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सनातन धर्म/ज्ञान/संस्कृति/ग्रन्थ परम्परा में हिन्दु (हिन्दू) शब्द का प्रयोग और अवधारणा

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU

प्रश्न उठता है कि आर्य, वैदिक और सनातनी शब्द शास्त्रसम्मत और परम्परा प्राप्त होने पर भी क्या हिन्दु या हिन्दू शब्द भी शास्त्रसम्मत और परम्पराप्राप्त है? अधिकांश बुद्धिजीवियों की धारणा तो यही है कि हिन्दू – नाम मुसलमानों का रक्खा हुआ है, जो कि चोर आदि हीनता का वाचक है।

परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि मुहम्मद और ईसा से भी सैकड़ों वर्ष पूर्व हिन्दु और हिन्दू – शब्द का प्रयोग सौम्य, सुन्दर, सुशोभित, शीलनिधि, दमशील और दुष्टदलनमें दक्ष अर्थोंमें प्रयुक्त और प्रचलित था। सिकन्दर ने भारत में आकर अपने मन्त्री से हिन्दूकुश (हिन्दूकूट) पर्वत के दर्शन की इच्छा व्यक्त की थी। पारसियों के धर्मग्रन्थ शातीर में हिन्दूशब्दका उल्लेख है। अवेस्ता में हजारों वैदिक शब्द पाये जाते हैं। सिकन्दर से भी सैकड़ों वर्ष पूर्वका यह ग्रन्थ है। उसमें हिन्दू शब्दका प्रयोग है। बलख नगर का नाम पूर्वकाल में हिन्दवार था।

‘स’ के स्थानपर ‘ह’ का प्रयोग प्रसिद्ध है। सप्तको हप्त, सरस्वती को हरहवती, सरित् को हरित्, केसरी को केहरी, असुरको अहुर कहने की विधा और प्रथा है।

गया है-भविष्यपुराण में हिन्दुस्थान को सिन्धुस्थान आयौँ का राष्ट्र कहा

“सिन्धुस्थानमिति ज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम्।”

कालिकापुराण और शार्ङ्गधरपद्धति के अनुसार वेदमार्ग का अनुसरण करनेवाले हिन्दु मान्य हैं –

बलिना कलिनाऽऽच्छन्ने धर्मे कवलितौ कलौ। यवनैरवनिः क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन् ।। कालेन बलिना नूनमधर्मकलिते कलौ। यवनैर्घोरमाक्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन् ।। (कालिकापुराण)

यवनैरवनिः क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यमाविशन्। बलिना वेदमार्गोऽयं कलिना कवलीकृतः ।।

(शार्ङ्गघरपद्धति) “कालबली के कुचक्र के कारण कलि में अधर्म से वैदिक धर्मक आच्छन्त्र हो जाने पर तथा घोर आक्रान्ता यवनों से भारतके विविध भूभाग उत्पीडित हो जाने पर हिन्दू विन्ध्यपर्वत चले गये।।”

हिमालय का प्रथम अक्षर ‘ह’ है। इन्दुसरोवर (कुमारी अन्तरीप) के प्रारम्भके दो अक्षर ‘इन्दु’ है। ह् + इन्दु हिन्दु होता है।

बृहस्पति आगम के अनुसार हिमालयसे इन्दुसरोवरतकका देवनिर्मित भूभाग हिन्दुस्थान कहा जाता है। इसमें परम्परा से निवास करनेवाले और उनके वंशधर हिन्दु कहे जाते हैं –

हिमालयं समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम् । तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ।। (बृहस्पति – आगम)

“. ‘हि’ शब्दोपलक्षित हिमालय समझना चाहिये। ‘न्दु’ -शब्दोपलक्षित कुमारी अन्तरीप इन्दुसरोवर कन्याकुमारी समझना चाहिये। हिमालय से कुमारी अन्तरीप पर्यन्त देव विनिर्मित भूभाग को हिन्दुस्थान कहते हैं।।”

आसमुद्राच्च यत् पूर्वादासमुद्राच्च पश्चिमात् । हिमाद्रिविन्ध्ययोर्मध्यमार्यावर्त प्रचक्षते ।। (महाभारत – आश्वमेधिकपर्व ९२. दाक्षि.)
“पूर्व में समुद्र से लेकर पश्चिम में समुद्रपर्यन्त तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वतपर्यन्त आर्यावर्त कहा जाता है।।”

वृद्धस्मृति के अनुसार हिंसा से दुःखित होनेवाला, सदाचरण तत्पर (वर्णोचित आचरण सम्पन्न), वेद-गोवंश और देवप्रतिमा सेवी हिन्दू समझने योग्य है-

हिंसया दूयते यश्च सदाचारतत्परः । वेदगोप्रतिमासेवी स हिन्दुमुखशब्दभाक् ।। (वृद्धस्मृति)

प्रथमखण्ड ५.३६ में भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व ‘सप्तसिन्धुस्तथैव च । सप्तहिन्दुर्यावनी च हिन्दु – शब्द का प्रयोग किया गया है। पश्चिमी देशों में एकमात्र इसी मार्ग से जाने के कारण भारत हिन्द कहा जाने लगा और भारतीय हिन्दु या हिन्दू – कहलाने लगे। स्वतन्त्रता के पूर्वतक पारस, ईरान, तुर्की, ईराक, अफगानिस्तान और अमरीकादि में भारत को ‘हिन्द’ और भारतीयों को ‘हिन्दू’ कहा जाता था।

अद्भुतकोष के अनुसार ‘हिन्दु’ और ‘हिन्दू’ दोनों शब्द पुँल्लिङ्ग हैं। दुष्टों का दमन करनेवाले ‘हिन्दु’ और ‘हिन्दू’ कहे जाते हैं। ‘सुन्दररूप से सुशोभित और दैत्यों के दमन में दक्ष’ – इन दोनों अथर्थों में भी इन शब्दों का प्रयोग होता है।

“हिन्दु – हिन्दूश्च पुंसि दुष्टानां च विघर्षणे। रूपशालिनि दैत्यारौ….।।”

हेमन्तकविकोषके अनुसार “हिन्दुर्हि नारायणादिदेवताभक्तः”-“हिन्दु उसे कहा जाता है, जो कि परम्परा से नारायणादि देवता का भक्त हो।।”

