प्रवरसेन की नगरी मनसर
मनसर (मणिसर) की ऊंचाई समुद्र तल से 280 मीटर है, यह स्थान 21.24′ N एवं 79.1′ E अक्षांश देशांश पर स्थित है। हमें पहाड़ी के रास्ते में पाषाण कालीन उपकरण दिख रहे थे। यहाँ प्राचीनतम अवशेष, प्रचुर पानी, जंगल एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की सुगम उपलब्धता के आधार पर निश्चय किया जा सकता है कि यह स्थान पाषाण युगीन मानव की शरण स्थली रहा होगा। इस स्थल पर प्राप्त अनेक चट्टानीय शरण स्थलों पर मानवीय प्रवास के प्रमाण प्राप्त होते हैं। डॉ एस एन राजगुरु ने पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली नदी के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जो कि पेंच नदी में मिल जाती रही होगी। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में इस नदी के पानी का प्रयोग मनसर झील के लिए किया जाता रहा होगा। इस स्थान से विभिन्न प्रकार के पाषाण के पाषाणयुगीन शस्त्र एवं औजार उत्खनन के दौरान प्राप्त हुए हैं। पाषाण काल के पश्चात “पूजा के लिए” पूजा स्थल एवं प्रतिमा के प्रमाण भी इस स्थल से प्राप्त हुए हैं।
हिडिम्बा टेकरी पर लेखक (यहाँ वाजपेय यज्ञ के प्रमाण प्राप्त हुए हैं) |
इस स्थान का ऐतिहासिक महत्व है, मौर्य एवं शुंग काल (ईसा पूर्व 300-200 ईं पश्चात) विदर्भ भी अशोक के साम्राज्य का अंग था। इसके प्रमाण चंद्रपुर के देवटेक के शिलालेख से प्राप्त होते हैं। मौर्यकाल में यहाँ स्तूप निर्माण के भी संकेत मिले हैं। सातवाहान काल (200 ईसा पूर्व से 250 ई पश्चात) मौर्य काल के पतन के बाद यह स्थान शुंगों के आधिपत्य से होकर सातवाहन के अधीन चला गया। इस काल में एक पश्चिमी द्वार वाले बड़े महल का निर्माण किया गया। इस महल में हवन कुंड, महल के उपर पश्चिमी दिशा में निर्मित पाया गया है। इस महल को गढनुमा बनाकर सुरक्षा प्रदान की गयी थी।
प्रवरपुर का महल जिसे बौद्ध काल में विहार का रुप दे दिया गया था |
वाकटक काल (ईसवीं 275 से 550) इस साम्राज्य की स्थापना विंध्यशक्ति-1 नामक ब्राह्मण ने की थी। विंध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन-1 उर्फ़ प्रोविरा ने 275 -335 ईसवीं सन तक इस क्षेत्र में राज्य किया। पुराणों के अनुसार उसकी राजधानी “पुरिका” थी। इस काल के दो राज्यों यथा वाकटक एवं गुप्त के मध्य युद्ध एवं तनाव की स्थिति बनी रहती थी। जिसे पांचवी शताब्दी में प्रभावती एवं प्रवरसेन के पुत्र रुद्रसेन के विवाह से कम किया गया। प्रवरसेन ने वैदिक अनुष्ठान भी वृहद स्तर पर किए। जिसमें 4 अश्वमेघ यज्ञ शामिल हैं। साथ ही हिडिम्बा टेकरी के पूर्वी भाग में वाजपेय यज्ञ के प्रमाण मिलते हैं। प्रवरसेन की मृत्यु के बाद राज्य को उसके 4 पुत्रों में विभक्त कर दिया गया। प्रवरसेन के पुत्र गौतमपुत्र की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रुद्रसेन-1 ने नंदीवर्धन (नगर धन, नंदपुरी) का राज्य संभाल। रुद्रसेन के बाद उसके पुत्र पृथ्वीसेन ने 360-395 ईसवीं तक शासन किया।
प्रवरपुर के महल का 16 फ़ुट चौड़ा परकोटा |
पृथ्वीसेन के कार्यकाल में वाकटकों का वैवाहिक संबंध विक्रमादित्य के परिवार से हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय अर्थात विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह पृथ्वीसेन के पुत्र रुद्रसेन के साथ सम्पन्न हुआ। रुद्रसेन की असमय मृत्यु के बाद प्रभावती गुप्त ने अपने ज्येष्ठ पुत्र द्वारकसेन के माध्यम से 14 वर्षों तक राज्य किया। परन्तु द्वारकसेन भी असमय काल के गाल में समा गए। इसके बाद प्रभावती गुप्त के द्वितीय पुत्र दामोदर सेन सिंहासनारुढ हुए। दामोदर सेन ने अपने प्रभावशाली पूर्वज प्रवरसेन का नाम धारण किया तथा लम्बे समय तक शासन किया। 419-490 त प्रवरसेन द्वितीय अपने ज्ञान एवं स्वतंत्रता के लिए काफ़ी प्रसिद्ध हुआ। प्रवरसेन के शासन काल की ताम्र पट्टिकाएं उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। प्रवरसेन के शासन काल नंदीवर्धन में एक मंदिर था, जिसका नाम प्रवरेश्वर था। यह एक शैव मंदिर था यहां शिव प्रतिमा के प्रमाण पाप्त हुए हैं।
प्रवरपुर महल पर विध्वंस के चिन्ह (भुकंप द्वारा) |
प्रवरसेन द्वितीय के पश्चात उसके पुत्र नरेन्द्र सेन ने शासन किया। पृथ्वीसेन द्वितीय ने अपने पिता नरेन्द्रसेन की मृत्यु के बाद शासन संभाला और उसने वैष्णव संप्रदाय का प्रचार किया। लगभग 493 ई सन में बस्तर के नल राजा भवदत्त वर्मन ने पृत्वीसेन द्वितीय पर आक्रमण किया। तो भवदत्त वर्मन के साले माधव वर्मन द्वितीय ने पृथ्वीसेन द्वितीय की मदद की, फ़लस्वरुप नल राजा को हार का मुंह देखना पड़ा। परन्तु इस हार के पूर्व नल राजा ने प्रवरपुर महल को लूटा एवं जला डाला। माधववर्मन द्वितीय की मदद के बाद प्रवरसेन द्वितीय की संतान प्रवरपुर राज नहीं कर सकी। क्योंकि माधववर्मन ने राज्य को अपने आधिपत्य में ले लिया। इसके पश्चात ही इस राज्य में बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ।
आलेख – ललित शर्मा