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भूलन कांदा : भई डिस्कवरी मेरी है – विष्णु खरे

रायपुर। संजीव बख्शी के चर्चित उपन्यास भूलनकांदा का विमोचन वृंदावन के स्पेक्ट्रम हॉल में 26 फ़रवरी 2011 को सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रुप में आलोचक विष्णु खरे, डॉ राजेन्द्र मिश्र एवं साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल उपस्थित थे। भूलनकांदा उपन्यास पर डॉ राजेन्द्र मिश्र के आधार वक्तव्य से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।

इस अवसर पर मुख्य वक्ता विष्णु खरे ने कहा कि -“ये इतना नया उपन्यास है, इतने नए ढंग से लिखा गया उपन्यास है, इसका कारण यह है कि लगभग यह कलाहीन उपन्यास है, इसकी कला इसी में है कि यह कलाहीन है। इसका कोई शिल्प नहीं है, कोई सोचा गया स्ट्रक्चर नहीं है। कोई पूर्व आधारित आदि अंत नहीं है।”
डॉ राजेन्द्र मिश्र, विनोद शुक्ल, संजीव बख्शी एवं विष्णु खरे
“संजीव बख्शी ने ठीक नहीं किया, उन्होने विनोद जी का क्षेत्र छोड़ कर और एक ऐसा क्षेत्र चुना है, जहां उससे पहले और कोई गया ही नहीं। हम पात्रों की बात करते हैं। नि:संदेह पात्र तो है, और वह बड़ी भयानक घटना है जो हत्या है। ऐसी हत्याएं कोरोसावा और न्युमार बर्मन की फ़िल्मो में होती है, अजीब हत्याएं और उनके बड़े परिणाम होते हैं, अजीबो गरीब। यह जासूसी उपन्यास नहीं हो सकता। ये पुलिस उपन्यास हो सकता था। हत्या का उपन्यास भी है, लेकिन बड़ा मानवीय हत्या का उपन्यास है। ये अदालत का उपन्यास है, लेकिन बहुत मानवीय अदालत है।ये सजा का उपन्यास है, बड़ी मानवीय सजा है। ये प्रेम का उपन्यास है, बड़ा मानवीय प्रेम है। ये गाँव का उपन्यास है और ऐसा मानवीय गांव मै नहीं समझता कि हिन्दी में इससे पहले आया। रेणु जी ने, हाँ रेणु जी लाए थे, प्रेमचंद लाए थे, लेकिन तब भी प्रेमचंद के यहां एक दूरी बनी रहती है। लेखक संभ्रांत है गांव उतना नहीं है। संजीव बख्शी ने इन सम्भ्रांता को तोड़ा है।”
 डॉ रामकुमार बेहार एवं विश्वरंजन
“मै चाहता हूँ कि गाँव उठे, गाँव शहर जाए, लेकिन और कुछ करने के लिए भी। कुछ और भयानक करे गाँव, हमारे शहरों के साथ।”
“इस उपन्यास में जो तत्व  है, वो तत्व युरोप को इस उपन्यास के गहरे आंचलिक होने के बावजूद इतना आकृष्ट करेंगें कि पहली बार हिन्दुस्तान के गाँव पूरे चरित्र मानव के रुप में यहां आते हैं और ऐसा कभी देखा नहीं गया।”

इस उपन्यास की चर्चा जब मैने एक महिला कथाकार से की, वंदना राव से, तो उन्होने पढा और यह उपन्यास छपा भी न था, वंदना राव ने बाकायदा इसकी रिव्यू लिख दी। मुझे इतना दु:ख हुआ, इतना गुस्सा आया, मैं रिव्यू लिखना चाहता था, सबसे पहले इसकी। लेकिन उस दुष्टा ने मुझे बिना बताए, चुपचाप रिव्यू लिख दी और छपवा भी दी। अब भी नाराज हूँ मैं, इसका क्या मतलब हुआ? भई डिस्कवरी मेरी है, रिव्यू आप लिख रही हैं। ये तो एक बेईमानी है न ?

संजीव बख्शी ने जो भाषा चुनी है, इस उपन्यास के लिए, वह भाषा वैसी नहीं है, जैसी फ़णीश्वरनाथ रेणु की थी, रेणु के यहाँ शोर बहुत है, बहुत ज्यादा साऊंड है रेणु के यहाँ, रेणु साऊंड रिकार्डिस्ट हैं, संजीव बख्शी साऊंड रिकार्ड तो करता ही है। मुलत: वह कैमरामेन है। उसका कैमरा बहुत बड़ा है, उसके साथ जो साऊंड आता है वह आ जाता है। साऊंड इन्फ़लीट नही करता इस उपन्यास पर।
उदय, लक्ष्मण मस्तुरिया एवं डी डी महंत
“विनोद जी भी बैठे हुए हैं, मुझे कहना नहीं चाहिए, लेकिन मेरी आदत है, जो मुझे कहना नहीं चाहिए वह कह देता हूँ, यह उपन्यास मुझे विनोद जी से थोड़ा हटके आगे जाता नजर आता है। इस सेंस में के विनोद जी के उपन्यास में एक इन्टेलेक्चुअल रस है, उनकी जो शैली है। वो लगातार हमें बताती है कि तुम एक वर्क ऑफ़ आर्ट पढ रहे हो। वर्क ऑफ़ आर्ट,वर्क ऑफ़ आर्ट, कोई शक नहीं। संजीव बख्शी का नावेल कहीं नहीं कहता कि मै वर्क ऑफ़ आर्ट हूँ।
ये जो संजीव बख्शी का उपन्यास है, ये किसी भी फ़िल्मकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है, ये दिखता सिम्पल है, लेकिन बहुत कठिन है उपन्यास फ़िल्माने के लिए। क्योंकि इसमें वो इमोशन है, जो भावना है, उस इमोशन को लाने के लिए आपको सत्यजीत राय चाहिए पाथेर पंचाली वाला।”

छत्तीसगढ से एक नवोदित, साठ साल के होने जा रहे है, लेकिन हैं तो नवोदित, एक नवोदित उपन्यासकार की पहली कृति, इतनी बड़ी कृति मुझे लगती है, कि ये बड़ी कृति तो है, ऐसा मैं मानता हूँ। अब ये बात अलग है कि उसका असर आप पर धीरे धीरे हो, जैसा कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों का धीरे धीरे नशा होता है।

इस अवसर पर प्रमोद स्मृति संस्थान के अध्यक्ष विश्वरंजन, राज्य भंडार निगम के अध्यक्ष अशोक बजाज, राहुल सिंह, प्रसिद्ध छतीसगढी गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिहा, डी डी महंत, सुधीर शर्मा, एवं अन्य साहित्कार उपस्थित थे।

विष्णु खरे के वक्तव्य आडियों कल सुबह 5  बजे से ललित डॉट कॉम पर सुन सकते हैं