मेरुतन्त्र – प्रकाश २३ के अनुसार “हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।” – “हे प्रिये! जो हीनाचरणको निन्द्य समझकर उसका परित्याग करे, वह हिन्दु कहलाता है।”

शब्दकल्पद्रुमकोषके अनुसार “हीनं दूषयति इति हिन्दू”, “पृषोदरादित्वात् साधुजातिविशेषः “- “हीनताविनिर्मुक्त साधुजाति-विशेष हिन्दु है।”

पारिजातहरण नाटक के अनुसार -“हिनस्ति तपसा पापान् दैहिकान् दुष्टमानसान् । हेतिभिः शत्रुवर्ग च स हिन्दुरभिधीयते ।।”

“जो अपनी तपस्या से दैहिक पापों तथा चित्त को दूषित करनेवाले दोषों का नाश करता है तथा जो शस्त्रों से शत्रु समुदाय का भी नाश करता है, वह हिन्दू कहलाता है।।” रामकोष के अनुसार –

“हिन्दुर्दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषकः । सद्धर्मपालको विद्वान् श्रौतधर्मपरायणः ।।” “हिन्दू दुर्जन नहीं होता, न अनार्य होता है, न निन्दक ही होता है। जो सद्धर्मपालक, विद्वान् और श्रौतधर्म परायण है, वह हिन्दू है।।”

माधवदिग्विजय के अनुसार सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध और सिक्खादिमें अनुगत लक्षणके अनुसार ओङ्कारको मूलमन्त्र माननेवाला, पुनर्जन्ममें दृढ आस्था रखनेवाला, गोभक्त और भारतीय मूलके सत्पुरुष द्वारा प्रवर्तित पथ का अनुगमन करनेवाला तथा हिंसा को निन्द्य माननेवाला हिन्दू कहने योग्य है। –

ओङ्कारमूलमन्त्राढ्यः पुनर्जन्मदृढाशयः । गोभक्तो भारतगुरुर्हिन्दुहिंसनदूषकः ।।

वीरसावरकर के शब्दों में सिन्धुनदी से लेकर समुद्रपर्यन्त भारतभूमि जिसकी पैतृक सम्पत्ति और पवित्र भूमि हो, वही हिन्दु है-

आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका।

पितृभूः पुण्यभूश्चैव सवै हिन्दुरिति स्मृतः ।।

श्रीलोकमान्यतिलक के शब्दों में हिन्दुधर्म का लक्षण इस प्रकार है-

प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु

नियमानामनेकता। उपास्यानामनियमो हिन्दुधर्मस्य लक्षणम् ।।

“वेदों में प्रामाण्यबुद्धि, नियमों में देश, काल, व्यक्तिभेद से अनेकता, सर्वेश्वर तथा उनके उत्पत्ति, स्थिति, संहृति, तिरोधान और अनुग्रह संज्ञक पञ्चकृत्यनिर्वाहक हिरण्यगर्भात्मक सूर्य, विष्णु, शिव, शक्ति तथा गणपति एवम् इनके शास्त्रसम्मत विविध अवतारको उपास्यरूपसे प्रस्तुत करना – हिन्दुधर्म का लक्षण है।।”

उक्त रीति से –

“श्रुत्यादि प्रोक्तानि सर्वाणि दूषणानि हिनस्तीति हिन्दुः”

“श्रुति – स्मृति- पुराण इतिहास में निरूपित सर्व दूषणों का जो हनन करे, वह हिन्दु है।”

श्रीविनोबाभावे के अनुसार-

यो वर्णाश्रमनिष्ठावान् गोभक्तः श्रुतिमातृकः । मूर्ति च नावजानाति सर्वधर्मसमादरः ।। उत्प्रेक्षते पुनर्जन्म तस्मान्मोक्षणमीहते। भूतानुकूल्यं भजते स वै हिन्दुरिति स्मृतः ।।

हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरितः ।।

“जो वर्षों और आश्रमों की व्यवस्था में आस्था रखनेवाला,

गोभक्त, श्रुतियों का समादर करनेवाला, सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वर के विविध अवतारोंमें आस्थान्वित मूर्तिपूजक है, श्रौतस्मार्त तथा इनके अविरुद्ध सर्वधर्मों के प्रति जिसके हृदयमें समादर है, जो पुनर्जन्म को मानता और उससे मुक्त होनेका प्रयत्न करता है और जो सदा सब प्राणियों के अनूकूल वर्ताव करता है, वही हिन्दु माना गया है। हिंसा से उसका चित्त दुःखी होता है, अतः उसे हिन्दु कहा गया है।।”

सनातन शैली में हिन्दु की परिभाषा इस प्रकार है-

“श्रुतिस्मृत्यादिशास्त्रेषु प्रामाण्यबुद्धिमवलम्ब्य श्रुत्यादिप्रोक्ते धर्मे विश्वासं निष्ठां च यः करोति स एव वास्तव हिन्दुपदवाच्यः” (स्वामी – श्रीहरिहरानन्दसरस्वती ‘करपात्रीजी’)

“श्रुति – स्मृत्यादि शास्त्रों में प्रामाण्यबुद्धि का आश्रय लेकर उनमें कहे हुए धर्म में जो विश्वास और निष्ठा करता है, वही वास्तव में हिन्दु कहने योग्य है।।”

‘ग्यासलुगात’ आदि में विद्वेषवश हिन्दुका अर्थ गुलाम, चोर, काफिर किया गया है। शरीर का अर्थ उपद्रवी, देवका अर्थ राक्षस, रामका अर्थ गुलाम, आर्यका अर्थ अश्व गर्दभादि शाला तथा अश्वादिका हीनाङ्ग किया गया है और संस्कृतभाषा को जिन्नभाषा कहा गया है। जबकि अरबी कोषमें हिन्दुका अर्थ खालिस अर्थात् शुद्ध होता है, न कि चोर आदि मलिन – निकृष्ट। यहूदियों के मतमें हिन्दू का अर्थ शक्तिशाली वीर पुरुष होता है।

