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भारतीय सभ्यता के एकीकरण के प्रणेता : विष्णु श्रीधर वाकणकर

आचार्य ललित मुनि

भारतीय सभ्यता विश्व की प्राचीनतम और समृद्ध सभ्यताओं में से एक है, जिसका इतिहास लाखों वर्षों तक फैला हुआ है। इस सभ्यता की गौरवशाली विरासत को विश्व पटल पर लाने में अनेक विद्वानों और शोधकर्ताओं ने योगदान दिया, परंतु श्री विष्णु श्रीधर (हरिभाऊ) वाकणकर का नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हरिभाऊ ने न केवल भीमबेटका की विश्व प्रसिद्ध गुफा चित्रों की खोज की, बल्कि अपने शोध के माध्यम से यह भी सिद्ध किया कि आर्य और द्रविड़ संस्कृति एक ही सभ्यता के दो पहलू हैं, न कि अलग-अलग। उनके कार्य ने भारतीय इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए और भारतीय संस्कृति की एकता को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

विष्णु श्रीधर वाकणकर का जन्म 4 मई, 1919 को मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के नीमच में हुआ था। बचपन से ही उनकी रुचि इतिहास, पुरातत्व और चित्रकला में थी। उनकी इस जिज्ञासा ने उन्हें विद्या और शोध की ओर प्रेरित किया। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, वे उज्जैन चले गए, जहां उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात, वे उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। इस दौरान उनकी विद्वता और समर्पण ने उन्हें एक आदर्श शिक्षक के रूप में स्थापित किया।

उज्जैन के निकट दंतेवाड़ा गांव में पुरातात्विक खुदाई के दौरान हरिभाऊ ने अथक परिश्रम किया। इस कार्य ने उनकी पुरातत्व के प्रति रुचि को और गहरा किया। उनकी यह मेहनत और लगन उनके भविष्य के महान कार्यों की नींव बनी।

भीमबेटका की खोज: एक ऐतिहासिक उपलब्धि

हरिभाऊ की सबसे प्रसिद्ध उपलब्धि भीमबेटका की गुफा चित्रों की खोज है, जिसने भारतीय पुरातत्व को वैश्विक पहचान दिलाई। 1958 में, एक रेल यात्रा के दौरान, हरिभाऊ ने मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित कुछ गुफाओं और चट्टानों को देखा। सहयात्रियों से बातचीत में उन्हें पता चला कि यह क्षेत्र भीमबेटका (भीम बैठका) के नाम से जाना जाता है, और यहां की गुफाओं की दीवारों पर प्राचीन चित्र बने हैं। हालांकि, जंगली जानवरों के भय के कारण लोग वहां जाने से कतराते थे।

यह सुनकर हरिभाऊ की आंखों में उत्साह की चमक आ गई। जैसे ही रेल की गति धीमी हुई, उन्होंने साहसिक कदम उठाते हुए चलती ट्रेन से छलांग लगा दी। कई घंटों की कठिन चढ़ाई के बाद, वे उन पहाड़ियों पर पहुंचे। वहां गुफाओं की दीवारों पर बने मानव, पशु और दैनिक जीवन के चित्रों को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। ये चित्र प्रागैतिहासिक काल के थे, जो लाखों वर्ष पहले इस क्षेत्र में बसे मानवों की सृजनशीलता और जीवनशैली को दर्शाते थे।

हरिभाऊ ने अगले 15 वर्षों तक भीमबेटका का नियमित रूप से दौरा किया और इन चित्रों का गहन अध्ययन किया। उनके इस अथक प्रयास ने भीमबेटका को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दिलाई। इस खोज ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की, और भारत सरकार ने उन्हें 1975 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।

आर्य-द्रविड़ एकता का सिद्धांत

हरिभाऊ का एक और महत्वपूर्ण योगदान यह सिद्ध करना था कि आर्य और द्रविड़ संस्कृति एक ही सभ्यता का हिस्सा हैं। औपनिवेशिक काल में कुछ पश्चिमी इतिहासकारों, जैसे कि रोबर्ट एरिक मोर्टिमर व्हीलर, ने यह दावा किया था कि हड़प्पा सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी, जिसे आर्यों ने आक्रमण करके नष्ट कर दिया। व्हीलर ने मोहनजोदड़ो में मिले 37 कंकालों को इस आक्रमण का सबूत बताया और आर्यों को गोरे और द्रविड़ों को काले रंग का मानकर एक कृत्रिम विभाजन रचा।

वाकणकर ने इस सिद्धांत को पुरातात्विक और ऐतिहासिक आधार पर चुनौती दी। एक बार उनकी मुलाकात व्हीलर से हुई। हरिभाऊ ने उनसे मजाकिया अंदाज में पूछा, “आप मुझे आर्य मानते हैं या द्रविड़?” व्हीलर ने आत्मविश्वास से कहा, “आप निश्चित रूप से आर्य हैं।” इस पर हरिभाऊ ने जवाब दिया, “मेरे पास मेरी 23 पीढ़ियों का इतिहास है, और हम शुरू से द्रविड़ माने जाते हैं। आपका आर्य-द्रविड़ सिद्धांत पूरी तरह निराधार है।” यह सुनकर व्हीलर निरुत्तर हो गए।

हरिभाऊ ने केवल अपनी वंशावली के आधार पर नहीं, बल्कि गहन शोध के माध्यम से यह सिद्ध किया कि आर्य और द्रविड़ संस्कृति में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। द्रविड़ एक स्थानवाचक शब्द है, जो दक्षिण भारत के भौगोलिक क्षेत्र को दर्शाता है, न कि किसी जाति या नस्ल को।

सरस्वती नदी की खोज और सभ्यता का अध्ययन

हरिभाऊ का एक और महत्वपूर्ण योगदान विलुप्त सरस्वती नदी की खोज थी। 1966 से वे सिंधु घाटी सभ्यता का अध्ययन कर रहे थे। उनके शोध ने साबित किया कि हड़प्पा सभ्यता आर्य सभ्यता का ही हिस्सा थी। सरस्वती नदी, जो वैदिक साहित्य में बार-बार उल्लेखित है, एक विशाल और महत्वपूर्ण नदी थी।

उनके अध्ययन के अनुसार, सिंधु घाटी सभ्यता की लगभग 1400 बस्तियों में से केवल 80 बस्तियां ही सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में थीं। शेष 1100 बस्तियां सिंधु और गंगा के बीच के मैदान में, सरस्वती नदी के तट पर स्थित थीं। हरिभाऊ का मानना था कि यदि इस क्षेत्र में व्यापक खुदाई की जाए, तो वैदिक साहित्य में वर्णित सरस्वती नदी के तट पर आर्य बस्तियों के प्रमाण मिल सकते हैं।

वे यह भी सुझाव देते थे कि सिंधु घाटी सभ्यता को ‘सरस्वती सभ्यता’ का नाम दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह नदी इस सभ्यता का केंद्र थी। उनके इस कार्य को आज भी उनके अनुयायी और शोधकर्ता आगे बढ़ा रहे हैं, जो सरस्वती नदी के क्षेत्र में खुदाई की मांग करते हैं ताकि आर्य-द्रविड़ संघर्ष के मिथक को तोड़ा जा सके।

सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के स्वयंसेवक के रूप में हरिभाऊ सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी सक्रिय थे। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP), मध्य प्रदेश के अध्यक्ष रहे। 1966 में विश्व हिन्दू परिषद (VHP) की स्थापना के बाद, प्रयाग में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में एकनाथ रानाडे ने उन्हें प्रदर्शनी और सज्जा का दायित्व सौंपा। इसके बाद हरिभाऊ की उपस्थिति ऐसे हर सम्मेलन में अनिवार्य हो गई।

वे विश्व के कई देशों में गए और वहां भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान पर व्याख्यान दिए। 1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें इसका महामंत्री बनाया गया। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लंदन संग्रहालय का संस्मरण

हरिभाऊ की संवेदनशीलता और भारतीय संस्कृति के प्रति उनके प्रेम का एक उदाहरण लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में देखने को मिलता है। वहां शोध के दौरान उन्होंने सरस्वती की एक प्राचीन प्रतिमा देखी, जिसे मुस्लिम आक्रमणकारियों ने धार की भोजशाला में तोड़ा था। धार में जन्मे हरिभाऊ इस दृश्य से भावुक हो उठे। अगले दिन वे संग्रहालय गए और प्रतिमा पर पुष्प चढ़ाकर वंदना करने लगे।

उनके आंसुओं से प्रभावित होकर संग्रहालय के प्रमुख ने उन्हें एक अलमारी दिखाई, जिसमें अंग्रेज अधिकारियों की डायरियां थीं। इनमें वास्को डी गामा की डायरी भी थी, जिसमें उसने लिखा था कि वह एक भारतीय व्यापारी ‘चंदन’ के जलयान के पीछे चलकर कोचीन पहुंचा। हरिभाऊ ने इस आधार पर तर्क दिया कि वास्को डी गामा को भारत की खोज का श्रेय देना मूर्खता है, क्योंकि भारत पहले से ही विश्व व्यापार का केंद्र था।

अंतिम क्षण और विरासत

4 अप्रैल, 1988 को हरिभाऊ सिंगापुर में एक हिन्दू सम्मेलन में भाग लेने गए थे। उनके होटल से समुद्र का मनमोहक दृश्य दिखता था। उस दिन, जब वे निर्धारित समय पर सम्मेलन में नहीं पहुंचे, तो लोगों ने होटल में जाकर देखा। हरिभाऊ बालकनी में एक कुर्सी पर बैठे थे, उनके घुटनों पर रखे कागज पर समुद्र का अधूरा चित्र बना था, और उनकी पेंसिल नीचे गिरी थी। चित्र बनाते समय हुए हृदयाघात ने उनके जीवन को समाप्त कर दिया।

हरिभाऊ की मृत्यु ने भारतीय पुरातत्व और संस्कृति के क्षेत्र में एक बड़ा शून्य छोड़ा, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। उनके शोध ने न केवल भीमबेटका को विश्व धरोहर का दर्जा दिलाया, बल्कि भारतीय सभ्यता की एकता को भी स्थापित किया।

विष्णु श्रीधर वाकणकर भारतीय सभ्यता के एक सच्चे अन्वेषक थे। उनकी खोजों और शोध ने न केवल भारत के प्राचीन इतिहास को उजागर किया, बल्कि औपनिवेशिक मिथकों को भी तोड़ा। भीमबेटका की गुफा चित्रों की खोज, सरस्वती नदी का अध्ययन और आर्य-द्रविड़ एकता का सिद्धांत उनके कार्यों की आधारशिला हैं। उनके सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान ने भारतीय कला और संस्कृति को विश्व स्तर पर सम्मान दिलाया।

हरिभाऊ का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा शोध न केवल ज्ञान की खोज है, बल्कि अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति गर्व और समर्पण का प्रतीक भी है। उनकी स्मृति में, हमें सरस्वती नदी के क्षेत्र में और अधिक पुरातात्विक खुदाई की मांग करनी चाहिए, ताकि भारतीय सभ्यता की एकता और गौरव को विश्व के सामने और सशक्त रूप से प्रस्तुत किया जा सके।