राम–सीता के दिव्य मिलन की शाश्वत स्मृति : विवाह पंचमी

मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी यह वह दिन है जब स्वयं भगवान श्रीराम ने माता जानकी के कर-कमल थामे थे। यह वह क्षण है जब मिथिला नगरी में शिव-धनुष टूटा नहीं, अपितु दो हृदय एकाकार हुए थे। आज भी जब विवाह पंचमी आती है, तो समस्त भारत के घर-घर दीप जलाता है, राम-सीता की विवाह मूर्तियों को सजाता है और अवधपति-जनकनन्दिनी के मिलन की स्मृति में मंगल गान गाता है।
राम-सीता का विवाह केवल दो राजकुलों का संयोग नहीं था; वह धर्म, कर्म, त्याग, प्रेम और आदर्श वैवाहिक जीवन का शाश्वत प्रतिमान बन गया। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में इस विवाह का जो वर्णन किया है, वह पढ़ते-सुनते ही आँखें सजल और हृदय पुलकित हो उठता है।
जब विश्वामित्र जी राम-लक्ष्मण को लेकर जनकपुर पहुँचे, तब गुरुजी ने राजा जनक से कहा था :
कोसलपति के पुत्र सुनि, सकुचे महीपति गात।
जोरि पानि बोले बचन, अति हित, मृदु, परिनाम रात॥
“मुनि पूछिहु जेहि कारण, आए हम अकंटक कीन्ह।
तेहि प्रसंग तुम्हार भयउ, भंजेउ चाप सुजन मनु छीन्ह॥”
पर जनक के मन में एक शंका थी – यह बालक धनुष तोड़ देंगे, किंतु क्या ये मेरी पुत्री के योग्य भी हैं? तब गुरु विश्वामित्र ने मुस्कुराते हुए कहा :
“आजु धनुषमंडप फिरत दोउ बालक देखे जाहु।
जिन्ह के धनु-भंग की बात सुनि, राजा सकुचात भए ताहु॥”
और जब राम जी धनुष उठाने को उद्यत हुए, तब तुलसी बाबा लिखते हैं :
करतल बान धनुष सरासन। सहज हीं कीन्ह बिलोकत लोचन॥
लागा अति कोमल रघुबर बाजु। जिमि बालक खेलत धरे धनु राजु॥
धनुष टूटा। मिथिला में हाहाकार और आनंद का मिला-जुला स्वर गूँजा। पर सीता जी के हृदय में उस समय क्या बीती, उसे कोई क्या जान सकता है? वे तो बचपन से ही राम को मन ही मन अपना स्वामी मान चुकी थीं। तुलसीदास जी उस भाव को इन शब्दों में पिरोते हैं :
जब तें राम बिवाहु कीन्हा।
तब तें नयन मम रहत न लीनहा॥
सीता माता की दृष्टि राम पर जम गई थी, और राम की दृष्टि सीता पर।
वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड, सर्ग ६७, श्लोक १३-१४) में वह क्षण आता है जब जनक जी राम को देखकर कहते हैं :
इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ।
गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ॥
पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ॥
यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ।
(ये दोनों कुमार कल्याण हो, देवताओं के समान पराक्रमी, गज और सिंह के समान गति वाले, व्याघ्र और सांड जैसे बलशाली, कमलदल जैसे विशाल नेत्रों वाले, खड्ग, तरकस और धनुष धारण करने वाले, अश्विनीकुमारों के समान रूप वाले, युवावस्था को प्राप्त, मानो स्वर्ग से स्वयं ही पृथ्वी पर अवतरित हुए हों।)
विवाह का दिन आया। जनकपुर को दुलहन की तरह सजाया गया। तुलसीदास जी लिखते हैं :
नगर सजेउ अति बिबिध बिधाना।
जानंद मगन सकल नर नाना॥
फूलों की वर्षा हो रही थी, मंगल गीत गूँजे थे, देवता भी पुष्पवर्षा कर रहे थे।
वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड, सर्ग ७३) में विवाह का अद्भुत वर्णन है। जब कुश और दूर्वा बिछाकर वेदी तैयार हुई, तब जनक जी ने सीता का पाणिग्रहण कराते हुए कहा :
इयं सीता मम सुता सहधर्मचारी तव।
प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना॥
(यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी होगी। कल्याण हो तुम्हारा। इसका पाणिग्रहण करो।)
और फिर वह अमर श्लोक :
पत्नीं मान्यां तवैषा मे ददातु करणं कुरु।
इयं सीता मम सुता सहधर्मचारी तव॥
राम जी ने सीता जी का कर थामा। उस स्पर्श में सात जन्मों का बंधन बन गया। तुलसीदास जी उस समय को इन चौपाइयों में बाँधते हैं :
पाणि गहि सिय रामु बोलाए।
लगे परस्पर नयन जल छाए॥
मंगल गान करहिं सुर नारी।
बरषहिं सुमन जनकपुर नारी॥