देहबाह्य वस्तुओं को अनात्मा समझकर, नीतिसम्मत जीवन-यापनकी लोकसम्मत स्वस्थविधा का नाम चार्वाकदृष्टि से हिन्दुधर्म है।

देह के अनात्मत्व का निश्चयकर, संयमशील होकर विज्ञानभावित शून्यकल्प मनःस्थिति का नाम बौद्धदृष्टि से हिन्दुधर्म है ।

देहातिरिक्त आत्मा की सूक्ष्मता का निश्चयकर तपोमय जीवन जीनेकी विचित्र विधाका नाम जैनदृष्टि से हिन्दुधर्म है ।

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साधर्म्य-वैधर्म्य और भावाभाव के विवेक के अमोघ प्रभाव से दुःखविमुक्त होने की नीति (न्याय) सम्मत वैशेषिक विधा सनातन हिन्दुधर्म है ।

प्रकृति तथा प्राकृत दृश्यप्रपञ्च से अतीत पुरुष के अधिगमके अविरुद्ध और अनुकूल जीवन की स्वस्थविधा साङ्ख्यसम्मत सनातन हिन्दुधर्म है ।

क्लेशप्रद और क्लेशसंज्ञक अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश से, शुभाशुभ कर्मोंसे, सुख-दुःखरूप विपाक (फल) से और शुभाशुभ संस्काररूप आशयसे विरक्त मन को क्लेश-कर्म-विपाक – आशयसे असंस्पृष्ट पुरुषविशेषरूप पुरुषोत्तमकी उपासनाके अमोघ प्रभावसे प्रकृतिसारूप्यविनिर्मुक्त मोक्षोपयुक्त बनाने का सुयोग योगदृष्टि से सनातन हिन्दुधर्म है ।

तद्वत् देहेन्द्रियप्राणान्तःकरण के शोधक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार तथा धारणा, ध्यान और समाधिरूप अष्टाङ्गयोग के सेवन से जीवन को काम, क्रोध, लोभ की दासता से विमुक्त, शुद्ध, सन्तुष्ट, संयत, स्वस्थ, शान्त और विवेकयुक्त बनाने की स्वस्थविधा का नाम हिन्दुधर्म है ।

तद्वत् साकार – निराकार, सगुण-निर्गुण और चिज्जड के विवेकसे मण्डित पुरुषसारूप्य सम्पन्न जीवनकी उज्ज्वल संज्ञा हिन्दुधर्म है।

दिव्याचरण और यज्ञादि के अनुष्ठानसे अभिलषित सुख की अभिव्यक्ति की अनुपम मीमांसा का नाम वैदिक धर्म है ।

वेदविहित यज्ञादिके अनुष्ठानसे जीवन को दिव्य तथा दुःखसंयोग विहीन बनाने की स्वस्थविधा मीमांसा दृ‌ष्टि से सनातन हिन्दुधर्म है ।

नीति, प्रीति, स्वार्थ और परमार्थके सामञ्जस्यसे सम्पन्न दिव्य जीवन की स्वस्थ विधा हिन्दु धर्म है।

सत्सङ्ग, संयम, स्वाध्याय, यज्ञ, तप, व्रत और जपादि के द्वारा लौकिक, भौतिक और प्राकृत मन में अलौकिकता, अभौतिकता और अप्राकृतता का आधानकर उसे अद्वय प्रत्यगात्मस्वरूप सच्चिदानन्दमें प्रतिष्ठित करने का चरम सिद्धान्त वेदान्तसम्मत हिन्दुधर्म है।

५. भारतका ऋग्वेदसम्मत नाम ‘सप्तसिन्धु’, ‘सिन्धु’ अर्थात् ‘हिन्दु’

भारतका नाम ऋग्वेदमें ‘सप्तसिन्धु’ या संक्षिप्त नाम ‘सिन्धु’ आया है, न कि ‘आर्यावर्त’ या ‘भारतवर्ष’। वेदोंमें ‘सप्तसिन्धवः’ देशके अतिरिक्त किसी देश का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। सनातनप्रसिद्धि के अनुसार वे सातों नदियाँ अखण्ड भारत को द्योतित करती हैं-

“गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ! नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन् सन्निद्धिं कुरु ।। पुष्कराद्यानि तीर्थानि गङ्गाद्याः सरितस्तथा। आगच्छन्तु महाभागाः स्नानकाले सदा मम।।” (नारदपुराण पूर्व० २७.३३,३४)

“हे गङ्गे, यमुने, गोदावरि, सरस्वति, नर्मदे, सिन्धु तथा कावेरि ! इस जल में सन्निहित हो।।”

“पुष्कर आदि तीर्थ और गङ्गादि परम सौभाग्यशालिनी सरिताएँ सदा मेरे स्नानकाल में यहाँ पधारें।।”

इनमें गङ्गा, यमुना, सरस्वती ये तीन पूर्वोत्तर भारत की नदियाँ हैं। ‘गोदावरी’ दक्षिण और पश्चिम भारत की नदी है। ‘नर्मदा’ मध्य और पश्चिम भारत की नदी है। ‘सिन्धु’ पश्चिमोत्तर भारत की नदी है। ‘कावेरी’ दक्षिण भारत की नदी है।
पश्चिमी पञ्जाब में स्थित ‘सिन्धु’ नदी प्राचीन काल में हमारी स्वाभाविक सीमा थी। सिन्धु नदी और कराँचीका सिन्धु (समुद्र) हमारी जलीय सीमा के सनातन मानबिन्दु हैं। इन पर भारतका आधिपत्य अनिवार्य है। ‘सप्तसिन्धु’ को ‘हप्तहिन्दु’, तद्वत् ‘सिन्दु’ को हिन्दु – कहने की वैदिक विधा है। वर्णमालामें श, ष, स और ह का साहचर्य है। ‘सेर्हाषिच्च’ (पाणिनीय ३.४.८७) सूत्रानुसार ‘सि’ को हि तथा “ह एति ” (पाणिनीय ७.४.५२) के अनुसार’ स’ को ‘ह’ प्राप्त होता है। तदनुसार अस्मद् शब्दके सु में ‘त्वाहौ सौ’ से ‘अस्म’ के स्थानपर ‘अह’ और पुनः ‘अहम्’ बनता है। जिसका हिन्दी रूपान्तर ‘हम’ है।

