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युवा पीढ़ी और नशे का फ़ैलता जाल : जिम्मेदार कौन ?

आचार्य ललित मुनि

आज का युवा, जिसे देश का भविष्य कहा जाता है, वह नशे की चपेट में तेजी से फंसता जा रहा है। सिगरेट, शराब, गांजा, अफीम से लेकर सिंथेटिक ड्रग्स तक, नशे का जाल हर तरफ फैल रहा है। गली-मोहल्लों से लेकर महानगरों तक, स्कूल-कॉलेजों से लेकर सोशल मीडिया तक, नशे की लत ने युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। रोज अखबारों के पन्ने इन खबरों से भरे रहते हैं। सवाल यह है कि युवाओं के इस दलदल में फंसने पर जिम्मेदारी किसकी है? क्या यह युवाओं की अपनी कमजोरी है, या समाज, परिवार, और व्यवस्था की नाकामी?

नशा कोई नई समस्या नहीं है, लेकिन इसका स्वरूप और प्रभाव आज पहले से कहीं अधिक भयानक हो चुका है। पहले जहां नशा कुछ हद तक सामाजिक मेलजोल तक सीमित था, वहीं आज यह एक सुनियोजित धंधा बन चुका है। ड्रग्स की तस्करी, ऑनलाइन डिलीवरी, और नशे को ‘कूल’ दिखाने की प्रवृत्ति ने इसे और खतरनाक बना दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में 15-24 आयु वर्ग के बीच नशीले पदार्थों का सेवन तेजी से बढ़ रहा है। खासकर, ग्रामीण क्षेत्रों के किशोरों और युवाओं में गांजा तथा शहरी क्षेत्र के अमीरजादों में कोकीन, और सिंथेटिक ड्रग्स जैसे एमडीएमए और मेथमफेटामाइन का चलन बढ़ा है।

युवा पीढ़ी नशे की ओर क्यों आकर्षित हो रही है? क्या यह केवल उनकी जिज्ञासा है, या इसके पीछे गहरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हमें नशे की जड़ों तक जाना होगा।

आज का युवा एक ऐसे दौर में जी रहा है, जहां सामाजिक दबाव अपने चरम पर है। पढ़ाई, करियर, रिश्ते, और सामाजिक छवि बनाए रखने की होड़ ने युवाओं को तनावग्रस्त कर दिया है। इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए कई युवा नशे को एक आसान रास्ता मान लेते हैं। दोस्तों का दबाव, जिसे अंग्रेजी में ‘पीयर प्रेशर’ कहा जाता है, भी एक बड़ा कारण है। “एक बार आजमाकर देख, कुछ नहीं होगा” जैसे जुमले युवाओं को नशे की दुनिया में धकेल देते हैं।

सोशल मीडिया ने इस समस्या को और बढ़ावा दिया है। इंस्टाग्राम, टिकटॉक, और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर नशे को ग्लैमराइज करने वाली सामग्री आसानी से उपलब्ध है। रैप गाने, वेब सीरीज, और फिल्में नशे को एक ‘कूल’ जीवनशैली के रूप में पेश करती हैं। इससे युवा यह सोचने लगते हैं कि नशा करना आधुनिकता और स्वतंत्रता का प्रतीक है। लेकिन यह भूल जाते हैं कि यह स्वतंत्रता जल्द ही उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी गुलामी बन जाती है।

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परिवार किसी भी व्यक्ति का पहला स्कूल होता है। लेकिन आज के भागदौड़ भरे जीवन में परिवार का ढांचा कमजोर पड़ रहा है। माता-पिता अपने बच्चों को समय देने के बजाय उन्हें महंगे गैजेट्स और पॉकेट मनी देकर खुश रखने की कोशिश करते हैं। संयुक्त परिवारों का विघटन और एकल परिवारों का बढ़ता चलन भी इस समस्या को बढ़ा रहा है। बच्चे अपनी भावनाओं को साझा करने के लिए परिवार में कोई विश्वासपात्र नहीं पाते, और नशा उनकी इस खालीपन को भरने का जरिया बन जाता है।

हमारा शिक्षा तंत्र भी इस समस्या के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। स्कूल और कॉलेजों में नशे के दुष्परिणामों पर खुलकर बात नहीं होती। पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा और जीवन कौशल को शामिल करने की जरूरत है, लेकिन अधिकांश संस्थान केवल अकादमिक प्रदर्शन पर जोर देते हैं। नशे के खिलाफ जागरूकता अभियान भी या तो नाममात्र के होते हैं या फिर युवा उनसे कोई जुड़ाव महसूस नहीं करते।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी चिंताजनक है। वहां नशे की रोकथाम के लिए न तो संसाधन हैं और न ही जानकारी। नतीजतन, गांजा, अफीम, और सस्ती शराब जैसे नशीले पदार्थ आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी, ड्रग्स की उपलब्धता इतनी आसान हो गई है कि कोई भी व्यक्ति कुछ ही क्लिक में इन्हें मंगा सकता है।

