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राष्ट्र की आत्मा का अमर गीत वन्दे मातरम्

आचार्य ललित मुनि

कल्पना कीजिए उन्नीसवीं शताब्दी का वह समय जब भारत की भूमि विदेशी शासन के बोझ तले कराह रही थी। लोग अकाल, गरीबी, शोषण और असमानता के बीच जीवन गुजार रहे थे। हर ओर निराशा और अधीनता का अंधकार था। ऐसे दौर में एक साधारण साहित्यकार ने अपनी कलम से वह धुन रची जिसने पूरे देश को झकझोर दिया। यह धुन थी वंदे मातरम् की। यह केवल गीत नहीं था, बल्कि एक चेतना थी जो सोई हुई आत्मा को जगाने निकली थी। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत भारत के स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा बन गया। जब अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष की चिंगारी फूटी तो इस गीत ने उसे ज्वाला बना दिया।

भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि वह एक सांस्कृतिक जागृति भी थी। उसमें वंदे मातरम् का स्वर वह शक्ति बना जिसने सबको एक सूत्र में बांध दिया। यह गीत केवल शब्दों का मेल नहीं, बल्कि मातृभूमि के प्रति गहरी श्रद्धा और प्रेम की अभिव्यक्ति था। आज जब हम स्वतंत्र भारत के नागरिक के रूप में डिजिटल युग, आर्थिक उन्नति और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दौर में खड़े हैं, तब यह गीत उतना ही प्रासंगिक प्रतीत होता है जितना सौ वर्ष पहले था। यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची प्रगति केवल तकनीक या धन में नहीं, बल्कि अपनी मिट्टी और संस्कृति के प्रति प्रेम में बसती है।

उत्पत्ति और रचना की प्रेरणा

वंदे मातरम् की कहानी बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की संवेदना से शुरू होती है। ब्रिटिश सरकार के अधीन डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करते हुए जब उन्हें अंग्रेजी राजभक्ति के प्रतीक गॉड सेव द क्वीन गाने का आदेश मिला तो उनके आत्मसम्मान को गहरा आघात पहुंचा। उन्होंने महसूस किया कि भारतीयों के पास अपनी मातृभूमि की स्तुति करने वाला कोई गीत नहीं है। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण में वह पंक्तियाँ लिखीं जो आगे चलकर हर भारतीय के हृदय की धड़कन बनीं।

राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’ की रचना 7 नवंबर 1875 को बंकिम चंद्र चटर्जी ने की थी। यह गीत पहली बार 1882 में उनके बांग्ला उपन्यास ‘आनंद मठ’ में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास 18वीं शताब्दी के संन्यासी विद्रोह पर आधारित था, जिसमें संन्यासी भवानंद अपने साथियों को वंदे मातरम् गाकर प्रेरित करता है। यदुनाथ भट्टाचार्य ने इसे राग मल्लार में स्वरबद्ध किया। इसकी पहली पंक्तियाँ सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम् शस्य श्यामलां मातरम् केवल प्रकृति की सुंदरता नहीं बल्कि मातृभूमि की समृद्धि और सौंदर्य का प्रतीक हैं। बंकिमचंद्र ने कहा था कि यह गीत आने वाले वर्षों में लोगों के रक्त में नाचने लगेगा और उनकी भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई।

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स्वतंत्रता संग्राम में वंदे मातरम् की भूमिका

1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पहली बार वंदे मातरम् सार्वजनिक रूप से गाया गया। 1896 में रवींद्रनाथ टैगोर ने जब इसे अपने स्वर में प्रस्तुत किया, तो यह पूरे देश में गूंज उठा। 1905 का बंगाल विभाजन इस गीत के इतिहास का निर्णायक मोड़ बना। जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बांटा, तो विरोध स्वरूप कलकत्ता के टाउन हॉल में तीस हजार लोगों ने एक साथ वंदे मातरम् का गान किया। उस क्षण यह गीत आंदोलन की पहचान बन गया।

