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वैदिक काल से डिजिटल युग तक भारतीय डाक व्यवस्था की ऐतिहासिक यात्रा

आचार्य ललित मुनि

भारतीय डाक व्यवस्था की शुरुआत वैदिक युग से दिखाई देती है। उस समय संचार का माध्यम मुख्य रूप से “दूत” हुआ करते थे। ‘अथर्ववेद’ और ‘ऋग्वेद’ में दूतों का उल्लेख मिलता है, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच संदेश लाने-ले जाने का कार्य करते थे। ये दूत किसी राज्य के राजदूत भी हो सकते थे या साधारण संदेशवाहक भी, जो पैदल या घोड़े पर लंबी यात्राएँ करते थे। राजाओं के बीच संधियों, युद्ध संदेशों या धार्मिक आमंत्रणों के आदान-प्रदान में इन दूतों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। यह वही परंपरा थी जो आगे चलकर संगठित डाक व्यवस्था की नींव बनी। हमारे यहाँ डाक व्यव्स्था सिर्फ़ संदेशों के आदान प्रदान के लिए ही नहीं थी, बल्कि यह सभ्यता की विकास यात्रा के सभी सोपानों को प्रदर्शित करती है।

हर वर्ष 9 अक्टूबर को दुनिया भर में विश्व डाक दिवस मनाया जाता है। यह केवल एक प्रशासनिक या सेवा-केन्द्रित उत्सव नहीं है, बल्कि यह उस अदृश्य तंत्र की स्मृति है जिसने मानव सभ्यता को जोड़ने का कार्य किया। आज जब हम मोबाइल और इंटरनेट आधारित संचार के युग में हैं, तब भी डाक सेवा का महत्व समाप्त नहीं हुआ है। यह हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक ढांचे का वह स्तंभ है, जिसने सदियों तक एकता, सूचना और विश्वास की डोर बनाए रखी।

विश्व डाक दिवस की शुरुआत 1969 में टोक्यो में आयोजित यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन (UPU) की कांग्रेस में हुई थी, ताकि 1874 में स्विट्ज़रलैंड के बर्न में UPU की स्थापना के दिन को याद रखा जा सके। यह संगठन आज भी 190 से अधिक देशों को जोड़ता है, और डाक सेवाओं के माध्यम से वैश्विक एकता की भावना को सशक्त करता है।

लेकिन जब हम भारत की बात करते हैं, तो यह विषय केवल डाक सेवा का इतिहास नहीं, बल्कि सभ्यता की निरंतरता की कहानी बन जाता है। भारत में संचार की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है, जब संदेश पैदल दूतों या पशु सवारों के माध्यम से भेजे जाते थे। समय के साथ यह प्रणाली प्रशासन, धर्म, व्यापार और संस्कृति की वाहक बन गई। आज भारत पोस्ट (India Post) के पास 1.59 लाख से अधिक डाकघर हैं, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा डाक नेटवर्क बनाता है। यह उपलब्धि एक लंबी ऐतिहासिक यात्रा का परिणाम है, जिसकी जड़ें हजारों वर्षों में फैली हैं।

मौर्य साम्राज्य (321–185 ईसा पूर्व) में डाक व्यवस्था ने संगठित रूप धारण किया। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने शासन को प्रभावी बनाने के लिए सूचना व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। उनके गुरु कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ में डाक प्रणाली का विस्तृत विवरण मिलता है।

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कौटिल्य ने “दाकपाल” नामक पद का उल्लेख किया है, जो संदेश प्रेषण की व्यवस्था का प्रमुख होता था। यह व्यक्ति राज्य के “रनर्स”, “घुड़सवार” और “कबूतर वाहकों” का संचालन करता था। अर्थशास्त्र में बताया गया है कि संदेश सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए कई स्तरों से होकर गुजरते थे। यह प्रणाली न केवल प्रशासनिक नियंत्रण के लिए, बल्कि गुप्तचर नेटवर्क और राजस्व संग्रह के लिए भी जरूरी थी।

