क्रांतिकारी जोरावर सिंह बारहठ: राष्ट्रसेवा में समर्पित जीवन
धरती के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों का अपना गुणधर्म होता है। राजस्थान की माटी ऐसी ही है, जिसके कण-कण में बलिदान की कई अमर गाथाएँ छिपी हैं। परिवार के किसी एक नहीं, पूरे कुटुंब के बलिदान की कहानियाँ राजस्थान में मिलती हैं। ऐसे ही बलिदानी वीर हुए क्रांतिकारी केशरी सिंह बारहठ, उनके भाई जोरावर सिंह बारहठ, पुत्र प्रताप सिंह बारहठ और पुत्री भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं।
देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारी जोरावर सिंह बारहठ का जन्म 12 सितंबर 1883 को उदयपुर रियासत के गाँव देवखेड़ा में हुआ। यह गाँव भीलवाड़ा की शाहपुरा तहसील के अंतर्गत आता है। उनके पिता कृष्ण सिंह बारहठ इतिहासकार और साहित्यकार थे। वे अपनी रचनाओं से राष्ट्रभक्ति और परंपराओं की श्रेष्ठता का जोश जगाया करते थे।
जोरावर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा उदयपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिए जोधपुर गए। परिवार संपन्न और प्रतिष्ठित था। उनकी गणना राजस्थान के पुराने राज परिवारों में होती थी। उनका विवाह भी राजसी परिवार में हुआ था, लेकिन वे परिवार में नहीं डूबे। यह राजस्थान की मिट्टी की विशेषता है कि यहाँ के लोग व्यक्तिगत हितों और परिवार से ऊपर राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा को महत्व देते हैं। जोरावर सिंह ने भी राजसी वैभव और गृहस्थी का आकर्षण छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। नवविवाहिता पत्नी ने भी सहर्ष विदा किया।
देश को दासत्व से मुक्ति दिलाने के लिए जोरावर सिंह ने क्रांति पथ चुना। वे आर्य समाज से जुड़े हुए थे। उनके घर क्रांतिकारियों का आना-जाना होता रहता था, इसलिए इस राह पर चलने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। सहज ही वे क्रांतिकारियों की टोली के विश्वस्त सहयोगी बन गए।
इसी दौरान दिल्ली में वायसराय हार्डिंग पर हमले की योजना बनी। इसके लिए 23 दिसंबर 1912 की तिथि निर्धारित हुई। तय हुआ कि वायसराय हार्डिंग का जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक से गुजरेगा और वहीं बम से हमला किया जाएगा। यह योजना सुप्रसिद्ध रासबिहारी बोस ने बनाई थी और इसे मूर्त रूप देने का दायित्व जोरावर सिंह बारहठ और उनके बेटे प्रताप सिंह बारहठ को सौंपा गया।
वायसराय हाथी पर अपनी पत्नी के साथ बैठा था। उसके चारों ओर सुरक्षा का कड़ा प्रबंध था। आसपास अन्य समर्थक चल रहे थे। चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक भवन की छत पर भीड़ में जोरावर सिंह और प्रताप सिंह बुर्के में मौजूद थे। जैसे ही जुलूस सामने से गुजरा, जोरावर सिंह ने हार्डिंग पर बम फेंका। लेकिन पास खड़ी महिला के हाथ से टकरा जाने से निशाना चूक गया और हार्डिंग बच गया। उसका एक सुरक्षा कर्मी इस हमले में मारा गया।
यह हमला इतना अप्रत्याशित था कि जिसकी कल्पना ब्रिटिश गुप्तचर तक नहीं कर पाए थे। बम फटते ही अफरा-तफरी मच गई। सुरक्षाकर्मी वायसराय की सुरक्षा में लग गए। उसे हाथी से उतारकर घेरे में ले लिया गया। इस अवसर का लाभ उठाकर जोरावर सिंह और प्रताप सिंह वहाँ से सुरक्षित निकल गए।
इस घटना की प्रतिक्रिया दिल्ली से लेकर लंदन तक हुई। सुरक्षा कर्मियों का पूरा स्टाफ बदल दिया गया। संभावित क्रांतिकारियों के घरों पर छापे पड़े, गिरफ्तारियाँ हुईं। लेकिन जोरावर सिंह तक किसी का हाथ न पहुँच सका। वे नाम बदलकर मध्यप्रदेश में साधु के वेश में रहने लगे।
उन्होंने अपना शेष जीवन साधु वेश में बिताया। वे पूरे मालवा क्षेत्र में “अमरदास बैरागी” के नाम से जाने गए। वे अधिकतर भ्रमण पर ही रहते थे, किंतु उनका अधिकांश जीवन उज्जैन में बाबा महाकाल की सेवा में बीता। अंत में 17 अक्टूबर 1939 को उन्होंने संसार से विदा ली।
वे बीच-बीच में अपने घर भी गए, पर साधु-संत समूह के साथ अतिथि बनकर ही आते और लौट जाते, जिससे उन पर किसी को संदेह न होता था। उनका अंतिम संस्कार भी साधु रूप में ही हुआ। निधन का संदेश उनके घर पहुँचा। आगे चलकर उनकी पुत्री भी स्वाधीनता सेनानी बनी और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गईं।