स्वदेशी आंदोलन में यह गीत जन-जन के होंठों पर था। बाल गंगाधर तिलक ने इसे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बताया। लाला लाजपत राय ने इसी नाम से पत्रिका निकाली। मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में भारत का पहला ध्वज फहराया जिस पर वंदे मातरम् अंकित था। ब्रिटिश सरकार को यह गीत विद्रोह का प्रतीक लगा। 1906 में जब बरिशाल में छात्र इस गीत को गाते हुए जुलूस निकाल रहे थे, तो उन पर लाठीचार्ज किया गया। परंतु repression से यह स्वर दबा नहीं, बल्कि और फैल गया।

रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारी इसे अपनी प्रेरणा मानते थे। उन्होंने अपनी रचना क्रांति गीतांजलि में इसे पहला स्थान दिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में मातंगिनी हाजरा गोली लगने के बाद भी वंदे मातरम् गाती रहीं। यह गीत बलिदान और साहस का पर्याय बन चुका था। 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को जब जवाहरलाल नेहरू ने त्रिस्ट विद डेस्टिनी भाषण दिया, तो उससे पहले वंदे मातरम् गाया गया। यह क्षण भारत की आत्मा के पुनर्जन्म का प्रतीक था।

विवाद और उसकी सीमाएँ

वंदे मातरम् जितना प्रिय रहा, उतना ही विवादों से भी घिरा रहा। आनंदमठ उपन्यास में सन्यासियों का संघर्ष मुगलों के विरुद्ध दिखाया गया था, जिससे कुछ लोगों ने इसे मुस्लिम विरोधी माना। गीत के बाद के पदों में देवी दुर्गा और लक्ष्मी का उल्लेख है, जिससे इसे धार्मिक रूप देने की आलोचना हुई। 1937 में कांग्रेस की एक समिति में नेहरू, मौलाना आजाद और सुभाषचंद्र बोस ने निर्णय लिया कि इसके केवल पहले दो पद गाए जाएंगे जो मातृभूमि की प्रशंसा करते हैं, किसी विशेष धर्म की नहीं।

स्वतंत्र भारत में भी यह बहस जारी रही कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगान बनाया जाए या नहीं। 1950 में संविधान सभा ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया और जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि दोनों गीत समान सम्मान के पात्र हैं क्योंकि वंदे मातरम् ने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है।

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आधुनिक समय में भी कई न्यायालयों में इस गीत को अनिवार्य या वैकल्पिक करने को लेकर याचिकाएं दायर हुईं। 2017 में मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु के स्कूलों में सप्ताह में एक बार इसे गाने का निर्देश दिया। 2019 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इसे राष्ट्रगान का दर्जा देने की मांग को अस्वीकार करते हुए कहा कि इसका सम्मान राष्ट्रगान के समान किया जाना चाहिए, पर यह राष्ट्रीय प्रतीक की तरह वैकल्पिक रहना चाहिए।

इन विवादों के बावजूद, यह गीत एकता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक बना रहा। श्री अरविंद ने इसे देशभक्ति का धर्म बताया था। उन्होंने कहा कि वंदे मातरम् हमें मातृभूमि के उस स्वरूप से परिचित कराता है जिसमें प्रेम, त्याग और कर्तव्य का भाव निहित है।

नए भारत में वंदे मातरम् की प्रासंगिकता

आज का भारत नए युग की दहलीज पर है। अमृत काल का यह दौर केवल विकास का नहीं बल्कि मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का समय है। जब हम अंतरिक्ष तक पहुँच रहे हैं, डिजिटल क्रांति और आर्थिक सशक्तिकरण का अनुभव कर रहे हैं, तब भी वंदे मातरम् की भावना हमारी आत्मा में जिंदा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वंदे मातरम् में मां भारती के वात्सल्य का अनुभव होता है और यह हमें अपने दायित्वों की याद दिलाता है। इस गीत के शब्द सुजलां सुफलां पर्यावरण संरक्षण और जल-संवर्धन का भी संदेश देते हैं। यह केवल देशभक्ति नहीं बल्कि प्रकृति और जीवन के प्रति संवेदनशीलता का प्रतीक है।