कुछ महानुभावों ने स्वात, गोमती, कुमा, वितस्ता, चन्द्रभागा, इरावती और सिन्धुको भी सप्तसिन्धु या हप्तहिन्दु तथा हप्तहिन्द माना है।

वस्तुतः विशालपर्वत हेमकूट ही कैलास नाम से प्रसिद्ध है। वहीं कुबेरजी गुह्यकोंके साथ सानन्द निवास करते हैं। कैलाससे उत्तर मैनाक है। उससे भी उत्तर दिव्य तथा महान् मणिमय पर्वत हिरण्यशृङ्ग है। उसके सन्निकट विशाल, दिव्य, उज्ज्वल तथा काञ्चनमयी बालुका से सुशोभित रमणीय बिन्दुसरोवर है। वहीं भगीरथ ने गङ्गा का दर्शन करनेके लिये बहुत वर्षों तक तप किया था। वहाँ बहुत से मणिमय यूप तथा सुवर्णमय चैत्य (महल) शोभा पाते हैं। वहीं यज्ञ करके महा यशस्वी इन्द्र ने सिद्धि प्राप्त की थी। उस स्थानपर लोकस्रष्टा प्रचण्ड तेजस्वी सनातन सर्वेश्वर की विविध प्राणियों द्वारा उपासना की जाती है। नर, नारायण, ब्रह्मा, मनु तथा सदाशिव का वह निवासस्थल है। ब्रह्मलोक से उतर कर त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गङ्गा सर्व प्रथम उस बिन्दुसरोवरमें ही प्रतिष्ठित हुई थी। वहींसे उसकी सिन्धु आदि सप्त (सात) धाराएँ विभक्त हुईं हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं विस्वोकसारा- नलिनी, पावनी, सरस्वती, जम्बूनदी, सीता, गङ्गा और सिन्धु । इन सप्त धाराओं का प्रादुर्भाव सर्वेश्वर का ही अचिन्त्य, सुन्दर और दिव्य विधान है। यहाँ याज्ञिक कल्पान्तपर्यन्त यज्ञानुष्ठान के द्वारा परमेश्वर की उपासना करते हैं। इन सात धाराओं में जो सरस्वती नामवाली धारा है, वह कहीं दृश्य तथा कहीं अदृश्य है। ये सात धाराएँ त्रिभुवन में विख्यात हैं। –

“हेमकूटस्तु सुमहान् कैलासो नाम पर्वतः। यत्र वैश्रवणो राजन् गुह्यकैः सह मोदते ।। अस्त्युत्तरेण कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति। हिरण्यशृङ्गः सुमहान् दिव्यो मणिमयो गिरिः । तस्य पार्श्वे महद दिव्यं शुभ्रं काञ्चनवालुकम् ।। रम्यं बिन्दुसरो नाम यत्र राजा भगीरथः । द्रष्टुं भागीरथीं गङ्गामुवास बहुलाः समाः ।। यूपा मणिमयास्तत्र चैत्याश्चापि हिरण्मयाः । तत्रेष्ट्वा तु गतः सिद्धिं सहस्राक्षो महायशाः ।। स्रष्टा भूतपतिर्यत्र सर्वलोकैः सनातनः ।। उपासते तिग्मतेजा यत्र भूतैः समन्ततः । नरनारायणौ ब्रह्मा मनुः स्थाणुश्च पञ्चमः ।। तत्र दिव्या त्रिपथगा प्रथमं तु प्रतिष्ठिता । ब्रह्मलोकादपक्रान्ता सप्तधा प्रतिपद्यते ।। विस्वोकसारा नलिनी पावनी च सरस्वती। जम्बूनदी च सीता च गङ्गा सिन्धुश्च सप्तमी ।। अचिन्त्या दिव्यसंकाशा प्रभोरेषैव संविधिः । उपासते यत्र सत्रं सहस्रयुगपर्यये ।। दृश्यादृश्या च भवति तत्र तत्र सरस्वती।

एता दिव्याः सप्त गङ्गास्त्रिषु लोकेषु विश्रुताः ।।” (महाभारत – भीष्मपर्व ६. ४१ – ५०)

उक्त रीति से सप्त गङ्गा में सिन्धु भी परिगणित होने के कारण सप्त गङ्गा को सप्त सिन्धु कहना भी युक्त है।

शयास को ह – कहनेकी विधा शास्त्रसम्मत है। ‘श्रीश्च’ (यजुर्वेद ३१.२२), ‘हीश्च’ (कृष्णयजुर्वेद तै. ३१.१), ‘शिरासन्धिसन्निपाते रोमावर्तोऽधिपतिः’ (सुश्रुत ६.७१), ‘हिरालोहितवाससः’ (अथर्व ५.१७.१), ‘सरस्वति ‘(ऋक् १०.७५.७), हरस्वती’ (ऋक् २.२३. ६), ‘अमूर्या यन्ति योषितो हिरा : / शिरा : लोहितवाससः’ आदि उदाहरणोंके अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है। “सरितो हरितो भवन्ति, सरस्वत्यो हरस्वत्यः” (निघण्टु १.१३) के अनुशीलनसे यह तथ्य सिद्ध है कि ‘सरितः’ के सदृश ही ‘हरितः’ भी नदीका नाम मान्य है। यथा-‘सरिते’ (ऋक् – परिशिष्ट), ‘हरितः’ (अथर्व १३.२.२५), ‘हरितो न रंह्याः’ (अथर्ववेद २०.३०.४), ‘यं वहन्ति हरितः सप्त’ (अथर्ववेद १३.२.२५) के अनुसार ‘हरितः’ और ‘सरितः’ में अर्थभेद नहीं है।

होता है। उक्तरीति से सिन्धु के तुल्य हिन्दु भारत का प्राचीन नाम सिद्ध ईसामसीह को ईसामहीह तथा पैगम्बर मूसा को मूहा कहने की प्रथा वैदेशिकों के यहाँ नहीं है।

