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सम्राट विक्रमादित्य की आदर्श शासन व्यवस्था और गौरवशाली विरासत

आदर्श जीवन मूल्यों और उच्चतम शासन व्यवस्था के लिये भारत पूरे संसार में विख्यात है। भारतीय ज्ञान परंपरा और वैदिक विज्ञान को समझने केलिये विदेशी विद्वान सैकड़ों वर्षों से भारत आते रहे हैं। हेलिओदर, ह्येनसाँग, फाह्यान, अलबरूनी, कनिंघम आदि लेखकों की एक लंबी सूची है। मेक्समूलर ने भारत से बाहर रहकर भारत की प्रत्येक विधा का अध्ययन किया। इनमें से प्रत्येक लेखक के विवरण में भारतीय विशेषताओं का वर्णन मिलता है। भारत की उन्नत सभ्यता और उच्चतम विकास का एक प्रमुख केन्द्र मध्यप्रदेश का उज्जैन भी रहा है। यह नगर पृथ्वी की कर्क रेखा पर बसा है।

प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक के प्रत्येक कालखंड में उज्जैन संसार भर के आकर्षण का केन्द्र रहा है। यदि वैदिक काल में काल गणना के लिये उज्जैन सर्वोच्च शिखर पर था और उच्चतम शिक्षा केन्द्र भी। तभी तो महाभारत काल में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण शिक्षा केलिये उज्जैन ही आये थे। इस नगर का विज्ञान कितना उनन्त था इसका प्रमाण यही है कि 2081 वर्ष पहले उज्जैन आरंभ हुये विक्रम संवत की वैज्ञानिकता पर आज भी पूरा संसार चकित है। सुप्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य का जन्म भी इसी उज्जैन में हुआ और उनके साम्राज्य का केन्द्र भी उज्जैन था।

सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल विविधताओं और विशेषताओं से भरा था। शौर्य, शक्ति, सामर्थ्य, समृद्धि, उच्चतम शासन व्यवस्था और आदर्श समाज जीवन केलिये उनका प्रशासन विश्व भर में जाना जाता है। सम्राट विक्रमादित्य के शासन व्यवस्था की तुलना रामराज्य से होती है। एक ऐसी शासन प्रणाली जिसमें किसी व्यक्ति को कोई कष्ट न था। न दैहिक और न दैविक। उच्चतम आदर्श शासन व्यवस्था केलिये रामजी के बाद सम्राट विक्रमादित्य की ही स्मरण किया जाता है। यह उनके उच्चतम प्रबंधन की ही ख्याति है कि सैकड़ो सालों तक भारत के विभिन्न क्षेत्र के शासक अपने राज्याभिषेक के साथ “विक्रमादित्य” उपाधि ग्रहण करते थे।

“विक्रमादित्य” की उपाधि के साथ राज्यभार ग्रहण करने वाले राजा पूरे भारत में मिलते हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक लगभग सभी क्षेत्र में कोई न कोई राजा ऐसा अवश्य रहा जिसने अपने नाम के आगे “विक्रमादित्य” उपाधि ग्रहण की। यह सम्राट विक्रमादित्य जैसे महान और दूरदर्शी शासकों के विकास कार्यों की विशेषता रही कि भारत “विश्वगुरु” और “सोने की चिड़िया” के रूप विख्यात हुआ।