कोविड महामारी के दौरान जब देश संकट में था, तब कई स्थानों पर डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों ने वंदे मातरम् गाकर एक-दूसरे में साहस का संचार किया। फिल्म जगत में भी यह गीत समय-समय पर नई ऊर्जा के साथ प्रस्तुत हुआ है। 1952 में आनंदमठ फिल्म में लता मंगेशकर की आवाज़ ने इसे अमर कर दिया। ए आर रहमान के आधुनिक संस्करण ने युवाओं को जोड़ने का काम किया। 2003 में बीबीसी के सर्वेक्षण में इसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ गीतों में दूसरा स्थान मिला, जो इसकी वैश्विक प्रतिष्ठा को दर्शाता है।

नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा

आज की पीढ़ी जो सोशल मीडिया, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और तेज़ जीवनशैली के बीच जी रही है, उसे वंदे मातरम् का अर्थ नए रूप में समझना चाहिए। यह गीत सिखाता है कि देशभक्ति केवल नारे नहीं बल्कि कर्म से व्यक्त होती है। यह हमें याद दिलाता है कि मातृभूमि केवल भौगोलिक क्षेत्र नहीं बल्कि वह चेतना है जो हम सबको जोड़ती है।

अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय संकल्प की उद्घोषणा है और इसे खंडित नहीं होने देना चाहिए। आज जब हम सामाजिक असमानताओं और पर्यावरणीय चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तब यह गीत हमें एकजुट होकर समाधान खोजने की प्रेरणा देता है। स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियानों में यही भावना निहित है।

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युवाओं के लिए यह जरूरी है कि वे इस गीत को केवल गाने के रूप में नहीं बल्कि अपने आचरण में उतारें। जब कोई युवा अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाता है, जब वह समाज के लिए कुछ करता है, तब वह वास्तव में वंदे मातरम् कह रहा होता है।

अमर धुन, अनंत यात्रा

वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा का संगीत है। यह उस भूमि की पुकार है जिसने हमें जन्म दिया, पोषित किया और हमें संस्कार दिए। बंकिमचंद्र की कलम से निकले इन शब्दों ने लाखों हृदयों को एक लय में बांध दिया। इसने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी, युवाओं को बलिदान के लिए प्रेरित किया और आज भी यह हमें राष्ट्र के प्रति कर्तव्य का बोध कराता है।

यह गीत समय की सीमाओं से परे है। यह स्वतंत्रता आंदोलन की याद भी है और आधुनिक भारत की प्रेरणा भी। नई पीढ़ी के लिए इसका संदेश स्पष्ट है कि सच्चा विकास तभी संभव है जब हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें। जिस भाव से बंकिमचंद्र ने यह लिखा, उसी भाव से हमें इसे जीना होगा।

वंदे मातरम् आज भी उतना ही सशक्त है जितना तब था जब इसे पहली बार गाया गया था। यह गीत हमारी पहचान है, हमारी चेतना है, हमारी आत्मा की ध्वनि है। जब तक भारत रहेगा, तब तक इसकी गूंज गगन में सुनाई देती रहेगी, यह धुम हमें याद दिलाती है कि हमारी मातृभूमि केवल भूमि नहीं, बल्कि भाव है, वह भाव जो हर भारतीय के हृदय में अनंत काल तक धड़कता रहेगा।

अमर गीत वन्दे मातरम्

वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम् मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। १।।

शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। २।।

कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम्।। ३।।

तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वम् हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।। ४।।

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलाम् अमलाम् अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम्।। ५।।

श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम्,
धरणीम् भरणीम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। ६।।

रचयिता – बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय