प्रकृति संरक्षण के वैदिक सूत्र और ओजोन परत रक्षण

भारतीय चिंतन में प्रकृति केवल जीवन का आधार नहीं, बल्कि दिव्यता का स्वरूप है। वैदिक ऋषियों ने पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश पंचमहाभूतों को देवताओं का रूप मानते हुए उनकी शुद्धता और संरक्षण को धर्म का अनिवार्य अंग माना। यह वैदिक दृष्टिकोण आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जब मानवता पर्यावरण प्रदूषण और ओजोन परत के क्षरण जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है। ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल में स्थित एक विशेष सुरक्षा कवच है, जो सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को रोकती है। यदि यह परत क्षीण हो, तो मानव स्वास्थ्य से लेकर पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र तक सब पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
वैदिक ऋषियों ने प्रकृति के साथ मानवीय संबंध को केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आधार पर भी देखा। उन्होंने पृथ्वी को माता, आकाश को पिता और जल को जीवन का आधार माना। उनके लिए पर्यावरण का संरक्षण न केवल जीवन की आवश्यकता थी, बल्कि धार्मिक कर्तव्य भी था। उन्होंने पृथ्वी को माता के रुप में माना। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है-
“माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः” (अथर्ववेद, 12/1/12)
अर्थ: “पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।”
अथवर्वेद कहता है कि मनुष्य और पृथ्वी का रिश्ता माँ और पुत्र जैसा है। जब पृथ्वी को माता माना गया, तो उसका संरक्षण करना पुत्र का नैसर्गिक कर्तव्य हो गया। आज ओजोन परत को पृथ्वी का सुरक्षात्मक आंचल मान सकते हैं, जो हमें सूर्य की तीव्र किरणों से बचाती है। अथर्ववेद में यह भी कहा गया है –
“यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तत् पुनर् वीरुधा भवतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयं विघारयामि॥” (अथर्ववेद, 12/1/35)
अर्थ: “हे पृथ्वी, जो कुछ मैं तुमसे खोदता हूँ, वह शीघ्र ही पुनः उग आए। मैं तुम्हारी जीवन शक्ति या हृदय को चोट न पहुँचाऊँ।”
अथवर्वेद कहत है कि संसाधनों का प्रयोग किया जाए, लेकिन उनके पुनः सृजन की व्यवस्था भी हो। यह विचार आधुनिक समय में ओजोन को क्षीण करने वाले रसायनों को नियंत्रित करने की वैश्विक पहल के संदर्भ में देखा जा सकता है। ऋग्वेद में पर्यावरण के शुद्ध और मधुर होने का चिंतन इस प्रकार मिलता है-
“मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वी नः सन्त्वोषधिः॥
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः।
मधु द्यौरस्तु नः पिता मधुमान् नो वनस्पतिः।
मधुमानस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥” (ऋग्वेद, 1/90/6-7)
अर्थ: “धर्म का पालन करने वालों के लिए हवाएँ मधुर हों, नदियाँ मधुर बहें, औषधियाँ हमें मधुरता दें। रात्रि और उषा मधुर हों, पृथ्वी की धूल मधुर हो, आकाश हमारा पिता मधुर हो, वनस्पति और सूर्य मधुर हों, गायें हमें मधुर दूध दें।”
ॠग्वेद में यहां ‘मधुरता’ का आशय शुद्धता और जीवनदायीता से है। यह श्लोक वायु, जल और पृथ्वी की शुद्धता को मानव जीवन की अनिवार्य शर्त मानता है। ओजोन परत भी वायु की शुद्धता बनाए रखने और हानिकारक प्रभावों को रोकने में भूमिका निभाती है। ऋग्वेद में अग्नि से प्रार्थना की गई है –
“अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम॥” (ऋग्वेद, 1/189/1)
अर्थ: “हे अग्नि, हमें शुभ मार्ग पर ले चलो, सब ज्ञान जानने वाले देव! हमें पाप से दूर करो और हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।”
अग्नि शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है। वैदिक यज्ञ में अग्नि का प्रयोग वातावरण की शुद्धि के लिए किया जाता था। औषधीय सामग्री से उत्पन्न धुआँ वातावरण को जीवाणुओं से मुक्त करता था। कुछ शोधों में यह भी उल्लेख मिलता है कि यज्ञीय धुएँ से वायु शुद्ध होती है, जो पर्यावरणीय संतुलन में सहायक है। ऋग्वेद में यह श्लोक मिलता है –
“महत् तदुल्बं स्थविरं तदासीद येनाविश्वता: प्रविष्टाः अपाः”* (ऋग्वेद, 10/51/1)
अर्थ: “वह विशाल और मजबूत आवरण था, जिसने पृथ्वी को ढक लिया और उसे सुरक्षित किया।”
महर्षि दयानंद सरस्वती ने इस मंत्र के भावार्थ में बताया है कि यह एक ऐसी मोटी परत थी जो पृथ्वी के चारों ओर थी, जिसके द्वारा (प्राण या हवा) प्रवेश करते हैं या व्यवस्थित होते हैं। यह पृथ्वी के वायुमंडल का एक वर्णन है, जो एक सुरक्षात्मक आवरण का कार्य करता है। अथर्ववेद में भी इसी तरह का उल्लेख मिलता है-
“तस्योत् जायमानस्य उल्ब आसिद हिरण्ययम्” (अथर्ववेद, 4/2/8)
अर्थ: “जब वह उत्पन्न हुआ तब उसका आवरण स्वर्णिम था।”
यह स्वर्णिम आवरण पृथ्वी को ढकने वाला सुरक्षात्मक कवच है, जिसे ओजोन परत के रूप में भी देखा जा सकता है। अथर्ववेद में कहा गया है-
“न तं यक्ष्मा अरुंधते यं भेषजस्य गुल्गुलह।
सुरभिन् गंधो अश्नुते॥” (अथर्ववेद, 5/22/1)
अर्थ: “जिसके पास औषधियाँ हैं, रोग उसे नहीं पकड़ते और वह सुगंध से युक्त होता है।”
अथवर्वेद औषधियों और पौधों की शुद्धिकारी शक्ति पर जोर देता है। वृक्ष और पौधे वायुमंडल को शुद्ध करते हैं, ऑक्सीजन प्रदान करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं। यह सब अप्रत्यक्ष रूप से ओजोन परत और पर्यावरण संरक्षण में सहायक है।
उपरोक्त संदर्भों के आलोक में स्पष्ट होता है कि वैदिक ऋषियों ने पर्यावरण संरक्षण को धर्म और आस्था से जोड़ा। उनके लिए पृथ्वी केवल भूमि नहीं थी, बल्कि माता थी, वायु केवल हवा नहीं, बल्कि जीवनदायिनी शक्ति थी और आकाश केवल शून्य नहीं, बल्कि सुरक्षात्मक परत था।
आधुनिक युग में जब ओजोन परत के क्षरण की समस्या सामने आई, तब वैज्ञानिकों ने ‘मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल’ जैसे वैश्विक समझौते किए, ताकि ओजोन-कमी करने वाले रसायनों का प्रयोग नियंत्रित हो। यह वही सोच है, जिसे वैदिक ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले ही अपने श्लोकों में व्यक्त किया था।
वैदिक सूत्र हमें बताते हैं कि प्रकृति का सम्मान और संरक्षण मानव जीवन का मूल है। ओजोन परत को सुरक्षित रखना उसी धर्म का हिस्सा है, जिसकी नींव ऋग्वेद और अथर्ववेद जैसे ग्रंथों में पाई जाती है। पृथ्वी माता है और ओजोन उसका सुरक्षात्मक आँचल। इसे सुरक्षित रखना केवल वैज्ञानिक जिम्मेदारी ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कर्तव्य भी है।
अगर पश्चिम का मानव वेदों के अनुकूल व्यवहार करता तो ओजोन परत क्षरण जैसी समस्या उत्पन्न ही नहीं होती। लेकिन भौतिकता एवं आधुनिकता के उपजी धन लिप्सा के कारण वह प्रकृति के अंधाधुंध दोहन कर रहा है और समूची पृथ्वी को संकट में डाल रहा है। जिसके परिणाम भविष्य में हाहाकारी एवं भयानक होंगे, जो मानवता को नष्ट कर सकते हैं।

