युवा मन की उलझनों में भगवद्गीता का प्रकाश: कर्म, विवेक और आत्मबल का संदेश

वर्तमान भौतिकवादी युग में युवा पीढ़ी अनेक प्रकार की सांसारिक, शारीरिक व मानसिक चुनौतियों में उलझी हुई दिखाई देती है। चारों ओर बैचेनी, भ्रम, नैतिक पतन और नैराश्य व्याप्त हो गया है। नदी के प्रवाह और हवा के रूख को बदलने की शक्ति रखने वाला युवा आज चुनौतियों का सामना करने और लक्ष्य प्राप्त करने की सामर्थ्य में स्वयं को क्षीण अनुभव करता दिखता है। युवा मन दिग्भ्रमित होकर अर्जुन की तरह पुकार रहा है कि “मैं नहीं जानता कि मेरे लिए क्या सही है और क्या गलत।” ऐसे में श्रीकृष्ण की ओजस्वी वाणी से प्रस्फुटित भगवद्गीता आज भी सही मार्ग दिखा रही है।
महर्षि अरबिंदो कहते हैं कि “गीता कर्म से शुरू होती है और अर्जुन कर्म करने वाला व्यक्ति है। वह दृष्टा या विचारक नहीं, एक योद्धा है।” गीता का कुरुक्षेत्र वर्तमान जीवन की चुनौतियां हैं और युवा अर्जुन जैसे कर्मवीर हैं, जो भ्रमित हो गए हैं। गीता का संदेश वीर और बलवानों के लिए है, कमजोर और कायरों के लिए नहीं। स्वामी विवेकानन्द इसीलिए कहते हैं कि “जाओ और फुटबॉल खेलो, सशक्त बाइसेप्स वाला व्यक्ति गीता को ठीक से समझ सकता है।”
कृष्ण कहते हैं:
“क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत् त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ परन्तप।।”
हे अर्जुन (कर्मवीर युवा), नपुंसकता को मत प्राप्त हो (अपनी शक्ति को पहचान), हृदय की तुच्छ दुर्बलता और भ्रम को त्यागकर जीवन की चुनौतियों के लिए उठ खड़ा हो। वे यह भी कहते हैं कि जब धर्म (सद्कर्म) और अधर्म (दुष्कर्म) की शक्तियों के मध्य संघर्ष हो, तो धर्म के समर्थन में शस्त्र उठाना (यथाशक्ति प्रयत्न करना) तुम्हारा कर्तव्य है। समाज में जब भी नैतिक संकट हो, तब युवाओं को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। निष्क्रिय रहे तो कर्तव्य से चूक जाएंगे। स्वतंत्रता की शौर्यगाथा इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
गीता में श्रीकृष्ण कर्तव्य के निर्वहन पर ही सबसे अधिक जोर देते हैं। वे कहते हैं कि “यह मत सोचो कि तुम कर जाओगे या मार दिए जाओगे, तुम केवल अपना कर्तव्य पूरा करो।” अकर्मण्यता को सबसे बड़ा पाप बताते हुए वे कहते हैं कि “तीनों लोकों में मुझे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है, किंतु फिर भी मैं नित्य कर्म में लीन रहता हूं।”
कर्म से विरत रहकर अज्ञानता और आलस्य से घिरा रहना मनुष्य को विनाश की ओर ले जाता है। गीता बताती है कि निष्काम कर्म मार्ग अपनाओ। अपने स्वार्थ के लिए किए गए काम को “कृपण-फल हेतवः” अर्थात कृपण या अधम कहा है।
यह व्यावहारिक दृष्टिकोण है कि यदि परीक्षा में केवल सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति की चेष्टा रहेगी तो चिंता और तनाव कमजोर बना देगा। यदि सम्मान, पुरस्कार प्राप्ति की लालसा रहेगी तो ध्यान रचनात्मक श्रेष्ठता से भटक जाएगा और अंत में यह नैराश्य को जन्म देगा। इसलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि “स्वार्थी कार्य दासों का कार्य है, तुम्हें स्वामी की तरह कार्य करना चाहिए।”
कृष्ण कहते हैं:
“तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।”
अर्थात आसक्ति से रहित होकर कर्तव्यकर्म करो, फल की चिंता किए बिना। अनासक्त कर्म से ही मनुष्य को ईश्वर (जीवन लक्ष्य) की प्राप्ति होती है। यह किसी भी सफलता का सर्वोत्तम सूत्र है।
आधुनिक युग में तनाव सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में व्याप्त है। यही हिंसा, अव्यवस्था, व्यक्तित्व-विघटन और विभिन्न मानसिक विकारों का प्रमुख कारण है। असाध्य रोग, आर्थिक संकट, प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता से उपजी हताशा और तनाव आत्महत्या के मुख्य कारण हैं। ऐसे ही लक्षण अर्जुन विषाद योग में बताए गए हैं, जिन्हें स्वामी चिन्मयानन्द “अर्जुन सिंड्रोम” कहते हैं। यही आत्महत्या के लिए प्रेरित करता है।
भगवद्गीता ऐसी आत्मघाती प्रवृत्ति या न्यूरोटिक अवसाद के लिए प्रभावी दवा है। महाभारत युद्ध के दौरान युधिष्ठिर को झगड़े में मारने का प्रयत्न करने के कारण पश्चाताप में अर्जुन ने आत्महत्या का प्रयास किया था। तब श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि अपने सभी सद्गुणों का वर्णन करो। आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि अच्छी बातों का स्मरण मन को आत्मग्लानि से मुक्त करता है। इसलिए आत्महत्या का विचार आते ही अपने गुणों और जीवन की अच्छी घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
इच्छा, आसक्ति और सुख-आनंद की लालसा भी तनाव को बढ़ाने वाले कारक हैं। इंद्रिय सुख मृगतृष्णा की तरह है। कृष्ण कहते हैं:
“ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।”
अर्थात इंद्रिय और विषयों के संयोग से उत्पन्न सब भोग दुख के कारण हैं, नश्वर हैं, इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति उनमें रमता नहीं।
गीता कहती है कि सात्विक सुख आरंभ में विष के समान कड़वा पर अंत में अमृत जैसा होता है। इंद्रियों और विषय-संपर्क से उत्पन्न राजसिक सुख आरंभ में मधुर पर अंत में कड़वा हो जाता है। तामसिक भाव न आरंभ में सुख देता है न अंत में—वह केवल भ्रम है।
गीता यह भी कहती है कि विषयों की आसक्ति से उत्पन्न कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से भ्रम और भ्रम से ज्ञान का नाश होता है। ऐसा होने पर मनुष्य समाज और स्वयं की दृष्टि में गिर जाता है।
कृष्ण कहते हैं कि जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान और कर्मयोग से शुद्ध अंतःकरण वाला मनुष्य स्वयं अपनी अंतरात्मा में परम सत्य को पा लेता है। इसलिए गीता कहती है कि सात्विक सुख, ज्ञान और विवेक ही सच्चा सुख (सफलता) दे सकते हैं। विषय और इंद्रिय सुख से विरत रहकर ज्ञान का जागरण और विवेक का धारण करना ही जीवन का यथार्थ सुख है।
-उमेश कुमार चौरसिया, लेखक, साहित्यकार व स्वतंत्र पत्रकार