सम्राट अशोक (268–232 ईसा पूर्व) ने इस प्रणाली को और व्यवस्थित किया। उनके शिलालेख बताते हैं कि आदेश और धर्म प्रचार से जुड़े संदेश तेजी से विभिन्न प्रांतों तक पहुँचते थे। यह नेटवर्क शासन को केंद्रीकृत और प्रभावी बनाता था। मौर्यकालीन डाक चौकियाँ हर 10–15 किलोमीटर पर बनी होती थीं, जहाँ संदेशवाहक अगले धावक को संदेश सौंप देता था। एक औसत दूत एक दिन में लगभग 100 मील की दूरी तय कर सकता था—जो आधुनिक “स्पीड पोस्ट” से तुलना योग्य है।

गुप्त साम्राज्य (320–550 ई.) के दौरान भारतीय डाक व्यवस्था और भी विकसित हुई। सम्राट समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य को नियंत्रित रखने के लिए संदेश व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया। इस काल में कबूतर डाक के अलावा समुद्री डाक प्रणाली का भी उपयोग शुरू हुआ, जिससे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच व्यापारिक संचार संभव हुआ। संदेशवाहक व्यापारी संघों के बीच व्यापार दरों, मौसम और बाज़ार की सूचनाएँ साझा करते थे। यह प्रणाली केवल प्रशासनिक नहीं थी, बल्कि सांस्कृतिक एकता का भी माध्यम बनी।

मध्यकालीन भारत (1206–1707) में डाक व्यवस्था ने एक नया रूप लिया। दिल्ली सल्तनत के शासकों ने इसे राजकीय प्रणाली का हिस्सा बनाया। अलाउद्दीन खिलजी (1296–1316) ने डाक चौकियों की श्रृंखला बनाई, जहाँ घोड़े और पैदल दूत संदेश पहुँचाने के लिए तैनात रहते थे। प्रसिद्ध यात्री इब्न बतूता (1341) ने तुगलक शासनकाल की डाक प्रणाली का विस्तृत वर्णन किया है, उन्होंने लिखा कि “हर तीन मील पर एक डाक चौकी थी, जहाँ घोड़े और दौड़ने वाले हमेशा तैयार रहते थे।”

शेरशाह सूरी (1540–1545) ने डाक व्यवस्था को एक नई ऊँचाई दी। उन्होंने ग्रैंड ट्रंक रोड (जी.टी. रोड) का निर्माण कराया, जो बंगाल से सिंध तक फैली थी। इसके किनारे लगभग 1700 सरायें थीं, जिनमें 3400 घोड़े और दूत हमेशा संदेशवाहन के लिए तैयार रहते थे। उन्होंने पहली बार आम जनता के लिए डाक सेवा को सुलभ बनाया, जो एक सामाजिक क्रांति थी।

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मुगल काल (1526–1707) में इस प्रणाली ने और विस्तार पाया। अकबर ने ऊँटों को डाक परिवहन में शामिल किया और लगभग 2000 मील लंबी पोस्टल सड़कों का निर्माण कराया। यह नेटवर्क न केवल शाही आदेशों के लिए, बल्कि व्यापारिक सूचनाओं के लिए भी उपयोगी था। मुगलों के समय डाक व्यवस्था जासूसी, व्यापार और साहित्यिक आदान-प्रदान का भी माध्यम बनी।

दक्षिण भारत में, मैसूर राज्य के शासक चिक्का देवराय वोडेयार (1672) ने “मैसूर अंचे” नामक एक प्रभावी स्थानीय डाक प्रणाली विकसित की, 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय डाक व्यवस्था को अपने प्रशासनिक नियंत्रण में लिया। 1688 में बॉम्बे में पहला डाकघर खोला गया, लेकिन नियमित व्यवस्था रॉबर्ट क्लाइव (1766) के समय शुरू हुई।

वारेन हेस्टिंग्स (1773–1784) ने 1774 में जनता के लिए डाक सेवा खोली और कोलकाता जनरल पोस्ट ऑफिस (GPO) की स्थापना की। इसके बाद मद्रास (1786) और बॉम्बे (1794) में भी GPO बनाए गए।

1837 का पोस्ट ऑफिस एक्ट ब्रिटिश कंपनी को डाक सेवा पर एकाधिकार देता था, जबकि 1854 में लॉर्ड डलहौजी ने “भारतीय डाक विभाग” की औपचारिक स्थापना की। इसी वर्ष भारत में पहली बार एकसमान दर प्रणाली (Uniform Rate System) शुरू हुई, जिससे पूरे देश में वजन के आधार पर समान डाक शुल्क तय हुआ।

