती आत्मबल है, तेल श्रद्धा है, और लौ ज्ञान का प्रतीक है। जब श्रद्धा और आत्मबल एक साथ होते हैं, तब ही ज्ञान का प्रकाश फैलता है। छोटी दीपावली पर जब घर-घर दीप जलते हैं, तो वे केवल वातावरण को नहीं, हृदयों को भी उजाला देते हैं।

कहा गया है “तमसो मा ज्योतिर्गमय” अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। यह वाक्य केवल प्रार्थना नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य है। हर दीपक हमें याद दिलाता है कि जब तक भीतर का दीप जलता रहेगा, तब तक कोई अंधकार स्थायी नहीं रहेगा।

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छोटी दीपावली का एक व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष भी है। शरद ऋतु के अंत में यह त्योहार शरीर और पर्यावरण दोनों की शुद्धि का संकेत देता है। तेल स्नान से शरीर में जमी अशुद्धियाँ निकल जाती हैं, और दीयों की लौ से वातावरण की नमी व कीटाणु नष्ट होते हैं। इस प्रकार यह पर्व स्वास्थ्य, स्वच्छता और सकारात्मकता का प्रतीक बन जाता है। घर की सफाई, वस्त्रों की धुलाई और मन की निर्मलताम सब एक साथ इस दिन साकार होते हैं। जब हम बाहर के साथ भीतर की भी सफाई करते हैं, तभी छोटी दीपावली का अर्थ पूरा होता है।

दीपावली केवल व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक पर्व भी है। जब घर-घर दीप जलते हैं, तो पूरा समाज उजाला पाता है। छोटी दीपावली हमें यह सिखाती है कि प्रकाश केवल अपने आँगन तक सीमित न रहे। यदि आसपास कोई अंधकार है गरीबी, अन्याय या अज्ञानता, तो हमें उसके लिए भी दीप जलाना चाहिए। क्योंकि सच्ची दिव्यता वही है जो दूसरों के जीवन को भी प्रकाशित करे।

नरकासुर का वध तभी पूर्ण अर्थों में सार्थक होता है जब समाज से भी असुरता, क्रूरता और भय मिट जाएँ। इसलिए यह पर्व दान, सेवा और करुणा का भी प्रतीक है। इस छोटी दीपावली पर आइए, केवल मिट्टी के दीपक ही नहीं, अपने भीतर का दीप भी जलाएँ, वह दीप जो हमें स्वयं से मिलाए, जो हमारे अहंकार को पिघलाए और जो हमें सिखाए कि सच्चा उत्सव वही है जब मन प्रकाश से भर जाए।