इन्दु का अर्थ चन्द्र है। अत एव वाल्मीकीय रामायण में सिन्धुनदी का नाम इन्दुमती आया है। सिन् का अर्थ इन्दु है। ‘सिन्’ – धुः, सिन्धुः का अर्थ चन्द्रधारक है। समुद्रमन्थन से चन्द्रमा का प्रादुर्भाव और चन्द्रदर्शन से समुद्रका उल्लास तथा चन्द्रकला की शीतलता आदि हेतुओं से यह तथ्य सिद्ध है। सिन् का अर्थ चन्द्र होनेके कारण ही सिनी का अर्थ चन्द्रकला तथा अमावास्या का नाम सिनीवाली है। ‘सिनिवालि ! पृथुष्टके’ (ऋक् २.३२.६), ‘तस्मै हविः सिनीवाल्यै जुहोतन ‘ (ऋक् २.३२.७), ‘या सिनीवाली या राका’ (ऋक् २.३२.८) आदि श्रुतियों के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है।

उक्त रीति से सिन्धु के तुल्य इन्दु से भी इस देश का नाम हिन्दु होना स्वाभाविक है। भूतभावन शिव इन्दु और सिन्धुसंज्ञक गङ्गा को शिर पर धारण करते हैं। अतः शिवाराधक आर्यों का यह देश सिन्धु या हिन्दु है। ‘धु’ के तुल्य ‘दु’ का अर्थ धारक है। अतः सिन्धु और हिन्दु में साम्य है। सिन् और हिन् समानार्थक है। हिङ्कार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन संज्ञक सप्तविध या हिङ्कार, प्रस्ताव, उदीथ, प्रतिहार और निधन संज्ञक पञ्चविध साममें हिङ्काररूप प्रथम सामगत हिन् -से सिन् का साम्य है। सिन् सोम है। इन्दु संज्ञक सोमात्मक चन्द्रकी उज्ज्वल स्फूर्ति सोमलता सोमयज्ञ के सम्पादन में मुख्य घटक है। अभिप्राय यह है कि “न असामा यज्ञोऽस्ति ” (शतपथब्राह्मण १.४.३.१-२) के अनुसार सामविरहित यज्ञ नहीं। तथा ‘हिङ्‌कृत्वा अन्वाह… न वा अ हिं कृत्वा साम गीयते ‘(शतपथब्राह्मण १.४.३.१-२) के अनुसार हिन्- विरहित साम नहीं। अतः सिन्- संज्ञक हिन् को धारण करनेवाली अर्थात् यज्ञानुष्ठान करनेवाली याज्ञिक जाति सिन्धु, हिन्धु या हिन्दु नाम से प्रसिद्ध हुई। काव्यप्रकाशादिके अनुसार प्राणप्रद-जीवनाधायक धर्म का नाम जाति है।

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विवक्षावशात् यज्ञधारक या गोधारक का नाम हिन्दु है। ‘हिं’ -या ‘हिन्’ का उच्चारण करके सामवेद का उच्चारण सम्भव है। सामोच्चारण के बिना यज्ञानुष्ठान असम्भव है। अत एव हिङ्कार यज्ञका प्राण अर्थात् धारक कहा गया है –

“हिं – कृत्वा अन्वाह, न असामा यज्ञोस्ति इति आहुः। न वा अ- हिङ्‌कृत्वा साम गीयते। प्राणो वै हिङ्कारः ।” (शतपथब्राह्मण १.४.३.१,२)

हिङ्कार – गोवंश का द्योतक है। गाय यज्ञ धारक होने से पृथिवी को धारण करने वाली है। वह अपने वत्स के पास हिङ्कार करती हुई शीघ्र आ जाती है। वह दुग्ध, दधि, मक्खन तथा घृतादि निधि के माध्यम से हमारा

पोषण और परिपालन करती है। वह अहननीया है। वह हमारी मङ्गलकामना के फलस्वरूप सदा दुग्धसे सम्पन्न रहकर हमारे उत्कर्ष में हेतु सिद्ध होती है -“हिं – कृण्वन्ती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् । दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगााय।।” (ऋक् १.१६४.२७, अथर्व. ९.१०.५)

गोग्रास, गोपूजन, गोपाष्टमी, गोलोक, गोपाल, गव्य, गोमय, गोत्र, गोष्ठी, गोधूलि, वात्सल्य आदि शब्द गोभक्ति का द्योतक है।

पृथ्वी के धारक तथा यज्ञादि के सम्पादक गोवंश, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभ तथा दानशील संज्ञक सात व्यक्तियों में गोवंश का नाम प्रथम है। –

“गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः । अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते मही।।” (स्कन्दपुराण – काशीखण्ड २.९०, माहेश्वरकुमारिकाखण्ड २.७२)

गोवंश अबध्य है –

“अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति। महच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः ।।” (महाभारत – शान्तिपर्व २६२.४७)
“. ‘अघ्न्यम्’ (ऋक् १. ३७.५), ‘नीचीनमध्न्या दुहे’ (ऋक् )१०. ५. ६०.११), ‘अघ्न्येयं सा वर्द्धतां सौभगाय’ (ऋक् १.२२.१६४.२७) – ‘न मारने योग्य आयी हुई यह गाय हमारे महान् सौभाग्य के लिए दूध बढ़ावे’ आदि वचनों के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि श्रुतियों में गौओं को अघ्न्या अवध्य कहा गया है, अतः कौन उनके वध का विचार करेगा ? जो पुरुष गाय और बैलों का वध करता है, वह महान् पाप करता है।। ” गोसूक्त (अथर्व. ४.२१)

माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः । प्रनु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ठ ।। (ऋक्० ८.१०१.१, पा.गृ.सू. १.३.२७) (अथर्ववेद ४.२१.१)

“गाय रुद्रोंकी माता, वसुओंकी पुत्री, अदिति पुत्रों की, बहिन और घृतरूप अमृत की निधि (खजाना) है। प्रत्येक विचारशील पुरुष को मैंने यही कहा है कि निरपराध एवं अवध्य गौका वध मत करो।। ” आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयन्त्वस्मे। प्रजावतीः पुरुरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः ।। (अथर्ववेद ४.२१.२)

“गौओं ने हमारे यहाँ आकर हमारा कल्याण किया है। ये हमारी गोशाला में सुख से बैठें और उसे अपने शब्दोंसे गुंजा दें। ये विविध रङ्गों की गौएँ अनेक प्रकारके बछड़े बछड़ियाँ जनें तथा इन्द्रसंज्ञक परमात्माके यजनके लिये उषःकालसे पहले दूध देनेवाली हों।” न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति । देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह ।। (अथर्ववेद ४.२१-३)