1852 में स्किंड डॉक स्टांप (भारत का पहला चिपकने वाला डाक टिकट) जारी हुआ। 1876 में भारत यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन (UPU) का सदस्य बना, जिससे अंतरराष्ट्रीय मेल प्रणाली को बल मिला। 1879 में रेलवे मेल सर्विस (RMS) और मनी ऑर्डर प्रणाली शुरू हुई। 1911 में भारत ने पहली एयरमेल सेवा शुरू की, जब प्रयागराज से नैनी तक डाक विमान भेजा गया। औपनिवेशिक काल में डाक प्रणाली शासन नियंत्रण और व्यापार के औजार के रूप में प्रयुक्त हुई, लेकिन इसी ने आधुनिक भारत में संचार के ढांचे की नींव रखी।

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय डाक सेवा ने नए स्वरूप में देश की एकता और विकास का माध्यम बनना शुरू किया। 1959 में भारतीय डाक विभाग ने “सेवा पूर्व स्वार्थ” (Service before Self) का आदर्श वाक्य अपनाया। 1972 में PIN कोड प्रणाली लागू की गई, जिसका श्रेय श्रीराम भिकाजी वेलणकर को जाता है। इससे पत्र वितरण अधिक सटीक और तेज़ हुआ। 1986 में स्पीड पोस्ट सेवा शुरू हुई, जिसने भारतीय डाक को निजी कूरियर सेवाओं के समकक्ष खड़ा कर दिया। 2003 में “मेघदूत” सॉफ्टवेयर ने डाकघरों के कंप्यूटरीकरण की शुरुआत की। 2008 में प्रोजेक्ट एरो के तहत डाकघरों का आधुनिकीकरण किया गया, जिससे सेवाएँ ग्राहक-केंद्रित हुईं।

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आज भारतीय डाक केवल पत्र या पार्सल भेजने की सेवा नहीं रही। यह वित्तीय समावेशन का एक प्रमुख साधन है— ग्रामीण डाक जीवन बीमा (RPLI), डाक जीवन बीमा (PLI), पोस्टल बैंकिंग, ई-पोस्ट, ई-पेमेंट, और इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक जैसी सेवाएँ, इन सबने भारतीय डाक को एक डिजिटल वित्तीय संस्था में बदल दिया है।

भारतीय डाक व्यवस्था केवल प्रशासनिक ढांचा नहीं है, बल्कि यह मानव संबंधों की जीवंत कड़ी है। प्राचीन काल में यह राज्य और प्रजा के बीच सेतु थी, मध्यकाल में साम्राज्य की नसों में बहने वाला रक्त, औपनिवेशिक काल में तकनीकी संक्रमण का माध्यम, और आज के युग में यह डिजिटल अर्थव्यवस्था की आधारशिला बन चुकी है। ग्रामीण भारत में डाकिया अब भी “विश्वास का दूत” है। वह केवल पत्र नहीं, बल्कि पेंशन, बैंकिंग सेवा और सरकारी योजनाओं की जानकारी लेकर आता है। भारत पोस्ट की पहुँच आज भी सबसे दूरस्थ गांवों तक है, वह स्थान जहाँ इंटरनेट या बैंकिंग सेवाएँ नहीं पहुँचतीं, वहाँ डाक विभाग भारत सरकार की उपस्थिति सुनिश्चित करता है।

भारत की डाक व्यवस्था की कहानी केवल संदेशों की यात्रा नहीं है; यह सभ्यता की चेतना की यात्रा है। यह हमें बताती है कि संचार केवल सूचना का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि मानवता के जुड़ाव की प्रक्रिया है। वैदिक युग के दूतों से लेकर डिजिटल युग के ई-पोस्ट तक, यह यात्रा हजारों वर्षों की तकनीकी और सांस्कृतिक प्रगति का प्रतीक है।

आज जब हम विश्व डाक दिवस मना रहे हैं, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि पत्र, भले ही अब ईमेल में बदल गया हो, परंतु उसकी भावना—“दिल से दिल तक पहुँचने की” अब भी उतनी ही जीवित है। डाक विभाग न केवल भारत के भौगोलिक विस्तार का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय समाज की विश्वसनीयता, सेवा और एकता का जीवंत उदाहरण है। यह व्यवस्था समय के साथ बदली है, पर उसका मूल उद्देश्य, लोगों को जोड़ना, आज भी नहीं बदला है।