futuredपॉजिटिव स्टोरी

नारी सशक्तीकरण की प्रतीक भारत की प्रथम महिला स्नातक और चिकित्सक कादम्बिनी गांगुली

-उदय शर्मा

कादम्बिनी गांगुली भारत की पहली महिला स्नातक और पश्चिमी चिकित्सा में प्रशिक्षित पहली महिला चिकित्सक थीं। उन्होंने न केवल शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी योगदान दिया, बल्कि सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके जीवन की कहानी एक ऐसी महिला की है, जिसने 19वीं सदी के रूढ़िवादी समाज में लिंगभेद और सामाजिक बाधाओं को तोड़कर एक प्रेरणादायक उदाहरण स्थापित किया।

कादम्बिनी गांगुली का जन्म 18 जुलाई, 1861 को भागलपुर, बिहार (तत्कालीन ब्रिटिश भारत) में हुआ था। उनके पिता, ब्रजकिशोर बसु, एक प्रख्यात ब्राह्म समाज सुधारक और भागलपुर स्कूल के हेडमास्टर थे। उनका परिवार बरिसाल जिले (वर्तमान बांग्लादेश) के चांदशी से था और बंगाली कुलीन कायस्थ समुदाय से संबंधित था। उस समय, बंगाली समाज में महिलाओं की शिक्षा का विरोध आम था, लेकिन ब्रजकिशोर के प्रगतिशील विचारों और ब्राह्म समाज के प्रभाव ने कादम्बिनी को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। ब्राह्म समाज, जिसकी स्थापना राजा राममोहन राय ने की थी, ने महिलाओं की शिक्षा और लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया, जिसने कादम्बिनी के जीवन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कादम्बिनी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ढाका के ब्राह्म एडन फीमेल स्कूल से शुरू की। इसके बाद, वे बालीगंज, कलकत्ता के हिंदू महिला विद्यालय (जो बाद में बंगा महिला विद्यालय बना) में पढ़ीं। 1876 में, यह स्कूल बेथून स्कूल के साथ विलय हो गया। 1878 में, कादम्बिनी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली पहली महिला बनकर इतिहास रचा। 1880 में, उन्होंने फर्स्ट आर्ट्स (एफए) परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी उपलब्धियों के सम्मान में, बेथून कॉलेज ने 1883 में प्रथम कला (एफए) और फिर स्नातक पाठ्यक्रम शुरू किए। 1883 में, कादम्बिनी ने बेथून कॉलेज से बीए की डिग्री प्राप्त की, जिससे वे अपनी सहपाठी चंद्रमुखी बसु के साथ भारत और ब्रिटिश साम्राज्य की पहली महिला स्नातक बनीं। इस उपलब्धि को बंगाल में महिला शिक्षा के इतिहास में सबसे उल्लेखनीय घटना माना गया, जैसा कि तत्कालीन निदेशक ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन, एच.सी. रेनॉल्ड्स ने कहा था।

See also  छत्तीसगढ़ की प्राचीन शैव परंपरा और प्रमुख शिवालय

कादम्बिनी ने चिकित्सा के क्षेत्र में करियर बनाने का निर्णय लिया, जो उस समय एक असाधारण और साहसिक कदम था। 1883 में, उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया, जो उस समय केवल पुरुषों के लिए खुला था। उनके पति, द्वारकानाथ गांगुली, और सामाजिक सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर के समर्थन से, उन्होंने इस बाधा को पार किया और 1884 में प्रवेश प्राप्त किया। 1886 में, उन्होंने बंगाल मेडिकल कॉलेज से स्नातक की उपाधि (जीबीएमसी) प्राप्त की, जिससे वे भारत की पहली महिला चिकित्सक बनीं। उसी वर्ष, आनंदीबाई जोशी ने भी अमेरिका के ड्रेक्सेल विश्वविद्यालय से चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की, लेकिन उनकी 1887 में तपेदिक से मृत्यु हो गई, जिसके कारण कादम्बिनी भारत में पश्चिमी चिकित्सा का अभ्यास करने वाली पहली महिला चिकित्सक बनीं।

1893 में, कादम्बिनी ने उच्च चिकित्सा प्रशिक्षण के लिए यूनाइटेड किंगडम की यात्रा की। उन्होंने एडिनबर्ग से लाइसेंटिएट ऑफ रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन्स (एलआरसीपी), ग्लासगो से लाइसेंटिएट ऑफ रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जन्स (एलआरसीएस), और डबलिन से ग्रेजुएट ऑफ फैकल्टी ऑफ फिजिशियन्स एंड सर्जन्स (जीएफपीएस) की उपाधियां प्राप्त कीं। ये योग्यताएं उन्हें चिकित्सा अभ्यास के लिए और अधिक सक्षम बनाती थीं।

1888 में, कादम्बिनी को कलकत्ता के लेडी डफरिन अस्पताल में सहायक चिकित्सक के रूप में नियुक्त किया गया, जहां उन्होंने महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने गर्भविज्ञान और बाल रोग में विशेषज्ञता हासिल की। इसके साथ ही, उन्होंने निजी अभ्यास शुरू किया, जिसमें उन्होंने नेपाल के शाही परिवार और कलकत्ता के उच्च वर्ग के परिवारों का इलाज किया। उनकी चिकित्सा विशेषज्ञता की एक उल्लेखनीय घटना तब हुई जब उन्होंने एक लड़की के पेट में ट्यूमर के गलत निदान को ठीक किया और सही ढंग से गर्भावस्था का निदान कर बच्चे को सुरक्षित जन्म दिलाया। उनकी प्रतिभा और समर्पण को फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने भी सराहा, जिन्होंने 1888 में एक पत्र में उनकी न्यूनतम अनुपस्थिति और चिकित्सा परीक्षाओं में सफलता की प्रशंसा की, खासकर यह उल्लेख करते हुए कि कादम्बिनी ने प्रसव के बाद केवल 13 दिन की छुट्टी ली थी।

See also  कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय ने छात्रों को दी बड़ी राहत, अमानत राशि और डिप्लोमा पाठ्यक्रमों की फीस में की भारी कटौती

कादम्बिनी केवल एक चिकित्सक ही नहीं थीं, बल्कि एक उत्साही सामाजिक सुधारक और राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी थीं। वे ब्राह्म समाज और बंगाल महिला समाज (बंगा महिला समाज) की सक्रिय सदस्य थीं। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने और बाल विवाह के उन्मूलन के लिए अथक प्रयास किए। 1891 में, उन्होंने सहमति की आयु अधिनियम के लिए परामर्श दिया, जिसने सहमति की आयु को 12 वर्ष तक बढ़ाया, जो उस समय एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार था।

राजनीतिक क्षेत्र में, कादम्बिनी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सक्रिय भागीदारी की। 1889 में, वे मद्रास अधिवेशन में पहली महिला वक्ता बनीं, जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक ऐतिहासिक क्षण था। 1906 में बंगाल विभाजन के दौरान, उन्होंने 1908 में कोलकाता में एक महिला सम्मेलन का आयोजन किया और इसके अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 1907 में, वे ट्रांसवाल भारतीय संघ की पहली अध्यक्ष बनीं। इसके अलावा, उन्होंने बिहार और ओडिशा की कोयला खदानों में काम करने वाली महिलाओं की स्थिति पर एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट तैयार की, जिसमें उनकी कठिन परिस्थितियों को उजागर किया।

कादम्बिनी ने 1914 में गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन के लिए धन संग्रह में भी योगदान दिया और स्कूलों में गृह उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहित किया। उनकी देशभक्ति की भावना को बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के साहित्य ने और मजबूत किया।

कादम्बिनी को अपने करियर और सामाजिक कार्यों में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उस समय का रूढ़िवादी समाज महिलाओं के उच्च शिक्षा और पेशेवर जीवन का विरोध करता था। 1891 में, बंगबाशी पत्रिका ने उन्हें ‘वेश्या’ कहकर अपमानित किया। उनके पति, द्वारकानाथ गांगुली, ने इसके खिलाफ मुकदमा दायर किया, जिसके परिणामस्वरूप पत्रिका के संपादक, महेश पाल, को 100 रुपये का जुर्माना और छह महीने की जेल की सजा हुई। इसके बावजूद, कादम्बिनी ने अपने कार्य को जारी रखा।

See also  न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर मानसून सत्र में चर्चा की संभावना

उन्हें अपने करियर के साथ-साथ छह बच्चों और दो सौतेले बच्चों की परवरिश का दायित्व भी निभाना पड़ा। फिर भी, उन्होंने अपने पेशेवर और पारिवारिक जीवन को संतुलित करने में असाधारण दृढ़ता दिखाई।

कादम्बिनी ने 12 जून, 1883 को द्वारकानाथ गांगुली से विवाह किया, जो एक ब्राह्म समाज सुधारक और उनके शिक्षक थे। यह विवाह उस समय विवादास्पद था, क्योंकि द्वारकानाथ उनसे 17 वर्ष बड़े थे। उनके आठ बच्चे थे, जिनमें से एक, हिमानी, तीन महीने की आयु में मर गया। उनकी बेटी, ज्योतिर्मयी, एक स्वतंत्रता सेनानी बनीं, और बेटा, प्रभात चंद्र, एक पत्रकार थे। उनकी सौतेली बेटी, बिधुमुखी, ने उपेंद्रकिशोर राय चौधरी से विवाह किया, जो प्रसिद्ध फिल्म निर्माता सत्यजित राय के दादा थे।

कादम्बिनी गांगुली का निधन 3 अक्टूबर, 1923 को कोलकाता में हुआ। उस दिन, उन्होंने एक ऑपरेशन किया था, जिसके बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उनकी मृत्यु ने एक युग का अंत किया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और चिकित्सा क्षेत्र में मार्ग प्रशस्त किया, जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।

उनकी कहानी को बंगाली टीवी धारावाहिकों, जैसे “प्रथमा कादम्बिनी” (2020, स्टार जल्सा) और “कादम्बिनी” (2020, ज़ी बांग्ला) में चित्रित किया गया। 18 जुलाई, 2021 को, उनके 160वें जन्मदिन पर, गूगल ने एक डूडल के माध्यम से उन्हें सम्मानित किया, जिसे बेंगलुरु की कलाकार ओड्रिजा ने बनाया था।

कादम्बिनी गांगुली एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने अपने समय की सामाजिक और लैंगिक बाधाओं को तोड़कर इतिहास रचा। उनकी उपलब्धियां न केवल शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में थीं, बल्कि सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय आंदोलन में भी थीं। उनकी कहानी आज भी लाखों लोगों, विशेषकर महिलाओं, को प्रेरित करती है, जो अपने सपनों को साकार करने के लिए संघर्ष कर रही हैं।