नशे की समस्या को नियंत्रित करने में सरकार और कानून व्यवस्था की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) और पुलिस प्रशासन भले ही समय-समय पर ड्रग्स तस्करों के खिलाफ कार्रवाई करते हों, लेकिन यह कार्रवाई नाकाफ़ी साबित हो रही है। ड्रग्स की तस्करी एक अंतरराष्ट्रीय माफिया का हिस्सा है, जिसे छोटे-मोटे छापों से खत्म नहीं किया जा सकता।

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इसके अलावा, नशामुक्ति केंद्रों की स्थिति भी चिंताजनक है। देश में नशामुक्ति केंद्रों की संख्या बहुत कम है, और जो हैं, उनमें से कई में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। नशे से छुटकारा पाने की चाह रखने वाले युवाओं को उचित मार्गदर्शन और पुनर्वास की सुविधा नहीं मिल पाती। सरकार की नीतियां भी इस दिशा में अपर्याप्त हैं। नशे की रोकथाम के लिए सख्त कानून तो हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन कमजोर है।

नशे की समस्या को केवल सामाजिक या मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता; इसके आर्थिक और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। बेरोजगारी और आर्थिक तंगी भी युवाओं को नशे की ओर धकेलती है। जब युवा अपने सपनों को साकार करने में असफल होते हैं, तो वे हताशा में नशे का सहारा लेते हैं। खासकर ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में, जहां रोजगार के अवसर सीमित हैं, नशा एक सस्ता और आसान ‘नशा’ बन जाता है।

सांस्कृतिक रूप से भी, नशे को कई बार सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है। उदाहरण के लिए, कुछ समुदायों में भांग या शराब को धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों का हिस्सा माना जाता है। यह स्वीकृति युवाओं में नशे के प्रति एक उदासीन रवैया पैदा करती है।

नशे की लत केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ही नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक, और आर्थिक स्तर पर भी व्यक्ति को नष्ट कर देती है। शारीरिक रूप से, नशा लीवर, फेफड़ों, और हृदय को नुकसान पहुंचाता है। मानसिक रूप से, यह अवसाद, चिंता, और आत्महत्या की प्रवृत्ति को बढ़ाता है। सामाजिक रूप से, नशेड़ी अपने परिवार और दोस्तों से कट जाता है। आर्थिक रूप से, नशे की लत व्यक्ति को कंगाल बना देती है।

नशे का प्रभाव केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता; यह पूरे समाज को प्रभावित करता है। नशे की वजह से अपराध दर में वृद्धि होती है। चोरी, हिंसा, और ड्रग्स तस्करी जैसे अपराध नशे से सीधे तौर पर जुड़े हैं। इसके अलावा, नशे की लत परिवारों को तोड़ देती है, बच्चों का भविष्य अंधेरे में डूब जाता है, और समाज का ताना-बाना कमजोर पड़ता है।

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नशे की इस महामारी से निपटने के लिए हमें बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा। सबसे पहले, परिवारों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। माता-पिता को अपने बच्चों के साथ खुलकर बात करनी चाहिए, उनकी समस्याओं को सुनना चाहिए, और उन्हें भावनात्मक सहारा देना चाहिए।

शिक्षा तंत्र में भी सुधार की जरूरत है। स्कूलों और कॉलेजों में नशे के खिलाफ जागरूकता कार्यक्रमों को अनिवार्य करना चाहिए। इन कार्यक्रमों को रोचक और युवाओं के लिए प्रासंगिक बनाना होगा, ताकि वे इससे जुड़ाव महसूस करें।

सरकार को भी अपनी नीतियों को और सख्त करना होगा। ड्रग्स तस्करी के खिलाफ कठोर कार्रवाई, नशामुक्ति केंद्रों की संख्या और गुणवत्ता में सुधार, और नशे की रोकथाम के लिए प्रभावी अभियान चलाने की जरूरत है। इसके साथ ही, युवाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाने की दिशा में काम करना होगा।

सामाजिक स्तर पर, हमें नशे को ग्लैमराइज करने वाली संस्कृति को बदलना होगा। मीडिया, फिल्म इंडस्ट्री, और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। नशे को ‘कूल’ दिखाने के बजाय, इसके दुष्परिणामों को उजागर करने वाली कहानियां सामने लानी होंगी।

अंत में, हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि नशे से बचने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी खुद युवाओं की है। जीवन में कठिनाइयां आती हैं, लेकिन उनका सामना नशे से नहीं, बल्कि हिम्मत और सूझबूझ से करना चाहिए। युवाओं को अपनी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों में लगाना चाहिए, जैसे खेल, कला, संगीत, या सामाजिक कार्य।

युवा पीढ़ी और नशे की गिरफ्त एक जटिल समस्या है, जिसके लिए कोई एक व्यक्ति या संस्था जिम्मेदार नहीं है। यह समाज, परिवार, सरकार, और खुद युवाओं की सामूहिक जिम्मेदारी है। नशे का यह जाल तभी टूटेगा, जब हम सब मिलकर इसके खिलाफ एकजुट हों। आइए, हम अपने युवाओं को नशे की गुलामी से आजाद करें और उन्हें एक स्वस्थ, सशक्त, और सकारात्मक भविष्य की ओर ले जाएं।