“वे गौएँ न तो नष्ट हों, न उन्हें चोर चुरा ले जाय, न शत्रु ही कष्ट पहुँचाये। जिन गौओं की सहायता से उनका स्वामी देवताओं का यजन करने तथा दान देनेमें समर्थ होता है, उनके साथ वह चिरकाल तक सुरक्षित रहे।।”

गावो भगो गाव इन्द्रो म इच्छाद्गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः । इमा या गावः स जनास इन्द्र इच्छामि हृदा मनसा चिदिन्द्रम् ।। (अथर्ववेद ४.२१.४)

“गौएँ हमारा मुख्य धन हों, इन्द्र हमें गोधन प्रदान करें। यज्ञों की प्रधान वस्तु सोमरस के साथ मिलकर गौओं का दूध ही उनका नैवेद्य बने।

जिसके पास ये गौएँ हैं, वह तो एक प्रकार से इन्द्र ही है। मैं अपने श्रद्धायुक्त मनसे गव्य पदार्थों के द्वारा इन्द्रसंज्ञक प्रभु का यजन करना चाहता हूँ।।”

यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम्। भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद् वो वय उच्यते सभासु ।। (अथर्ववेद ४.२१.५)

“गौओ ! तुम कृश शरीरवाले व्यक्ति को दृष्ट पुष्ट कर देती हो तथा तेजोहीन को दर्शनीय बना देती हो। इतना ही नहीं, तुम अपने मङ्गलमय शब्दसे हमारे घरोंको मङ्गलमय बना देती हो। अत एव सभाओं में तुम्हारे ही यशका गान होता है।।”

प्रजावतीः सूयवसे रुशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः । मा व स्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु ।। (अथर्ववेद ४.२१.६)

“गौओ ! तुम बहुत-से बच्चे जनो। चरनेके लिए तुम्हें सुन्दर चारा प्राप्त हो। सुन्दर जलाशयमें तुम शुद्ध जल पीती रहो। तुम चोरों तथा दुष्ट हिंसक जीवों के चंगुल में न फँसो। रुद्रका शस्त्र तुम्हारी सब ओर से रक्षा करे।।”

गोवर्णनपरक “हिं – कृण्वन्ती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात्। दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय।।” (ऋक् १.१६४.२७, अथर्व. ९.१०.५) इस मन्त्रमें पूर्वार्द्धका आदिम “हिं – कृण्वन्ती” में प्रयुक्त ‘हिं’ और उत्तरार्द्ध “दुहामश्विभ्यां पयः” का आदिम ‘दु’ अक्षर मिलकर हिन्दु होता है। जिसका अर्थ गोभक्त होता है। दूरस्थित अक्षर या पद भी अर्थसम्बन्धसे एकत्र माना जाता है। यह आर्ष निरूपित (आप्तप्रतिपादित) शास्त्रसम्मत सिद्धान्त है-

यस्य येनार्थसम्बन्धो दूरस्थस्यापि तस्य सः। अर्थतो ह्यसमर्थानामानन्तर्यमकारणम् ।। (न्यायदर्शन भाष्य १.२.९)

असत्यां हि आकाङ्‌क्षायां सन्निधानमकारणं भवति।
यथा भार्या राज्ञः पुरुषो देवदत्तस्य ।। (मीमांसादर्शन – शाबरभाष्य ६.४.३३)

इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि “सत्यां हि आकाङ्‌क्षायां असन्निधानमपि सम्बन्धकारणं भवति।” असत्रिधान भी सम्बन्ध का कारण होता है।” “आका‌ङ्क्षा रहनेपर

माण्डूक्योपनिषत् के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि ‘आप्तेरादिमत्त्वात्, उत्कर्षत्वाद् उभयत्वाद् वा, मितेः’ (१ -११) के क्रमशः प्रथमाक्षर अ, उ और म् के योगसे ओम् की सिद्धि होती है।

बृहदारण्यकोपनिषत् ५.३.१ के अनुसार ‘हरन्ति, ददति, यम्’ गत ‘ह, ‘द ‘और ‘य’ के योगसे हृदय शब्दकी संरचना मान्य है। आहरण, दान तथा गत्यर्थक हृदय शब्द है। इन्द्रियाँ वीणा, मोदकादि अभिव्यञ्जक संस्थानगत शब्दादि विषयों का आहरणकर हृत्पुण्डरीकमें सन्निहित बुद्धि को समर्पित करती हैं। बुद्धि शब्दादि विषयक ज्ञानको अपने प्रेरक तथा प्रकाशक भोक्ता को प्रदान करती है। छान्दोग्योपनिषत् ८.३.४,५ के अनुसार ‘तस्य ह वा एतस्य ब्रह्मणो नाम सत्यमिति। तानि ह वा एतानि त्रीण्यक्षराणि सतीयमिति यद्यत्सत्तदमृतमथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यहां तेनोभे यच्छति, यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यमहरहर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ।’ ब्रह्मात्मतत्त्व का नाम सत्य है। ‘स’, ‘ति’, ‘यम्’ के योग से सत्यम् की सिद्धि मान्य है। इनमें ‘सत्’ अमृत है। ‘ति’ – मर्त्य है। ‘यम्’ – दोनों का नियामक है। छान्दोग्योपनिषत् ८.३.३ के अनुसार ‘स वा एष आत्मा हृदि तस्यैतदेव निरुक्तं हृदयमिति, तस्माद्धृदयमहरहर्वा एवंवित्स्वर्ग लोकमेति।’ हृदि अयम्’ गत ‘ह’, ‘द’ और ‘य’ के योग से हृदय शब्द की संरचना मान्य है। हृदयाकाश में चिदाकाशस्वरूप परमात्मा की प्रत्यगात्मरूप से स्फूर्ति के कारण परमात्मा की हृदय संज्ञा है।