भारत आज पुनः नये विकास की अंगड़ाई ले रहा है। प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी ने वर्ष 2047 तक भारत को पुनः विकसित राष्ट्रों में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया है। भारत को उसकी प्रसिद्धि शीर्ष पर पुनर्प्रतिठित करने के अभियान में मोदीजी ने विकास की संकल्पना में विरासत को भी जोड़ा है। उनका मानना है कि वही वृक्ष आकाश की ऊँचाइयों पर चिरंजीवी रह सकता है जिसकी जड़े गहरी हों। समाज जीवन की जड़े उसकी संस्कृति में होती हैं, गौरवशाली अतीत की स्मृतियों में होतीं हैं। इसलिए उन्होने नारा दिया है “विकास के साथ विरासत”।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव की कार्य योजनाओं में मोदीजी का यही मंत्र है। डाॅ मोहन यादव का संकल्प है कि विश्व में सर्व प्रतिष्ठित राष्ट्र का आकार लेने जा रहे भारत के विकसित प्राँतों में श्रेणी में अग्रणी राज्य मध्यप्रदेश हो। इसीलिए वे विकास और प्रतिव्यक्ति आय वृद्धि के लिये नवाचार कर रहे हैं। नीतियाँ भी उदार बना रहे हैं तो इसी के साथ मध्यप्रदेश की गौरवशाली विरासत को सहेजने और संसार में लाने का भी अभियान चला रहे हैं। मध्यप्रदेश में वन्य अभ्यारण्य का विकास, कृष्ण पाथेय, गौ संरक्षण, 17 धार्मिक स्थलों को नशामुक्त बनाना, रामपथ गमन के विकास में तेजी, आदि कदम उठाये हैं।

इसी श्रृंखला में उन्होने 125 दिवसीय विक्रमोत्सव आरंभ किया है। विक्रमोत्सव के दौरान सांस्कृतिक, सामाजिक समागम तो होंगे । इसके साथ शासन व्यवस्था और समाज जीवन के आदर्श मूल्यों से भी समाज को अवगत कराया जायेगा। सम्राट विक्रमादित्य के शासनकाल में यह उच्चतम परिवार प्रबंधन, प्राकृतिक संरक्षण, दायित्व वोध, सामाजिक समरसता, उन्नत सुरक्षा प्रबंध ही तो था जिसके उदाहरण आज भी दिये जाते हैं।

सम्राट विक्रमादित्य का संक्षिप्त परिचय

सम्राट विक्रमादित्य का जन्मतिथि पर विद्वानों का मतभेद है। कुछ विद्वान 109 ईसा पूर्व मानते हैं और कुछ 101 ईसा पूर्व। अधिकांश विद्वान उनका जन्म 101 वर्ष ईसा पूर्व ही मानते हैं। उनके बचपन का नाम विक्रमसेन था। पिता गन्धर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। सुप्रसिद्ध राजा भतृहरि उनके बड़े भाई थे। राजा भतृहरि भी संस्कृत के विद्वान और नीति निपुण थे। राजा भर्तृहरि द्वारा रचित श्रृंगार शतक, नीति शतक, और वैराग्य शतक आज भी उपलब्ध हैं। इन तीनों रचनाओं में सौ सौ श्लोक हैं। इन रचनाओं के नाम से ही स्पष्ट है कि उनमें जीवन के तीनों स्वरूपों का वर्णन है। माता सौम्यदर्शना देवी भी वैदिक और संस्कृत विद्वान थीं।

सम्राट विक्रमादित्य के परिवार की पृष्ठभूमि से यह स्पष्ट है कि भारत में आज से इक्कीस सौ वर्ष पूर्व भी शिक्षा कितनी उन्नत थी। महिलाएँ भी संस्कृत और वैदिक अध्ययन करतीं थीं। जिन परिस्थियों सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ वे साधारण नहीं थीं। भारत शकों के आक्रमणों से आक्रांत था। राजा गन्धर्वसेन के राज्य की सीमा मथुरा तक लगती थी। अभी विक्रमसेन केवल बारह वर्ष के थे कि मालवा पर शकों का आक्रमण हो गया। शकों के राजा नहपान आँधी की भाँति आगे बढ़ा। उत्तर, मध्य एवं पूरे पश्चिम भारत के समूचे क्षेत्र पर उसका अधिकार करता हुआ उज्जैन आ धमका था।

