बिन पानी सब सून : विश्व जल दिवस
भारत, विशाल राष्ट्र है, वर्तमान में भारत की अनुमानित जनसंख्या एक अरब तीस करोड़ से अधिक मानी जा रही है। इस तरह भारत विश्व की लगभग 18% से अधिक जनसंख्या का घर है। जनसंख्या बढने के साथ भारत में जल संसाधनों पर दबाव बढ रहा है, यह दबाव अधिकतर शहरों में दिखाई देता था, अब कस्बों में भी दिखाई देने लगा है। जल संकट का एक प्रमुख कारण तेजी से बढता शहरीकरण बन गया है। गाँव से लोग शहरों में सुख सुविधाओं के लिए शहर में बसने लगे हैं। जल संकट इसलिये दिखाई दे रहा है कि देश में पेयजल की उपलब्धता निरंतर कम हो रही है। भूजल का अत्यधिक दोहन होने के कारण देश में पेयजल संकट विशेषकर गर्मी के दिनों में दिखाई देने लगता है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार, 2050 तक भारत की शहरी आबादी 50% से अधिक हो जाएगी। यह तेजी से बढ़ता शहरीकरण जल की मांग को बढ़ा रहा है, क्योंकि शहरों में प्रति व्यक्ति जल उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक है। उदाहरण के लिए, दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में औसतन प्रति व्यक्ति 200-300 लीटर पानी प्रतिदिन उपयोग होता है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 70-100 लीटर के आसपास है। गर्मी के दिनों में भारत में जल संकट दिखाई देने लगता है, चेन्नई 2019 में “डे जीरो” का सामना करने वाला यह शहर जल संकट का प्रतीक बन गया, जब इसके चार प्रमुख जलाशय सूख गए।इसलिए वर्षा जल संरक्षण करना आवश्यक हो रहा है, जिससे भूजल का स्तर बना रहे।
प्राचीन काल से ही भारत जल संरक्षण के लिए अपनी अनूठी और टिकाऊ विधियों के लिए जाना जाता है। देश की विविध भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों ने स्थानीय समुदायों को ऐसी तकनीकों का विकास करने के लिए प्रेरित किया, जो न केवल जल की कमी को दूर करती थीं, बल्कि पारिस्थितिकी संतुलन को भी बनाए रखती थीं। तालाब, बावड़ी, जोहड़, कुंड और नहर प्रणालियाँ भारत की पारंपरिक जल संरक्षण विधियों के कुछ उदाहरण हैं, जो आज भी आधुनिक जल संकट के समाधान में प्रासंगिक हैं।
भारत में जल संरक्षण की परंपरा हजारों साल पुरानी है। सिंधु घाटी सभ्यता (2500-1700 ईसा पूर्व) के अवशेषों में जल निकासी और संग्रहण की उन्नत प्रणालियाँ मिलती हैं, जो दर्शाती हैं कि प्राचीन भारतीय समाज जल प्रबंधन में कितना कुशल था। वेदों और पुराणों में भी जल को पवित्र और जीवन का आधार माना गया है। मौर्य, गुप्त और चोल जैसे शासकों ने नहरों, तालाबों और जलाशयों का निर्माण करवाया, जो सामुदायिक उपयोग के लिए थे। मध्यकाल में राजपूतों एवं अन्य शासकों ने बावड़ियों और कुओं का विकास किया, जो आज भी राजस्थान और गुजरात में देखे जा सकते हैं। ये संरचनाएँ न केवल जल संग्रह करती थीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में भी कार्य करती थीं।
प्रमुख पारंपरिक जल संरक्षण विधियाँ
तालाब और झीलें: भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तालाब सामुदायिक जल संग्रह के सबसे सामान्य साधन रहे हैं। ये वर्षा जल को संग्रहित करने और भूजल रिचार्ज के लिए उपयोगी थे। तमिलनाडु में “एरी” प्रणाली, जिसमें सैकड़ों तालाबों को नहरों से जोड़ा जाता था, इसका बेहतरीन उदाहरण है। चोल शासकों ने 10वीं सदी में इस प्रणाली को विकसित किया था, जो आज भी कई क्षेत्रों में कार्यरत है।
जोहड़:राजस्थान में जोहड़ छोटे मिट्टी के बाँध होते हैं, जो वर्षा जल को रोककर भूजल स्तर को बढ़ाते हैं। ये सूखे की स्थिति में जीवन रक्षक सिद्ध हुए हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्रा ने अपनी पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” में जोहड़ों के महत्व को रेखांकित किया है।
