उन गुरुओं को नमन जिन्होंने भारत को दिशा दी : शिक्षक दिवस

भारत की संस्कृति का मूल आधार शिक्षा और शिक्षक परंपरा रही है। जब हम शिक्षक दिवस की बात करते हैं, तो केवल एक आधुनिक परंपरा का पालन नहीं कर रहे होते, बल्कि सहस्राब्दियों पुरानी उस परंपरा को स्मरण कर रहे होते हैं, जिसने इस देश को दिशा दी, उसकी आत्मा को गढ़ा और उसकी सभ्यता को जीवित रखा। भारतीय इतिहास में गुरु केवल पाठ पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं रहा, वह जीवन को दिशा देने वाला मार्गदर्शक रहा है।
यही कारण है कि भारतीय समाज में “गुरु” शब्द को परमात्मा तक की संज्ञा दी गई “गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः…”। इसी भावना को याद करते हुए हम प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाते हैं। यह दिन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति, प्रख्यात दार्शनिक और महान शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के अवसर पर मनाया जाता है।
1962 में जब डॉ. राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने, तो उनके कुछ विद्यार्थियों और मित्रों ने उनसे आग्रह किया कि वे उनका जन्मदिन “विशेष रूप से” मनाने की अनुमति दें। इस पर उन्होंने कहा—“यदि आप वास्तव में मेरा जन्मदिन मनाना चाहते हैं तो इसे ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाएँ।” तभी से हर वर्ष 5 सितम्बर को यह दिन शिक्षकों के सम्मान के रूप में स्थापित हो गया। यह दिन केवल एक स्मृति दिवस नहीं है, बल्कि शिक्षा और शिक्षक के महत्व को स्मरण कराने का भी अवसर है।
प्राचीन भारत की गुरु-शिष्य परंपरा
यदि हम अपनी दृष्टि प्राचीन काल की ओर मोड़ें, तो वहां शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं थी। शिक्षा का अर्थ था, शरीर, मन और आत्मा का समन्वय। आश्रमों में बैठा गुरु शिष्य को धन अर्जन की कला नहीं सिखाता था, बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थों के संतुलन का मार्ग दिखाता था।
ऋषि विश्वामित्र का स्मरण कीजिए, जिन्होंने राम और लक्ष्मण जैसे राजकुमारों को धनुर्विद्या ही नहीं, बल्कि जीवन की व्यापक दृष्टि दी। संस्कृत वेदांताचार्य शंकराचार्य ने केवल 32 वर्ष की अल्पायु में भारत की चारों दिशाओं में मठ स्थापित करके अद्वैत वेदांत का दीपक जलाया। क्या यह केवल शिक्षा का कार्य था? नहीं, यह तो पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास था।
इसी तरह चाणक्य (कौटिल्य) का नाम भी भारतीय गुरु परंपरा में अमर है। उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य को केवल राजनीति का पाठ नहीं पढ़ाया, बल्कि भारत के राजनीतिक भूगोल को ही बदल डाला। मौर्य साम्राज्य का उदय और यूनानियों के आक्रमण का प्रतिकार, चाणक्य की शिक्षा और दूरदृष्टि का ही परिणाम था
हमें प्राचीन भारत के तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों का स्मरण होता है, जहाँ हजारों की संख्या में विद्यार्थी ज्ञानार्जन करते थे। वहाँ गणित, खगोल, आयुर्वेद, शस्त्रविद्या, दर्शन, धर्मशास्त्र और व्याकरण तक की शिक्षा मिलती थी। गुरु और शिष्य के बीच का संबंध केवल ज्ञान-लेनदेन का नहीं था, बल्कि जीवन-मूल्यों के संचार का था। शिष्य, गुरु की सेवा करते हुए, उनके जीवन को देखकर सीखता था।
उस समय शिक्षा का ध्येय केवल रोजगार पाना नहीं था, बल्कि व्यक्ति को चरित्रवान, आत्मनिर्भर और समाजोपयोगी बनाना था। यही कारण है कि चाणक्य जैसे आचार्य ने चंद्रगुप्त जैसे शिष्यों को तैयार किया, जिन्होंने इतिहास की धारा बदल दी।
मध्यकालीन भारत और शिक्षा
समय बीतने के साथ जब समाज जटिल हुआ, जातिगत भेदभाव और अंधविश्वास ने पकड़ मजबूत की, तब एक नई धारा भक्ति आंदोलन प्रवाहित हुई। यहाँ गुरु की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई।
कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, रामानुजाचार्य, नामदेव, मीराबाई—इन संतों ने अपने शिष्यों और अनुयायियों को केवल धार्मिक मार्गदर्शन ही नहीं दिया, बल्कि सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध खड़ा होना भी सिखाया। गुरु नानक ने तो स्पष्ट कहा—”गुरु बिन ज्ञान न उपजे, गुरु बिन मिले न मोक्ष।” भक्ति आंदोलन के इन गुरुओं ने भारत को आध्यात्मिक चेतना के साथ-साथ सामाजिक न्याय और समानता की राह दिखाई।
