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आस्था और प्रेम का प्रतीक तीजा तिहार

भारतीय जीवन और संस्कृति की विविधता एक समृद्ध विरासत है, जिसमें संस्कृतियों और स्थानीय परंपराओं का समन्वय दिखाई देता है। इस विविधता का एक प्रमुख कारण यहाँ की आंचलिक जीवनशैली और लोक संस्कृति है। भारत में तीज-त्यौहारों और पर्वों के पीछे धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ उनकी लोक मान्यताएँ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कई बार, लोक मान्यताएँ वैदिक मान्यताओं से अधिक प्रभावी और असरकारक होती हैं। यही कारण है कि भारतीय जीवन और संस्कृति बहुरंगी और बहुआयामी है।

जैसे-जैसे किसी स्थान की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार वहाँ के पौधे और जीव-जंतु का रंग-रूप बदलता है, वैसे ही भारत की भौगोलिक विविधता यहाँ की सांस्कृतिक विभिन्नता को जन्म देती है। इस विविधता का प्रभाव तीज-त्यौहारों पर भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, हरतालिका व्रत का छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में “तीजा” के रूप में रूपांतरण होना इसका एक सजीव उदाहरण है।

गाँव में रहकर लोक जीवन को नजदीक से देखने-सुनने का अनुभव अनमोल होता है। यह अनुभव हमें लोक की इन्द्रधनुषी छवि से परिचित कराता है, जो मन को सम्मोहित कर देती है। जब मैं “नाचा” (छत्तीसगढ़ की पारंपरिक नाट्य कला) में कुछ गीत सुनता था, तो उनकी गहराई को शायद तब समझ नहीं पाया था। परंतु आज उन गीतों के बारे में सोचते हुए, मुझे एहसास होता है कि कोई भी लोकगीत बिना कारण के नहीं गाया जाता। उनके पीछे हमेशा कोई न कोई लोकजीवन से जुड़ा संदर्भ होता है, जिसे समझने पर उसकी मर्मस्पर्शी गहराई प्रकट होती है। एक ऐसा ही गीत है, जिसमें तीजा के अवसर पर बहन अपने भाई की प्रतीक्षा करती है:

पोरा के रोटी धर के, भैया मोर आवत होही,
तीजा लेगे बर मोला, भैया मोर आवत होही।

इस गीत में बहन की अपने भाई के प्रति आस्था और प्रेम की गहरी भावना व्यक्त होती है। वह भाई के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है, जो उसे तीजा मनाने के लिए मायके लाने वाला है। इस गीत के विपरीत, एक अन्य गीत है, जिसमें तीजा के समय की पीड़ा को उकेरा गया है:

तीजा बड़ दुखदाई गा, तीजा बड़ दुखदाई,
नर तन हार खाके भाई, तीजा बड़ दुखदाई।

यह गीत उन परिस्थितियों की बात करता है, जब तीजा का त्यौहार खुशी के बजाय दुख का कारण बन जाता है। यह स्थिति उन बहनों के लिए हो सकती है, जिनके भाई नहीं हैं, या उन भाइयों के लिए हो सकती है, जिनकी बहनें नहीं हैं। इस प्रकार के गीत छत्तीसगढ़ में तीजा के महत्व को और भी गहराई से उजागर करते हैं।

तीजा भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इसे हरतालिका व्रत के नाम से भी जाना जाता है, जिसे विवाहित महिलाएँ अपने अखंड सौभाग्य की कामना के लिए रखती हैं। कहीं-कहीं अविवाहित लड़कियाँ भी इस व्रत को सुयोग्य वर की कामना से करती हैं। पुराणों में उल्लेखित है कि देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए इस दिन घोर तपस्या की थी। उसी तपस्या की स्मृति में महिलाएँ हरतालिका व्रत करती हैं।