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‘अयं हृदि स्थितः साक्षी सर्वेषामविशेषतः । तेनायं हृदयं प्रोक्तः शिवः संसारमोचकः’ (पञ्चब्रह्मोपनिषत् ३६) के अनुशीलन से भी इसी तथ्यकी पुष्टि होती है। तद्वत् बृहदारण्यकोपनिषत् ५. २. १-३ के अनुसार ‘दाम्यत, दत्त, दयध्वम्’ गत प्रथमाक्षर दकारत्रय के योगसे द. द. द. की निष्पत्ति मान्य है। जिससे दम (मनोनिग्रह, इन्द्रिय संयम), दान और दया रूप शील त्रय की सिद्धि सम्भव है। दमसे देवगत भोगलिप्सा का, दया से दैत्यगत निर्दयता का शमन होता है।
लोक में भाजपा (भारतीय जनता पार्टी), सपा (समाजवादी पाटी), बसपा (बहुजन समाज पार्टी), विहिप (विश्व हिन्दू परिषद्) आदि सहस्रों शब्द प्रसिद्ध हैं।
पी. एम. (प्राइम मिनिस्टर), सी. एम. (चीफ मिनिष्टर) आदि संक्षिप्त शब्दों की अङ्ग्रेजी में भरमार है।

न्यूज (News) में सन्निहित प्रथमाक्षरके योगसे निष्पन्न शब्दका अर्थ ‘चतुर्दिक् (क्रमशः नोर्थ, ईष्ट, वेस्ट, साउथ उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण) का वृत्तान्त’ होता है।

हिन्दी – भाषा तथा हिन्दु – जाति, यह नाम हिन्दु देश के अनुरूप लोक में अवान्तरभेद और समष्टि समुल्लेख दोनों विधा प्रशस्त है। स्थावर – जङ्गम अवान्तर भेद हैं और प्राणी समष्टि समुल्लेख है। तरु, लता, गुल्मादि अवान्तर भेद हैं और उद्भिज्जसंज्ञक स्थावर समष्टि समुल्लेख है। स्वेदज, अण्डज, जरायुज अवान्तर भेद हैं और जङ्गम समष्टि उल्लेख है। तद्वत् क्रिश्चियन, मुसलमान, पारसी, हिन्दु अवान्तर भेद हैं और मनुष्य समष्टि उल्लेख है। वैदिक, अवैदिक, सिक्ख, जैन, बौद्ध, ब्रह्मणादि अवान्तर भेद हैं और हिन्दु समष्टि समुल्लेख है।

सामान्य से विशेष के अस्तित्व की सिद्धि होती है और विशेष से सामान्य की उपयोगिता में वृद्धि होती है। सुवर्ण से सुवर्णाभूषण के अस्तित्व की सिद्धि होती है और कटक, मुकुट, कुणडलादि आभूषणों से सुवर्ण सामान्य की उपयोगिता होती है। तद्वत् हिन्दुसे सिक्ख, जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मणादि के अस्तित्व की सिद्धि होती है और सिक्ख, जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मणादि से हिन्दु की उपयोगिता होती है।

सर्ववेदमय आत्मयोगी सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की प्रेरणा के अनुरूप उनके परम उद्दीप्त नाभिकमल में कल्पान्तकाल से सन्निहित प्रजाकी पूर्व कल्पानुरूप रचना करनेवाले श्रीमन्नारायणके नाभिकमल से समुद्भूत हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्मा सबके पूर्वज हैं और श्रीमन्नारायण उनके भी पूर्व। पद्मनाभ समुद्भूत ब्रह्मा स्वयम्भू हैं और श्रीमन्नारायण स्वयम्। उन सनातनधर्मरक्षक श्रीमन्नारायणको नमस्कार है-
तस्य नाभेरभूत्पद्यं सहस्त्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायाँको यत्र स्वयमभूत्स्वराट्।।

सोऽनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये ।
लोकसंस्था यथापूर्व निर्ममे संस्थया स्वया ।। (श्रीमद्भागवत ३. २०. १६,१७)

“यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम्।” (श्रीमद्भागवत ३.१०.१३)

“सर्ववेदमयेनेदमात्मनाऽऽत्माऽऽत्मयोनिना ।
प्रजाः सृज यथापूर्व याश्च मय्यनुशेरते।।” (श्रीमद्भागवत ३.९.४३)

“अन्तर्हिते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः। प्रजाः ससर्ज कतिधा दैहिकीर्मानसीर्विभुः ।।” (श्रीमद्भागवत ३.१०.१)

“तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा। आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्म पातुमर्हति।।” (श्रीमद्भागवत ३.१२.३२)

“त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव। धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ।।” (श्रीमद्भागवत ३.१६.१८)

हिन्दू सबके पूर्वज हैं। विश्व के सभी मनुष्य श्रीमन्नारायणके नाभिकमलसे अभिव्यक्त ब्रह्माजी के श्रीविग्रह से प्रादुर्भूत मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष, स्वायम्भुव मनु और शतरूपादि की परम्परा में ही उत्पन्न हुए हैं।

इतरास्तु व्यजायन्त गन्धर्वांस्तुरगान् द्विजान्। गाश्च किम्पुरुषान्मत्स्यानुद्धिज्जांश्च वनस्पतीन् ।। (महाभारत – शान्तिपर्व २०७.२५)

“दक्षप्रजापति की बहुत-सी कन्याएँ हुई, जिन्होंने गन्धवों, अश्वों, पक्षियों, गाओं, किम्पुरुषों, मत्स्यों, उद्भिज्जों और वनस्पतियों को जन्म दिया।।”

अग्निदेह से, ब्रह्मवीर्य से और वरुणभावापन्न यजमान के यज्ञ से समुद्भूत आग्नेय अङ्गिरा, ब्राह्म कवि और वारुण भृगु विशेषकर अङ्गिरा और भृगु सृष्टिविस्तारक प्रजापति हैं। यह सम्पूर्ण विश्व इन्हीं की सन्तति है-

भार्गवाङ्गिरसौ लोके लोकसन्तानलक्षणौ ।।
एते हि प्रसवाः सर्वे प्रजानां पतयस्त्रयः ।

सर्व सन्तानमेतेषामिदमित्युपधारय ।। (महाभारत-अनुशासनपर्व ८५.१२६-१२७)

