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स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक भाषण और भारत का गौरव

संसार में ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जब किसी अपरिचित वक्ता के केवल एक शब्द पर पूरा सभागार खड़े होकर तालियों से स्वागत करे। यह दृश्य था शिकागो के उस धर्म सम्मेलन का, जब स्वामी विवेकानंद अपनी बारी पर बोलने खड़े हुए। उनके वक्तव्य से संपूर्ण सभागार इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें तीन बार अपनी बात रखने का अवसर दिया गया।

यह संसार का पहला विश्व धर्म सम्मेलन था, जो 11 सितंबर से अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित हुआ था। आरंभ में यह 16 सितंबर तक के लिए निर्धारित था, लेकिन संसार भर के उपस्थित धर्मगुरुओं की पूरी बात सुनने के लिए यह दस दिन और बढ़ाया गया। यह 26 सितंबर तक चला और अतिथियों की औपचारिक विदाई 27 सितंबर को हुई। इस धर्म सम्मेलन को “धर्म संसद” नाम दिया गया था। इसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों के बीच वैश्विक समन्वय और संवाद स्थापित करना था।

धर्म संसद का आयोजन चर्च द्वारा

इस धर्म संसद का आयोजन चर्च की ओर से किया गया था। संसार की यह पहली धर्म संसद अपने आप में अनूठी थी। धर्म आधारित मुख्य सत्र के अतिरिक्त शासन की मानवीय शैली, न्यायशास्त्र, वित्त, साहित्य, विज्ञान आदि विषयों पर अलग-अलग समूह सत्र भी हुए, जिनमें उन्नीस महिलाओं सहित तीन सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने अपने विचार रखे। मुख्य विषय धर्म और धर्म आधारित सूत्रों से संसार के विभिन्न देशों के बीच समन्वय, सद्भाव और मैत्री स्थापित करना था, ताकि प्रबुद्ध और संत पुरुषों के ज्ञान का लाभ पूरे संसार को मिल सके। इसमें अमेरिकी, यूरोपीय, एशियाई और अफ्रीकी देशों से रोमन, कैथोलिक, यहूदी, बौद्ध, जैन और इस्लामिक सहित सभी धर्मों से संबंधित धर्मगुरु एवं प्रबुद्ध जन उपस्थित थे। उन्हें लगता था कि मानवता और सहिष्णुता में उनका मत ही संसार में सबसे आगे है।

औपचारिक शुरुआत के बाद, दोपहर बाद स्वामी विवेकानंद को संबोधन के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने सबसे पहले मन ही मन माता सरस्वती को प्रणाम किया और जैसे ही कहा “अमेरिका के निवासी मेरे सभी प्यारे भाइयो और बहनो” पूरा सभागार ताली बजाते हुए उठ खड़ा हुआ। जिस सहिष्णुता के लिए यह धर्म सम्मेलन आयोजित किया गया था, उसकी झलक तो स्वामी विवेकानंद के “भाइयो और बहनों” संबोधन में थी। यदि संसार के सभी निवासियों में भाई-बहन होने का भाव जाग्रत हो जाए तो सभी तनाव और विवाद समाप्त हो जाएंगे। इसी लिए पूरा सभागार तालियाँ बजाते हुए उठकर खड़ा हो गया। संसार की पहली इस विश्व संसद में प्रतिनिधि के रूप में सहभागी होने के लिए स्वामी विवेकानंद जी के पास अधिकृत आमंत्रण नहीं था। लेकिन यह उनके आत्मविश्वास की प्रबलता थी कि वे वहाँ पहुँचे और सर्वाधिक लोकप्रिय वक्ता बने।