बावड़ी: बावड़ियाँ या स्टेपवेल्स सूखे क्षेत्रों जैसे राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में लोकप्रिय थीं। ये गहरे कुएँ होते थे, जिनके किनारे सीढ़ियों से बने होते थे, ताकि लोग पानी तक आसानी से पहुँच सकें। जयपुर के पास चाँद बावड़ी और अहमदाबाद की अडालज बावड़ी ऐसी संरचनाओं के शानदार उदाहरण हैं। ये न केवल जल संग्रह करती थीं, बल्कि गर्मियों में ठंडक भी प्रदान करती थीं।
कुंड और टाँके: ये छोटे भूमिगत जलाशय थे, जो वर्षा जल को संग्रहित करने के लिए बनाए जाते थे। राजस्थान के थार मरुस्थल में टाँके घरों में बनाए जाते थे, जिसमें छत से बहता पानी संग्रहित होता था। ये तकनीक आज भी कई गाँवों में प्रचलित है।
जल संरक्षण एवं उपयोग की प्राचीन प्रणालियाँ
प्राचीन भारत में नहरों का उपयोग नदियों से पानी को खेतों और गाँवों तक पहुँचाने के लिए किया जाता था। हिमाचल प्रदेश की “कुहल” और उत्तराखंड की “गूल” प्रणालियाँ पहाड़ी क्षेत्रों में गुरुत्वाकर्षण के आधार पर पानी वितरण का उदाहरण हैं। मेघालय और पूर्वोत्तर भारत में बाँस की पाइपलाइन (झिंगल) का उपयोग पहाड़ी झरनों से पानी को गाँवों तक लाने के लिए किया जाता था। यह पर्यावरण के अनुकूल और कम लागत वाली तकनीक थी।
ये विधियाँ स्थानीय जलवायु, मिट्टी और सामाजिक जरूरतों के अनुसार डिज़ाइन की गई थीं। उदाहरण के लिए, राजस्थान में कम वर्षा को ध्यान में रखकर बावड़ियाँ बनाई गईं, जबकि तमिलनाडु में मानसून के पानी को संभालने के लिए तालाब प्रणाली विकसित की गई। इनमें जटिल मशीनरी की जरूरत नहीं थी, और ये पीढ़ियों तक चलती थीं। इन संरचनाओं का निर्माण और रखरखाव समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता था, जिससे सामाजिक एकता बढ़ती थी।
प्राचीन भारत में ये विधियाँ प्रभावी थीं, लेकिन औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और आधुनिक तकनीकों के प्रति झुकाव ने इन्हें हाशिए पर धकेल दिया है। शहरी क्षेत्रों में तालाबों और झीलों पर निर्माण ने इनके अस्तित्व को खतरे में डाल दिया। चेन्नई में 60% से अधिक जल निकाय खत्म हो चुके हैं। बावड़ियों और जोहड़ों का रखरखाव न होने से ये खंडहर बन गए हैं। सरकारी नीतियों में भी इन्हें प्राथमिकता नहीं दी गई। युवा पीढ़ी इन पारंपरिक तकनीकों के महत्व से अनभिज्ञ है, और आधुनिक पंप और बोरवेल पर निर्भरता बढ़ गई है।
आज के जल संकट के दौर में इन पारंपरिक विधियों द्वारा जल संरक्षण न केवल संभव है, बल्कि आवश्यक भी है। राजस्थान में तरुण भारत संगठन (TBS) के राजेंद्र सिंह, जिन्हें “वाटरमैन ऑफ इंडिया” कहा जाता है, ने जोहड़ों को पुनर्जनन कर अलवर क्षेत्र में भूजल स्तर को सुधारा। उनके प्रयासों से सूखी अरावरी नदी फिर से बहने लगी। तमिलनाडु में “एरी” प्रणाली को पुनर्जनन के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने कदम उठाए हैं।
पारंपरिक विधियों को डिजिटल मॉनिटरिंग और सेटेलाइट मैपिंग के साथ जोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, जोहड़ों की स्थिति को ड्रोन से मॉनिटर कर उनके रखरखाव को सुनिश्चित किया जा सकता है। सरकार द्वारा जल जीवन मिशन और स्वच्छ भारत अभियान जैसे कार्यक्रमों में इन विधियों को शामिल किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों और कुंडों को पुनर्जनन के लिए सब्सिडी दी जा सकती है। स्कूलों और कॉलेजों में इन तकनीकों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर युवाओं को प्रेरित किया जा सकता है। साथ ही, सामुदायिक स्तर पर कार्यशालाएँ आयोजित की जा सकती है
भारत की पारंपरिक जल संरक्षण विधियाँ एक ऐसी विरासत हैं, जो समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। ये न केवल जल संकट का समाधान प्रस्तुत करती हैं, बल्कि टिकाऊ विकास के सिद्धांतों को भी मजबूत करती हैं। आज जब देश भूजल की कमी, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से जूझ रहा है, इन प्राचीन तकनीकों को पुन; अपनाने का एक सुनहरा अवसर है। सरकार, समुदाय और व्यक्तियों को मिलकर इस दिशा में कदम उठाने होंगे, ताकि “जल ही जीवन है” का मंत्र वास्तविकता में साकार हो सके।
सुंदर सार्थक आलेख भईया
💐💐💐💐💐💐💐