आपातकाल से आत्मनिर्भर भारत तक की यात्रा

भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसा समय भी आया जब नागरिक अधिकारों को ताक पर रख दिया गया, यह हमारे लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय है, जब न लोगों को बोलने का अधिकार था, न प्रेस को कुछ लिखने की आजादी थी। सत्ता मनचाहा कर रही थी और विरोधियों को जेल में ठूंसा जा रहा था, भयावह प्रताड़ना दी जा रही है। देश का संविधान जिसकी आत्मा ‘जनता की सर्वोच्चता’ है, उसे सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की नसैनी बना लिया गया था।
ऐसा दुनिया में और कहीं नही, हमारे देश में हुआ था, जब 25 जून 1975 की रात को सारा देश सोया हुआ था, तब एक हस्ताक्षर से भारत वर्ष में करोड़ों नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिये गये और जब सुबह जागे तो पता चला कि आपातकाल लग गया है। एक बारगी तो लोगों को हठात समझ नहीं आया ये क्या हुआ। लेकिन जब होश में आए तो पता चला कि किस प्रताड़ना का नाम इमरजेंसी है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने यह कुकृत्य किया था। कांग्रेस के इस कुकृत्य के विषय में आज की पीढी को जानना आवश्यक है।
आपातकाल लगाने के पीछे कई थी जिसने इंदिरा गांधी की सत्ता को अस्थिर कर दिया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी पाते हुए, उनके लोकसभा चुनाव को निरस्त कर दिया और 6 वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया। इधर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी को लेकर विशाल छात्र आंदोलन प्रारंभ हो गया था। यह आंदोलन इंदिरा गांधी सरकार के लिए सीधी चुनौती बन गया था। तब सरकार ने कहा कि देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है इसलिए संविधान के अनुच्छेद 352 तहत आपातकाल लगाया गया।
1975 का आपातकाल यह सिद्ध करता है कि राष्ट्र से जुड़ी संवैधानिक संस्थाओं को मजबूत न किया जाए तो एक पार्टी की सत्ता एक नेता की महत्वकांक्षा सारे राष्ट्र को बंधक बना सकती है। जिस तरह इंदिरा गांधी की सत्ता लोलुपता ने राष्ट्र में लोकतंत्र को मात्र दिखावा बना दिया था।
किन्तु इस आपातकाल के कालखंड के भीतर राष्ट्र में एक नई चेतना का संचार भी हुआ, जनता में विरोध के स्वर उठने लगे, विरोध के स्वरों का दमन किया जाने लगा। अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जयप्रकाश नारायण, नानाजी देशमुख, जार्ज फ़र्नांडीज जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने जेलों में रहते हुए भी संघर्ष की लौ को बुझने नहीं दिया और जन चेतना को जगाए रखा। आखिरकार इस संघर्ष ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाया और आपातकाल थोपने वालों को राजनीतिक दंड जनता ने दिया।
आपातकाल के बाद भारत की राष्ट्रवादी चेतना और प्रखर हुई, जनता ने यह अनुभव किया कि लोकतंत्र केवल वोट डालने की प्रक्रिया मात्र नहीं है, यह एक राष्ट्र की जीवन शैली है, जिसमें राष्ट्र हित सर्वोपरि होता है। 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन, कश्मीर से धारा 370 हटाने की मांग आम जनता के बीच से उठना और अंतत; 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार का बनना, उसी राष्ट्रवादी उभार का प्रतिफ़ल है।
अब प्रश्न ये उठता है कि वर्तमान मे क्या भारत पहले से अधिक लोकतांत्रिक, अधिक आत्मनिर्भर और सुरक्षित हुआ है? प्रश्न का उत्तर हाँ में आता है। आज भारत में चुनाव आयोग स्वतंत्र है, न्यायपालिका अधिक सक्रिय है और डिजिटल माध्यम ने जनअभिव्यक्ति के नये द्वार खोले हैं, सोशल मीडिया के मंचों द्वारा आज आम जनता अपनी बात रख रही है, छोटे छोटे मुद्दों पर भी सक्रिय होकर अपने विचारों से अवगत करा रही है। संसद में बहसों, कानून निर्माण की प्रक्रिया तथा जनता की सहभागिता से लोकतंत्र मजबूत हो रहा है।
2019 में जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना, तीन तलाक जैसी कुप्रथा पर रोक, नागरिक संसोधन कानून जैसे निर्णयों से अभिव्यक्त होता है कि भारत राष्ट्र हित के निर्णय लेता है, केवल राजनीतिक तुष्टिकरण के नहीं। वर्तमान समय की विशेषता यह है कि राजनीति अब ‘परिवारवाद’ से बाहर निकलकर ‘राष्ट्रवाद’ की ओर अग्रसर हो रही है। जनता अब वंशवाद, भ्रष्टाचार और तुष्टिकरण की राजनीति को नकार रही है।
जब 1975 में आपातकाल थोपा गया था तब जनता ने पहली बार जाना कि लोकतंत्र कितना नाजुक और संवेदनशील तंत्र है। उस समय आम नागरिक को न तो संविधान की गहराई का बोध था, न अधिकारों एवं दायित्वों की स्पष्ट समझ थी। लेकिन 2025 आते आते भारत का जनमानस जागरुक हो चुका है। आम जनता समझती है कि सत्ता भ्रष्ट होती है, तुष्टिकरण करती है और राष्ट्र हित से भटकती है तो उसे बदलना ही स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
आपातकाल का समय 1975 से 1977 तक रहा, इस अवधि में जनता को समझ में आया कि वोट की ताकत क्या है, लोकतंत्र में जनमत ही सर्वोच्च है। उसने समय – समय पर अपने मत की ताकत को प्रदर्शित किया और सत्ता बदल डाली। आज का मतदाता भी यह विचार कर निर्णय लेता है कि कौन सी सरकार देश को स्थायित्व, सुरक्षा और सांस्कृतिक गौरव दे सकती है। अब वह धीरे – धीरे जातिवाद, क्षेत्रवाद और तुष्टिकरण की राजनीति को समझने लगा है तथा इन सबकी जड़ें गहरी होने के बावजूद उसके विरुद्ध वातावरण भी देश में तैयार करने लगा है।
आपातकाल से भारत की जनता ने सीखा कि कैसे सत्ता निरंकुश हो जाए तो वह देश को पीछे धकेल सकती है। आपातकाल से सबक लेकर आज भारत की आत्मा जाग चुकी है। चाहे राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा हो, आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब हो या सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो, भारत अपने निर्णयों के आत्मनिर्भर एवं अडिग है। अब आपातकाल जैसी काली रातें भारत को देखने नहीं मिलेंगी क्योंकि राष्ट्रबोध जाग चुका है और भारत सत्ता केन्द्रित नहीं, जन केन्द्रित लोकतंत्र की ओर सुदृढ़ता से बढ़ रहा है।