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शिकागो यात्रा की कठिनाइयाँ
यह पहला विश्व धर्म सम्मेलन था। इसकी चर्चा पूरे संसार में थी। स्वामी विवेकानंद के पास न तो औपचारिक आमंत्रण था और न शिकागो जाने के लिए साधन। उनकी इच्छा भी प्रबल थी और उनके सभी शिष्य भी चाहते थे कि स्वामी विवेकानंद शिकागो जाएँ। अंत में मद्रास, मैसूर के कुछ शिष्यों और खेतड़ी के राजा ने आर्थिक प्रबंध किया और 31 मई 1893 को वे मुंबई से शिकागो के लिए रवाना हो गए। अमेरिका के लिए उनकी यह यात्रा चीन, जापान और कनाडा होकर थी। हर स्थान पर थोड़ा-थोड़ा रुकना भी था। उन्होंने हर देश के नगरों में भ्रमण किया। इनमें कैंटन, नागासाकी, ओसाका, क्योटो, टोक्यो आदि नगरों में भ्रमण करते हुए योकोहामा पहुँचे। योकोहामा से उन्होंने जहाज बदला और कनाडा पहुँचे। वे 25 जुलाई 1893 को वैंकूवर, कनाडा पहुँचे और फिर ट्रेन द्वारा 30 जुलाई 1893 को शिकागो पहुँचे।

वहाँ पहुँचकर उन्हें पता चला कि विश्व धर्म संसद की दर्शक दीर्घा में तो कोई भी व्यक्ति जा सकता है, लेकिन सम्मेलन में सहभागिता और मंच से अपनी बात रखने के लिए उचित आमंत्रण होना आवश्यक है। विवेकानंद जी के पास अधिकृत आमंत्रण नहीं था, फिर भी वे निराश नहीं हुए। सम्मेलन आरंभ होने में अभी एक माह से अधिक का समय था, इस लिए वे बोस्टन चले गए। शिकागो की तुलना में बोस्टन अपेक्षाकृत सस्ता नगर था। यहाँ महाराज खेतड़ी और मैसूर के उनके एक शिष्य का संपर्क था। विवेकानंद जी के पास सीमित धन था। उन्हें धर्म संसद में सहभागिता के लिए विधिवत प्रतिनिधि बनने का मार्ग भी खोजना था। इसीलिए उन्होंने प्रतीक्षा की। इस अवधि में रहने के लिए उन्होंने बोस्टन नगर चुना। इसी बीच उन्हें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ उनकी भेंट प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट से हुई। प्रोफेसर राइट विवेकानंद के ज्ञान और बुद्धिमत्ता से बहुत प्रभावित हुए और यहीं से उन्हें इस धर्म संसद में अधिकृत प्रतिनिधि होने का मार्ग निकला।

स्वामी विवेकानंद जी का संबोधन और उनके मुख्य बिंदु
मुख्य और समूह सत्र मिलाकर स्वामी विवेकानंद जी को मंच से चार बार अपनी बात रखने का अवसर मिला। पहले दिन उनके प्रथम वाक्य में संसार की उन समस्याओं के समाधान का संदेश था, जिसके लिए वह धर्म संसद आयोजित की गई थी। यदि संसार के मानवीय जीवन में सबके प्रति भाई और बहन का भाव जाग्रत हो जाए तो फिर किसी प्रकार का कोई तनाव और टकराव नहीं होगा। इसीलिए स्वामी विवेकानंद जी द्वारा “भाई और बहन” कहने पर पूरे सभागार में उपस्थित समूह ने खड़े होकर तालियाँ बजाकर उनका सम्मान किया।

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अपने विभिन्न संबोधनों में उन्होंने भारतीय चिंतन की व्यापकता और वर्तमान समय की प्राथमिकता का स्पष्ट चित्रण किया। उनका कहना था कि मनुष्य को धर्म से पहले उसके जीवन की सुरक्षा और न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति होनी चाहिए। यदि तनाव और वैर उत्पन्न होता है तो धर्मों को आत्मचिंतन भी करना चाहिए। अपने इस कथन के माध्यम से स्वामी विवेकानंद जी ने एक प्रकार से उन दोनों धाराओं पर प्रहार किया था, जो बलपूर्वक और प्राणों के भय दिखाकर अथवा अभाव और संकटग्रस्त मानवता की सेवा के बहाने मतांतरण अभियान चला रहे हैं। उन्होंने विशेषकर भारतवासियों की आत्मा बचाने की प्राथमिकता रेखांकित की और कहा कि मानवता का सही सम्मान भारतीय चिंतन में है।