कर्म और शिक्षाभूमि देवदुर्लभ भारतवर्ष और अग्रज ब्राह्मणोंसे दूरीके कारण अर्थात् आचार और विचार में शिथिलता और न्यूनता के कारण क्षत्रियादि से शक, किरात, यवन और चीन आदि अन्य समुदाय की अभिव्यक्ति हुई ।

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ।। (मनुस्मृति १०.४३)
अत एव अपने पूर्वज हिन्दुओंके प्रति आस्थान्वित होना मानवमात्रका दायित्व है ।

स्वतन्त्र भारतमें लोभ, भय, द्रोह, कोरी भावुकता और भ्रमके वशीभूत जैन, बौद्ध, सिक्ख, अन्त्यजादि अपने उद्गमस्रोतसे वियुक्त होकर अपने अस्तित्व तथा आदर्शको विलुप्त कर रहे हैं और ब्राह्मणादि इनसे विहीन होकर अङ्गहीन क्षीण हो रहे हैं। सद्भावपूर्ण सम्वादके माध्यमसे भ्रम तथा भूलका निवारण और सैद्धान्तिक सामञ्जस्य आवश्यक है।

हिन्दुस्तानशब्दस्य भारतैकदेशसंज्ञात्वव्यवस्था ।

हिन्दुपदेन च हिन्दुस्तानपदेन च यदाहुरातनाः।भारतवर्ष तत् खलु नामार्द्धस्यास्य जानीयात् ॥१॥
सिन्धुनदोऽयं यद्दिशि तद्दिश्यं भारतं पूर्व्यम्।सिन्धुस्थानपदेन व्यवजहुः सिन्धुपश्चिमगाः ॥२॥
अपि पारसीकजातेरस्ति दसातीरनामके ग्रन्थे। पौरस्त्यभारतार्थं हिन्दपदं सर्वतः पूर्वम् ॥३ ॥ *ાર
+जरथुस्तस्य यदायतमस्त्यस्मिन् पञ्चषष्टितमम् (६५) ।तत्र व्यासो हिन्दुस्तानादागत उदीरितो भक्तया ।४ ॥
व्यासो नाम ब्राह्मण आयातो हिन्ददेशाद् यः । तत्सदृशो धीमानिह कश्चिन्नास्तीति तस्यार्थः ॥५ ॥
अपि च त्रिष्टिशततम आयत उक्तं पुनस्तत्र । व्यासमुनेर्वाह्नीके गमनं गस्तास्पनृपसमये ।।६ ।।
स प्रेत्यभावविषये व्यासात् संवदितुमेव गस्तास्पः । जरथुस्तमाजुहाव च धर्माचार्य स्वदेशस्थम् ॥७ ॥ गुप्ताश्वापभ्रंशो गस्तास्पः क्षितिप ईराने। व्यासात् स पुनर्जन्मनि संदेहं स्वं निराचक्रे ॥८ ॥
× गस्तास्पेन तु पृष्टस्तद्व्यवहारानुसारतो व्यासः । हिन्दुस्तानाभिजनं विज्ञपयामास चात्मानम् ।।९ ।।

इति भारतपरिचये नामधेयप्रसङ्गः समाप्तः ॥२ ॥

(यह सभी foot note reference हैं नीचे:

“वैव हिंद वाजगश्ते।” स पुनः (व्यास) सिन्धुस्थानं प्रतिगतः।

+ “अकनू विरहमने व्यास नाम, अज हिंद आमद वसदान के आकिल चुना नेस्त, जरचुस्त को

६५वीं व्यत। एको ब्राह्मणों व्यासो नाम सिन्धुस्थानादागतः । तत्सदृशो बुद्धिमान् क्वचित्रास्ति ॥६५ ॥

= चू व्यास हिदा बतख आमद। गस्तस्य जरतुस्तरा बखवाँद १६३ वीं आयत यतो व्यासः सिन्धुस्थानीयो बाढीके आगतः (ततः) गुताश्वः (ईरानभूष) जरथुस्तमाजुहाव ।

X मन मरदे अमें हिन्दी नजाई” अयमहं पुरुषः सिन्धुस्थानीयो ऽनुजातः ।)

हिन्दुस्तान शब्द भारत के एक देश मात्र की संज्ञा

आजकल के लोग हिन्दु शब्द से अथवा हिन्दुस्तान शब्द से जिस भाग को संबोधित करते हैं. वह इस भारतवर्ष का अर्थभाग मात्र ही है. ऐसा जानना चाहिये ॥१॥

सिन्धु नदी जिस दिशा में है, वह भारतवर्ष का पूर्वी भाग है। सिन्धु नदी के पश्चिम। में निवास करने वालों के द्वारा इस भाग को सिन्धु स्थान शब्द से कहा गया है ॥२॥

पारसियों के “दासातीर” नाम के ग्रन्थ में सबसे पहले पूर्वी भारत के लिए “हिन्दी शब्द का प्रयोग किया गया था ॥३॥

“जायुख” के ग्रन्थ की ६५वी आयत में श्रद्धापूर्वक लिखा गया है कि व्यास हिन्दुस्तान से आया ॥४॥

व्यास नाम का बाह्मण हिन्द देश से आया, यहाँ उसके समान बुद्धिमान् कोई नहीं था, ऐसा इस आयत (जरथुस्त्र की पैसठवी) का अर्थ है ॥५॥

इसी जरथुस्त्र की १६३वीं आयत में फिर से व्यास मुनि का गस्तास्प नाम के ईरानी राजा के समय बाहुलीक देश जाने के विषय में भी लिखा है ॥६॥

उस गुप्ताश्व (गस्तास्य) नाम के राजा ने आत्मा के संबंध में व्यास से परिचर्चा करने के लिए अपने देश के निवासी धर्माचार्य जरथुस्त्र को बुलाया ॥७ ॥

ईरान में “गुप्ताश्व” का अपभ्रंश “गस्तास्य” नाम का राजा हुआ है, जिसने व्यास से पुनर्जन्म के संबंध में अपने सन्देह का निराकरण किया ॥८ ॥

गुप्ताश्व (गस्तास्प) द्वारा पूछे जाने पर व्यास ने अपने व्यवहार के अनुसार स्वयं को हिन्दुस्तान का निवासी होना बताया ॥९॥