राजा गन्धर्वसेन युद्ध में मारे गये। मंत्री विष्णुगुप्त ने किसी प्रकार महारानी सौम्यदर्शना और दोनों राजकुमारों को सुरक्षित निकाला। माता अपने दोनों पुत्रों को लेकर वन में चलीं गईं। विक्रमसेन वनवासियों के बीच ही बड़े हुये। एक ओर मंत्री विष्णु गुप्त ने राज्य के शुभचिंतकों और समर्थकों को सक्रिय किया और तो दूसरी ओर युवा विक्रम ने वनवासियों की सेना संगठित की। पूरी तैयारी के साथ शकों पर धावा बोला। शकों को भागना पड़ा। विक्रमसेन ने शकों को मथुरा तक खदेड़ कर मालवा को मुक्त कराया और विक्रमादित्य की उपाधि के साथ सिंहासन पर बैठे। यह चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा थी। इसी तिथि से विक्रम संवत् आरंभ हुआ। इसके कुछ वर्ष बाद उन्होंने भारत के अन्य शासकों से संपर्क किया और शकों पर धावा बोला। शकों ने समर्पण कर दिया। संपूर्ण भारत शकों से मुक्त हो गया। इस युद्ध के बाद संपूर्ण भारत और विश्व में उनका प्रभाव बढ़ा।

सम्राट विक्रमादित्य की आदर्श नीतियाँ

सम्राट विक्रमादित्य की आदर्श नीतियों की झलक उस समय के संस्कृत साहित्य में है जिन्हें कहानियों के रूप में बहुत रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह प्रस्तुति सिंहासन बत्तीसी और विक्रम बेताल कथाओं में है। सिंहासन बत्तीसी में बत्तीस पुतलियाँ हैं। उस सिहासन पर बैठने का प्रयास कर रहे राजा भोज को एक एक पुतली राजा विक्रमादित्य की विशेषता बताती है।

पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी में राज्य की संपन्नता, दूसरी पुतली चित्रलेखा की कहानी में राजा की कल्पनाशीलता, चंद्रकला की कहानी में पुरूषार्थ, कामकंदला की कहानी में दानवीरता, लीलावती की कहानी में त्याग रविभामा की कहानी में तात्कालिक प्रतिउत्पन्न मति, कौमुदी की कहानी में दुष्टता को पहचानना, पुष्पवती की कहानी में समय और वस्तु की उपयोगिता, मधुमालती की कहानी में प्रजाहित चिंतन, प्रभावती की कहानी में पारिवारिक दायित्व, त्रिलोचना की कहानी में आध्यात्म, पद्मावती की कहानी में शौर्य, कीर्तिमति की कहानी में यशवृद्धि, सुनयना की कहानी में शत्रु से सावधानी और रक्षा, सुंदरवती की कहानी में दायित्व वोध, सत्यवती की कहानी में वचनशीलता, विद्यावती की कहानी में परोपकार, तारावती की कहानी में कला और ज्ञान का सम्मान, रूपरेखा की कहानी में तपस्वी जीवन, ज्ञानवती की कहानी में ज्ञानियों से सत्संग, चंद्रज्योति की कहानी में शोध और अनुसंधान को प्रोत्साहन, अनुरोधवती की कहानी में बुद्धि और संस्कार का महत्व, धर्मवती की कहानी में कर्मशीलता, करुणावती की कहानी में चरित्रवान, त्रिनेत्री की कहानी में आस्थावान, मृगनयनी की कहानी में नारी की विश्वसनीयता, मलयवती की कहानी में दानशीलता, वैदेही की कहानी में स्वर्ग अर्थात आदर्श स्थान की यात्रा, मानवती की कहानी में बहन के विवाह के माध्यम से कुटुम्ब के दायित्व निर्वाहन जयलक्ष्मी की कहानी में मोह से मुक्ति, कौशल्या की कहानी में मृत्यु का सत्य और रूपवती की कहानी के माध्यम से स्मृति कोष में जाग्रत रखने का संदेश है। इन विशेषताओं को धारण करने वाला शासक ही सफल और कालजयी होता है।