छत्तीसगढ़ में इस व्रत का विशिष्ट महत्व है। यहाँ के लोकगीतों में इस पर्व की गूँज सुनाई देती है। लोकगीत तीजा के त्यौहार में रंग और उमंग भरते हैं। तीजा के समय बेटियों और बहनों को पिता या भाई द्वारा मायके लाया जाता है, और यह उनके लिए आनंद और उमंग से भरा होता है। मायके लौटकर बेटी और बहन की खुशियों का कोई ठिकाना नहीं रहता। पुराने दोस्तों से मुलाकात, माँ-बाप और भाई-बहनों का सानिध्य, और बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद—ये सब चीजें उनके जीवन में फिर से लौट आती हैं।

गाँव के नदी-नाले, खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, और घर-द्वार जो विवाह से पहले उनके बचपन के साथी थे, अब उनके सपनों को फिर से जीवित कर देते हैं। मायके आकर ससुराल की बंदिशों से कुछ समय के लिए मुक्ति मिलती है। ये बहनें और बेटियाँ मायके आकर चिड़ियों की तरह चहकती हैं और झरनों की तरह गाती हैं। उनकी लाज और संकोच छूट जाते हैं, और वे स्नेह और ममता से भर जाती हैं। यह सब तीजा के मायके आने पर संभव होता है, और इसलिए बेटी क्यों न अपने बाप का इंतजार करे और बहन क्यों न अपने भाई की राह देखे।

तीजा के पहले दिन “उपासहिन” महिलाएँ विशेष भोजन करती हैं, जिसमें करेले की सब्जी अनिवार्य होती है। फिर तीजा के दिन मौनी स्नान करती हैं, जिसमें नीम और सरसों के दातून का विशेष महत्व होता है। इस दिन का उपवास, जो लोक की मान्यता के अनुसार, विशिष्ट व्यंजनों के साथ संपन्न होता है, महिलाओं की तपस्या और संकल्प को दर्शाता है। वे रात्रि में जागरण करती हैं, शिव-पार्वती की पूजा करती हैं, और अपने अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं।

लोक परंपरा के अनुसार, तीजा के अवसर पर बेटियों को साड़ी उपहार में दी जाती है। छत्तीसगढ़ में एक कहावत भी प्रचलित है: “मइके के फरिया अमोल”—यानि मायके से मिले कपड़े का टुकड़ा भी अनमोल होता है। इस दिन माताएँ अपनी बेटियों के लिए चूड़ियाँ, फीते और सिन्दूर भी लाती हैं। तीजा की इस अनोखी परंपरा को निभाने का महत्व छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में गहराई से बसा हुआ है।

यह गीत हमें उन स्थितियों की ओर ध्यान खींचता है, जब तीजा का त्यौहार दुखदायी बन जाता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब किसी बहन का भाई नहीं होता, या किसी भाई की बहन नहीं होती। यह दर्द उन भाइयों के लिए भी है, जो अपनी आर्थिक तंगी के कारण अपनी बहनों को तीजा के लिए नहीं बुला पाते। तीजा उनके लिए सचमुच दुखदायी बन जाती है।

ऐसे समय में, तीजा का त्यौहार उनके लिए पीड़ा का कारण बन जाता है, जो अपने बहन-भाई के बगैर इस पर्व को मनाने के लिए विवश होते हैं। लोक संस्कृति की इस परंपरा में स्वार्थ और निजी लाभ की भावना के लिए कोई स्थान नहीं है। तीजा का वास्तविक उद्देश्य तो स्नेह, प्रेम और समर्पण का बीज बोना है।

इस प्रकार, हरतालिका व्रत का यह लोक रूप तीजा, छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न अंग है। यह पर्व न केवल सामाजिक बंधनों को मजबूत करता है, बल्कि समाज में स्नेह, दुलार और ममता का संदेश भी फैलाता है। छत्तीसगढ़ के तीज-त्यौहारों की लोक परंपरा यहाँ के जीवन को एक अद्वितीय पहचान देती है, जो लोक की इस अनमोल धरोहर को आकाशीय ऊँचाई प्रदान करती है।

 

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एव लोक संस्कृति के जानकार हैं।

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