स्वामी विवेकानंद ने वेदांत सहित अन्य हिंदू धर्म ग्रंथों का उदाहरण देकर जैन और बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म की पूर्णता प्रमाणित की और कहा कि दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे का पूरक है। “हिंदू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता, और न बौद्ध धर्म का अस्तित्व हिंदू धर्म के बिना पूर्ण रह सकेगा।” उन्होंने भारत के सहिष्णु और सार्वभौमिक मूल्यों को दर्शाया। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार संसार की सभी नदियों के स्त्रोत अलग हैं, उनके मार्ग भी अलग हैं, लेकिन सबका लक्ष्य समुद्र तक पहुँचना है। उसी प्रकार संसार के सभी धर्म दिखने में भले अलग दिखते हों, लेकिन सबका ध्येय ईश्वर तक पहुँचना है।

भारतीय दर्शन की व्यापकता

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन की इसी व्यापकता से संसार को परिचित कराया और कहा कि उन्हें इस बात का गर्व है कि वे ऐसे धर्म से हैं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया, जो पूरे संसार को एक कुटुंब मानता है और ईश्वर तक पहुँचने के सभी मार्गों का समान आदर करता है। स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय चिंतन की व्यापकता का उदाहरण देकर कहा कि भारत ने संसार के सभी सताए हुए लोगों को शरण दी है और आक्रमणकारियों को भी क्षमा किया। ऐसा उदाहरण संसार में कहीं नहीं। उन्होंने सांप्रदायिकता और धर्म के नाम पर कट्टरता को मानवता का शत्रु बताया और कहा कि सांप्रदायिकता, कट्टरता के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है।

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मानवता पीड़ित हो रही है। कितने निरपराध लोगों के प्राण गए। धर्म के नाम पर कट्टरपंथ की इस जकड़ ने धरती को हिंसा से भर दिया है। न जाने कितनी सभ्यताएँ और कितने ही देश मिट गए हैं, फिर भी इस सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ की भूख नहीं मिट रही। स्वामी विवेकानंद ने ऐसे हिंसकों की तुलना खतरनाक राक्षस से की और कहा कि यदि नहीं होते तो मानव समाज कहीं अधिक उन्नत और प्रसन्न होता। स्वामी जी ने कहा कि उनका समय अब पूरा होने आ गया है। मुझे आशा है कि इस सम्मेलन का संदेश सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा, चाहे वह तलवार का हो अथवा लेखनी का।

समापन सत्र में स्वामी विवेकानंद ने कहा कि यह संसद एक सिद्ध तथ्य बन गई है। उन्होंने इस आयोजन को आयोजित करने वाले “महान आत्माओं” का आभार व्यक्त किया और कहा कि “इसने दुनिया को यह सिद्ध कर दिया है कि पवित्रता, शुद्धता और दानशीलता दुनिया के किसी भी चर्च की विशिष्ट संपत्ति नहीं हैं, और हर धर्म-व्यवस्था ने सर्वोच्च चरित्र वाले पुरुषों और महिलाओं को जन्म दिया है।” उन्होंने अपनी बात का समापन में आह्वान किया कि “लड़ाई नहीं, सहायता करें”, “विनाश नहीं, एकीकरण करें”, “विरोध नहीं, सद्भाव और शांति बनाएं।”

प्रसंग का स्मरण प्रत्येक भारतवासी के लिए गर्व

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद की इस प्रस्तुति और उनके सम्मान का प्रसंग का स्मरण प्रत्येक भारतवासी के शीश गर्व से उन्नत कर देता है। उन दिनों जिन परिस्थितियों में स्वामी विवेकानंद शिकागो गए थे, वे साधारण नहीं थीं। न आर्थिक, न सामाजिक और न ही राजनैतिक। एक हजार वर्ष के दासत्व का अंधकार प्रत्येक भारतवासी को जकड़े हुए था। उन विषम और विपरीत परिस्थितियों में स्वामी जी शिकागो गए और भारतीय दर्शन की वैश्विकता का तार्किक चित्रण किया, जिसे पूरे संसार ने स्वीकारा और माना कि मानवता की सच्ची सुरक्षा इसी मार्ग पर चलने से है।

इस घटना को आज 232 वर्ष पूरे होने आ गए। भारतवासी इस तिथि को गर्व के साथ स्मरण करते हैं। लेकिन स्मरण के साथ भारतीय समाज जीवन में उस स्वाभिमान और स्वत्व का भाव जगाने की भी आवश्यकता है, जिसका संकल्प स्वामी विवेकानंद ने लिया था और जिसका प्रकटीकरण 11 सितंबर 1893 को शिकागो में हुआ था।