सम्राट विक्रमादित्य के आदर्श की झलक होगी विक्रमोत्सव में

वनवासियों को संगठित कर अपनी मातृभूमि को मुक्त कराना तो सम्राट विक्रमादित्य का एक पक्ष है। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण उनकी आदर्श राज्य व्यवस्था जो छोटी छोटी कहानियों को रूप में लोक जीवन में विख्यात हैं। उनके राज्य प्रबंधन बहु आयामी था। इसका वर्णन इन लोक कथाओं में है। इनमें व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण तक सभी आयाम समाये हैं। उनकी नीतियाँ, प्राथमिकताएँ और सिद्धांत कालजयी हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की सत्ता का केन्द्र मध्यप्रदेश में उज्जैन था। उनके आदर्श जीवन मूल्यों से समाज को अवगत कराने केलिये मध्यप्रदेश सरकार विक्रमोत्सव मना रही है। मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने 26 फरवरी को उज्जैन में विक्रमोत्सव का शुभारंभ किया जो 25 जून तक चलेगा। 26 फरवरी को महाशिवरात्रि का पर्व था और 25 जून को हरियाली अमावस है। कुल 125 दिन चलने वाले इस विक्रमोत्सव, सम्राट विक्रमादित्य के युग के साथ भारतीय गौरव की स्मृतियों के आयोजन होगे। इस आयोजन का उद्देश्य भारतीय समाज जीवन में नवजागरण और नव चेतना उत्पन्न करना है।

विक्रमोत्सव के दौरान सांस्कृतिक, बौद्धिक विमर्श के साथ प्रदर्शनियां भी लगाई जायेंगी। इनमें भारतीय ऋषि परंपरा, भारतीय वैज्ञानिक चिंतन, देवी अहिल्याबाई जैसे आदर्श व्यक्तित्वों, लोक जीवन की परंपराओं पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनियां, वेद अंताक्षरी, संगीत, नृत्य, नाटक, मूर्तिकला, पौराणिक फिल्मों का प्रदर्शन, अंतर्राष्ट्रीय इतिहास समागम, हिन्दी सहित सभी भारतीय बोलियों में कवि सम्मेलन, पुस्तकों के प्रकाशन जैसे कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। इसके साथ ही प्रदेश का सबसे बड़ा सम्राट विक्रमादित्य राष्ट्रीय सम्मान एवं तीन राज्य स्तरीय सम्राट विक्रमादित्य शिखर सम्मान प्रदान किए जाएंगे।

इसी श्रृंखला में 12,13 और 14 अप्रैल को नई दिल्ली में भव्य आयोजन होने जा रहा है। इसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को आमंत्रित किया गया है।

मध्यप्रदेश सरकार विक्रमोत्सव को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देने का प्रयास कर रही है। चूँकि सम्राट विक्रमादित्य का राज्य और व्यक्तित्व केवल भारतीय सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनके चिन्ह संसार के अनेक देशों में मिलते हैं। सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद और इतिहासकार वाकणकर जी मानना था कि सम्राट विक्रमादित्य के राज्य का विस्तार मध्य ऐशिया तक था। आज के ईरान, इराक और अरब क्षेत्र भी उनके आधीन थे।

इतिहास के इस तथ्य की पुष्टि अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ होती है। जिसमें सम्राट विक्रमादित्य की विजय और शासन व्यवस्था का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त तुर्की के एक ऐतिहासिक ग्रंथ ‘सायर-उल-ओकुल’ में राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख आया है।यह ग्रंथ इस्ताम्बुल नगर की लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में सुरक्षित है।

इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि राजा विक्रमादित्य का व्यक्तित्व वैश्विक था। मध्यप्रदेश सरकार इस विक्रमोत्सव के माध्यम से सम्राट विक्रमादित्य की इन सभी विशेषताओं को समाज और संसार के सामने लाने का प्रयास कर रही है। इसक प्रति स्थानीय नागरिकों के साथ विदेशी पर्यटकों की रुचि देखी जा रही है। उम्मीद की जा रही है कि दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम अधिक संख्या अंतरराष्ट्रीय विद्वानों की होगी।

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