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वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत और गुरु-शिष्य परंपरा का वैदिक पर्व : श्रावणी उपाकर्म

आचार्य ललित मुनि

प्राचीन काल में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व के रूप में मनाया जाता था। वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय होता था। श्रावणी पर्व को ब्रह्म ज्ञान का पर्व मानते हैं। इसी दिन श्रावणी उपाकर्म के पश्चात वेदाध्ययन प्रारंभ किया जाता था। इसलिए इसे ब्राह्म पर्व भी कहते हैं। इस दिन से लेकर भाद्रपद बदी सप्तमी तक एक सप्ताह वेद प्रचार की परम्परा प्रचलित रही है।

भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता था। इस दिन को विशेष रूप से विद्यारंभ दिवस के रूप में मनाया जाता था। विद्यार्थियों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता था। श्रावणी पूर्णिमा को जीर्ण यज्ञोपवीत को उतारकर नवीन यज्ञोपवीत धारण करने की परम्परा भी रही है, जिसे हम वर्तमान में भी निभाते चले आ रहे हैं।

हमारे देश में आषाढ़ से लेकर सावन तक फसल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। इस समय ऋषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गाँव के निकट आकर रहने लगते थे, जिसका लाभ ग्रामवासी उठाते थे। इसे चातुर्मास या चौमासा करना कहते हैं। चौमासे में ऋषि-मुनि एक स्थान पर वर्षा काल के चार महीनों तक ठहर जाते थे। आज भी यह परम्परा जारी है। इन चार महीनों में वेद अध्ययन, धर्म-उपदेश और ज्ञान चर्चा होती थी। श्रद्धालु एवं वेदाभ्यासी इनकी सेवा करते थे और ज्ञान प्राप्त करते थे। इस अवधि को “ऋषि तर्पण” कहा जाता था।

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जिस दिन से वेद पारायण का उपक्रम आरम्भ होता था, उसे “उपाकर्म” कहते हैं। यह वेदाध्ययन श्रावण सुदी पूर्णिमा से प्रारंभ होने के कारण इसे “श्रावणी उपाकर्म” भी कहा जाता है। पारस्कर के गृह्यसूत्र में लिखा है—

“अथातोऽध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम्” (2/10/2–2)।

यह वेदाध्ययन का उपाकर्म श्रावणी पूर्णिमा से प्रारंभ होकर पौष मास की अमावस्या तक साढ़े चार मास चलता था। पौष में इस उपाकर्म का उत्सर्जन किया जाता था। इसी परम्परा में हिंदू साधु-संत एवं जैन मुनि वर्तमान में भी चातुर्मास का आयोजन करते हैं। वे भ्रमण त्यागकर चार मास एक स्थान पर ही रहकर प्रवचन और उपदेश करते हैं।

श्रावण शब्द से ध्वनित होता है श्रवण, जिसका अर्थ होता है सुनना। तो सुना किसे जाए? संसार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण ईश्वरीय ज्ञान वेद है। इसलिए उपाकर्म के उपरांत वेदों को सुना जाता है। स्वामी दयानंद ने कहा कि – “वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, इसे सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है।”
श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष होते हैं — प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय

गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी पंचगव्य तथा पवित्र कुश से स्नान कर, वर्ष भर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित कर, जीवन को सही दिशा देते हैं। इस प्रायश्चित संकल्प को ही हेमाद्रि स्नान संकल्प कहा गया है। इसके पश्चात यज्ञोपवीत बदला जाता है, अर्थात नवीनीकरण किया जाता है। यह आत्मसंयम का संस्कार माना जाता है। इस संस्कार को दूसरा जन्म माना जाता है, इसलिए धारण करने वाले को द्विज कहा गया।

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नवीन यज्ञोपवीत को धारण करके स्वाध्याय में शिथिलता न लाने का व्रत लिया जाता था। वेद का स्वाध्याय न करने से द्विजातियां शूद्र, एवं स्वाध्याय करने से शूद्र भी ब्राह्मण की कोटि में चला जाता है। इस तरह वेदादि अध्ययन एवं स्वाध्याय का प्राचीन काल में बहुत महत्व था।

अग्निहोत्र एवं स्वाध्याय उपाकर्म का प्रारंभ सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होता है। अग्निहोत्र में विभिन्न औषधियों की आहुतियाँ दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। वैसे श्रावण मास में दैनिक अग्निहोत्र करने की परम्परा थी, क्योंकि वर्षाजन्य रोगाणुओं और विषाणुओं का यज्ञ करने से विनाश हो जाता था और घर का वातावरण शुद्ध होकर मनुष्य निरोगी रहता था।

मनुस्मृति कहती है—

श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोऽर्ध पंचमान्।।
पुष्ये तु छंदस कुर्याद् बहिरुत्सर्जनं द्विजः।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वार्धे प्रथमेऽहनि॥

अर्थात श्रावणी और पौष्ठपदी भाद्रपद पौर्णमासी तिथि से प्रारंभ करके ब्राह्मण लगनपूर्वक साढ़े चार मास तक छंद, वेदों का अध्ययन करे और पौष मास में अथवा माघ शुक्ल प्रतिपदा को इस उपाकर्म का उत्सर्जन करे।

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इस तरह श्रावणी उपाकर्म का यह संस्कार एवं प्रक्रिया का अविष्कार मानव कल्याण की दृष्टि से हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा किया गया। इस प्रक्रिया का मनोविज्ञान, मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना को जागृत करना है। इसमें “सर्वे भवन्तु सुखिनः” का भाव निहित है। समस्त सृष्टि के कल्याण का पर्व ही श्रावणी पर्व कहलाता है।

इसी दिन से गुरुकुल में प्रवेश के साथ गुरु-शिष्य के परम पवित्र एवं अत्यन्त आवश्यक संबंध की स्थापना होती थी। वेद-मंत्रों से मंत्रित किया हुआ रक्षा-सूत्र, आचार्य लोग अपने शिष्यों के हाथ में बाँधते थे। यह सूत्र उनकी रक्षा करता था और उन्हें धर्म-प्रतिज्ञा के बंधन में बाँधता था।

यहीं आगे चलकर राजपूत काल में यह पर्व राखी के रूप में परिवर्तित हुआ। नारियों को दुश्मन यवनों से बहुत खतरा रहता था। वे बलात् अपहरण कर लेते थे। इससे बचने के लिए उन्होंने वीरों को कलाई पर सूत्र बाँधकर अपनी रक्षा का संकल्प दिलाया। तब से यह प्रसंग चल पड़ा और रक्षाबंधन का पर्व भी श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा।

आचार्य ललित मुनि