मध्यकाल में जब आक्रांताओं ने भारत की आत्मा पर चोट की, तब भी शिक्षा की यह परंपरा पूरी तरह नहीं टूटी। गाँव-गाँव में पाठशालाएँ चलती रहीं। संतों और कवियों ने लोकभाषा में शिक्षा और ज्ञान का संचार किया। संतों ने ज्ञान का प्रसार किया और सामाजिक चेतना जगाई। यह उस युग का “लोकगुरुत्व” था।
जब अंग्रेजों ने भारत में शासन स्थापित किया, तब शिक्षा का स्वरूप भी बदला। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली आई, जो कहीं न कहीं भारतीय मूल्यों से भिन्न थी। किंतु इस दौर में भी भारत ने ऐसे गुरुओं को जन्म दिया जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता का संतुलन साधा।
आधुनिक भारत में गुरुओं का योगदान
राजा राममोहन राय ने शिक्षा और समाज सुधार को जोड़ा। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने न केवल स्त्री शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि विधवा विवाह की अनुमति जैसे साहसिक कार्य किए।
स्वामी विवेकानंद, जिन्हें आधुनिक युग का गुरु कहा जा सकता है, उन्होंने भारत को आत्मविश्वास दिया। उन्होंने युवाओं से कहा—”उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको।” उनका जीवन आज भी शिक्षकों और छात्रों दोनों के लिए प्रेरणा है।
इसी कड़ी में महात्मा गांधी भी एक महान शिक्षक थे। उन्होंने सत्य, अहिंसा और स्वदेशी के सिद्धांतों से भारत को स्वतंत्रता आंदोलन का नया पाठ पढ़ाया। गांधीजी के लिए शिक्षा केवल पढ़ना-लिखना नहीं था, बल्कि चरित्र निर्माण और स्वावलंबन का साधन था।
हाँ हमें स्वामी दयानंद सरस्वती का उल्लेख अवश्य करना चाहिए, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में भारतीय समाज और शिक्षा को नई दिशा दी। उनका मानना था कि भारत की दुर्बलता का कारण अज्ञान है, और इस अज्ञान का नाश केवल शिक्षा से संभव है। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना (1875) करके शिक्षा को समाज सुधार का प्रमुख आधार बनाया।
आर्य समाज ने “गुरुकुल शिक्षा” की पुनर्स्थापना की। दयानंद सरस्वती का विचार था कि शिक्षा केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसमें वेद, आचार, विज्ञान और शारीरिक परिश्रम सभी का संतुलन होना चाहिए। उन्होंने स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा का अधिकार दिलाने की दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया।
वर्तमान संदर्भ में गुरु की भूमिका
आज जब शिक्षा तकनीक के सहारे नई ऊंचाइयाँ छू रही है, जब स्मार्टफोन और इंटरनेट ने ज्ञान को हर घर तक पहुंचा दिया है, तब प्रश्न उठता है—क्या गुरु की भूमिका कम हो गई है? उत्तर है—नहीं।
आज के समय में गुरु की भूमिका और भी बढ़ गई है। क्योंकि सूचना (Information) तो मशीन भी दे सकती है, परंतु विवेक और मूल्य (Wisdom and Values) केवल शिक्षक ही दे सकता है। शिक्षक ही वह आधारशिला है, जो बच्चे को संवेदनशील नागरिक बनाता है।
आज के दौर में जहाँ प्रतियोगिता, तनाव और नैतिक पतन जैसी चुनौतियाँ हैं, वहाँ शिक्षक ही है जो विद्यार्थी को संतुलित जीवन जीने की कला सिखाता है।
आज जबकि शिक्षा का ध्येय नौकरी और प्रतिस्पर्धा तक सीमित होता जा रहा है, शिक्षक दिवस हमें याद दिलाता है कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति और समाज का उत्थान है। शिक्षा में नैतिकता, चरित्र और सह-अस्तित्व की भावना का होना अनिवार्य है।
गुरु ज्ञान की खान और मार्गदर्शक
शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे केवल ज्ञान ही न दें, बल्कि विद्यार्थियों के मनोबल, जीवनदृष्टि और मानवता को भी आकार दें। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ. राधाकृष्णन, दयानंद सरस्वती और अनेकों आचार्य इसी “जीवन शिक्षा” के पक्षधर थे।
शिक्षक दिवस वास्तव में एक अवसर है – उन महान गुरुओं को स्मरण करने का जिन्होंने भारत को दिशा दी। यह केवल सम्मान का दिन नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का भी दिन है। हमें सोचना होगा कि क्या हमारी शिक्षा आज भी वही जीवन-मूल्य संचारित कर रही है, जो कभी तक्षशिला, नालंदा, गुरुकुल या शांतिनिकेतन में होते थे।
भारत का भविष्य कक्षा-कक्ष में बैठा है और शिक्षक उसके निर्माण की नींव है। जब तक हमारे शिक्षक विवेकानंद की तरह प्रेरक, दयानंद की तरह सुधारक, रवीन्द्रनाथ की तरह सृजनशील और राधाकृष्णन की तरह दार्शनिक रहेंगे, तब तक भारत की आत्मा कभी दुर्बल नहीं होगी।
यही शिक्षक दिवस का सच्चा संदेश है – “गुरु ही वह ज्योति है, जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है, और भारत की दिशा और दशा दोनों को बदल सकती है।”