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शिल्पकला और तकनीकी नवाचार के प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा

आचार्य ललित मुनि

जब भी मानव सभ्यता के विकास की चर्चा होती है, परम्परागत शिल्पकारों की भूमिका अनिवार्य रूप से सामने आती है। सभ्यता और संस्कृति की पूरी यात्रा उनके बिना अधूरी ही लगती है। लोहार, बढ़ई, रथकार, सोनार, ताम्रकार और वास्तुविद जैसे शिल्पकारों ने अपने कौशल से धरती को सजाया-संवारा और मानव जीवन को सरल तथा सुंदर बनाने का सतत प्रयास किया।

आज जो संसार हमें सुव्यवस्थित और सुसज्जित दिखाई देता है, उसकी नींव शिल्पकारों के श्रम, त्याग और कौशल में छिपी है। वे साधक की तरह अपने औजारों से सृजन करते रहे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मानव सभ्यता को आकार देने में उनका योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी राजा, दार्शनिक या वैज्ञानिक का।

भारतीय परंपरा में तकनीकी ज्ञान विज्ञान और शिल्पकला का प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा को माना जाता है। वेद और पुराण उनके आविष्कारों और कृतियों का वर्णन करते नहीं थकते। “यो विश्वजगतं करोत्य: स: विश्वकर्मा” अर्थात वह समस्त जड़ चेतन, पशु पक्षी, सभी के परमपिता है, रचनाकार हैं। महर्षि दयानंद कहते हैं – “विश्वं सर्वकर्म क्रियामाणस्य स: विश्वकर्मा” सम्यक सृष्टि का सृजन कर्म जिसकी क्रिया है, वह विश्वकर्मा है। ऋग्वेद में उन्हें समस्त जगत का रचयिता कहा गया है।

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वैदिक काल को मानव के सामाजिक और आर्थिक विकास का प्रारंभिक चरण माना जाता है। प्राचीन शास्त्रों में अग्नि का अविष्कारक महर्षि अंगिरा को माना है। इस युग का सबसे क्रांतिकारी आविष्कार अग्नि थी। उनके द्वारा जंगलों में भड़कती आग को वश में करके उसे उपयोगी साधन बना लेना मानव को पशु से मनुष्य की ओर ले गया। यह वह बिंदु था जहां से सभ्यता ने आगे बढ़ना शुरू किया।

इसके बाद उपकरणों का निर्माण सभ्यता की दूसरी सीढ़ी बना। हल, फाल, कुदाल, रथ, अस्त्र शस्त्र, शकट, रथ, यज्ञपात्र और आभूषण जैसे उपकरण शिल्पकारों ने राजा से लेकर सामान्य किसान-मजदूर तक सभी के लिए तैयार किए। इन औजारों ने जीवन को दिशा दी और श्रम को गति।

आज हम जिसे इंडस्ट्री कहते हैं, प्राचीन भारत में उसे शिल्पशास्त्र कहा जाता था। वायुयान, महल, किले, बारूद, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डी (बंदूक), चुम्बकीय सुई, पंखे और अन्य अद्भुत उपकरणों का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। इन सबका श्रेय शिल्पकारों की तकनीकी दक्षता और नवाचार की क्षमता को जाता है।

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इतिहास इस बात का गवाह है कि कठिन परिस्थितियों में भी शिल्पकारों ने कालजयी कृतियों का निर्माण किया। अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो और मंदिरों की स्थापत्य कला जैसे हजारों निर्माण इस कौशल की जीवित प्रमाण हैं। आज भी हम सोचते रह जाते हैं कि हजारों वर्ष पहले आधुनिक मशीनों के बिना ऐसे अद्भुत निर्माण कैसे संभव हुए होंगे।

शिल्पकारों का यह गौरवशाली सफर अंग्रेजी शासन के दौर में आकर टूट गया। अंग्रेजों ने देखा कि भारत के शिल्पकार अत्यंत दक्ष और कुशल हैं। यदि वे उनके खिलाफ खड़े हो गए तो साम्राज्य टिक नहीं पाएगा, क्योंकि विश्व में कई राज्यों में शिल्पकारों ने क्रांति कर सत्ता परिवर्तन किया था। इसलिए योजनाबद्ध तरीके से कुटीर उद्योगों का विनाश किया गया और आधुनिक मशीनीकरण को बढ़ावा दिया गया। परिणाम यह हुआ कि शिल्पकारों का पैतृक व्यवसाय छिन गया और उनकी आर्थिक रीढ़ टूट गई।

औपनिवेशिक शासन में शिल्पकारों ने स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई, पर स्वतंत्रता मिलने के बाद भी उनकी स्थिति बहुत नहीं बदली। ग्लोबलाइजेशन के दुष्प्रभावों ने उनकी स्थिति और कठिन बना दी। विदेशी वस्तुओं के आयात ने घरेलू शिल्प उद्योग को कमज़ोर कर दिया था। लकड़ी, धातु और अन्य कच्चे माल की कीमतें बढ़ने से उनका उत्पादन कठिन हो गया था।

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भारत में परम्परागत शिल्पकारों के पास तकनीकी ज्ञान की कोई कमी नहीं है। कमी केवल संरक्षण और प्रोत्साहन की है। यदि इन्हें आधुनिक साधनों, शिक्षा और प्रशिक्षण के साथ अवसर दिया जाए तो ये समुदाय रक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, ऊर्जा और विज्ञान के हर क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे सकते हैं। इस दिशा में कार्य करते हुए केंद्र सरकार ने पीएम विश्वकर्मा योजना नामक योजना 17 सितंबर 2023 को शुरू की एवं कुछ राज्यों ने भी इस ओर ध्यान देकर योजनाएं प्रारंभ की। आशा है कि इन योजनाओं का लाभ परम्परागत शिल्पी समुदाय को प्राप्त होगा।

आज भारत को एक शिल्प क्रांति की आवश्यकता है। यदि सरकार और समाज मिलकर परम्परागत शिल्पकारों को वह सम्मान और संसाधन दें, जिसके वे हकदार हैं, तो यह न केवल उनके जीवन को बदल देगा बल्कि भारत को विश्व पटल पर और अधिक शक्तिशाली तथा आत्मनिर्भर राष्ट्र बना देगा।