विवाह के बाद जब बारात अयोध्या लौटी, तब दशरथ जी ने पुत्रवधू को गले लगाया। कौसल्या, कैकेयी, सुमित्रा – सबकी आँखें सजल थीं। राम-सीता का गृह-प्रवेश हुआ। तब से लेकर आज तक, विवाह पंचमी के दिन हम राम-सीता की तरह ही वैवाहिक जीवन की कल्पना करते हैं – जहाँ पति धर्म का, मर्यादा का, त्याग का प्रतीक हो और पत्नी धैर्य, करुणा और समर्पण की मूर्ति।
राम-सीता के वैवाहिक जीवन में कोई क्लेश नहीं था, पर परीक्षाएँ बहुत थीं। वनवास के चौदह वर्षों में सीता जी ने कभी राम से शिकायत नहीं की। वे राम के पीछे-पीछे चलती रहीं, जैसे लता वृक्ष का आश्रित रहती है। तुलसीदास जी लिखते हैं :
जब लगि रहिहि तनु तुलसी के, तब लगि रामहि प्रान प्रिय ते।
सीता राम के प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं। और राम के लिए राम सीता से बढ़कर कुछ नहीं था।
लंका में जब सीता अशोक वाटिका में कैद थीं, तब भी उनका मन राम-राम जपता रहा। और राम ने कभी सीता पर संदेह नहीं किया – अग्निपरीक्षा केवल लोकापवाद दूर करने के लिए थी। राम ने सीता को त्यागा भी, तो केवल प्रजा की मर्यादा के लिए। पर उनका हृदय सीता-सीता पुकारता रहा। ऐसे प्रेम और त्याग का दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है।
आज जब हम विवाह पंचमी मनाते हैं, तो हम केवल एक उत्सव नहीं मनाते। हम अपने वैवाहिक जीवन में राम-सीता जैसे आदर्श स्थापित करने की प्रेरणा लेते हैं। आज के युग में जहाँ तलाक की खबरें आम हैं, जहाँ वैवाहिक संबंध इतनी जल्दी टूट जाते हैं, वहाँ राम-सीता का स्मरण हमें सिखाता है :
- पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक हैं, प्रतिद्वंद्वी नहीं।
- कांड में तुलसीदास जी कहते हैं : “पिय बिनु रहि न सकइ सिय, पियहि बिना नहिं रहइ। जैसे चकोर चंद बिनु, चंद बिनु चकोर न रहइ॥”
- वैवाहिक जीवन में त्याग और समर्पण सबसे बड़ा सुख है। सीता जी ने राजमहल छोड़ जंगल को अपनाया, राम ने राजपाट को ठुकरा वन को स्वीकार किया। दोनों ने एक-दूसरे के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया।
- एक-दूसरे की मर्यादा सबसे ऊपर है। राम ने प्रजा की बात मानी, सीता ने राम की आज्ञा को जीवन मान लिया।
- संकट के समय साथ निभाना ही सच्चा प्रेम है। रावण के सामने सीता डटी रहीं, लक्ष्मण-रेखा के बाहर भी राम का नाम लिया। राम ने सीता को खोजने के लिए समुद्र तक को लाँघ डाला।
विवाह पंचमी के दिन अनेक लोक-रीति हैं। उत्तर भारत में राम-सीता की छोटी-छोटी मूर्तियों का विवाह रचाया जाता है। कन्याएँ व्रत रखती हैं कि उन्हें राम जैसा पति और सीता जैसा वैवाहिक सौभाग्य मिले। मंदिरों में राम विवाह का नाट्य होता है। घरों में खीर-पूड़ी बनती है, क्योंकि जनकपुर में भी विवाह के समय खीर-पूड़ी बनी थी।
एक छोटी-सी कथा याद आती है। मेरी दादी कहती थीं कि विवाह पंचमी की रात अगर कोई अविवाहित कन्या राम-सीता के विवाह का कीर्तन सुने और राम से मन ही मन प्रार्थना करे, तो उसे राम-सरीखा पति अवश्य मिलता है। आज के युग में यह बात अंधविश्वास लग सकती है, पर सच्चाई यह है कि जब हम राम-सीता जैसे आदर्श को मन में बिठाते हैं, तो हमारा चरित्र ही ऐसा बन जाता है कि हमें उसी तरह का जीवनसाथी मिलता है। जैसा बीज बोओगे, वैसा फल काटोगे।
अंत में, विवाह पंचमी हमें केवल अतीत की स्मृति नहीं, अपितु भविष्य का संकल्प देती है। यह संकल्प कि हमारा वैवाहिक जीवन भी राम-सीता की तरह पवित्र, मधुर, त्यागमय और धर्ममय बने।
तुलसीदास जी की अंतिम प्रार्थना के साथ इस आलेख को विराम देता हूँ :
राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चहसि उजिआर॥
हे राम-सीता! आप दोनों के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम। विवाह पंचमी की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ। आपके वैवाहिक जीवन में भी वही सौहाद्र, वही प्रेम, वही त्याग और वही सौभाग्य बरसे, जो राम-सीता के जीवन में बरसा था।
जय सीयराम ! जय श्री राम !
