छापामार युद्ध के उस्ताद तात्या टोपे एवं उनकी सैन्य रणनीति
सुप्रसिद्ध बलिदानी तात्या टोपे संसार के उन विरले सेनानायकों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल एक व्यापक क्रांति का संचालन किया, बल्कि क्रांति के अधिकांश नेताओं के बलिदान के बाद भी लगभग एक वर्ष तक अकेले अपने पराक्रम से उस क्रांति को जीवंत रखा और पूरे भारत में अंग्रेजों को छकाया। ऐसे महान क्रांतिकारी तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के अंतर्गत येवला ग्राम में हुआ था। हालांकि कुछ विद्वान उनकी जन्मतिथि 6 जनवरी भी मानते हैं। उनके पिता पांडुराव भट्ट, मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव द्वितीय के विश्वासपात्र सहयोगी थे। उनके घर में ओज और सांस्कृतिक चेतना का वातावरण था। पांडुराव पेशवा के साथ साये की तरह रहते थे और जब 1818 में मराठा साम्राज्य का पतन हुआ तथा बाजीराव द्वितीय को बिठूर आना पड़ा, तो वे भी उनके साथ बिठूर आ गए। तात्या का बचपन वहीं बीता।
नामकरण संस्कार में तात्या का नाम रामचंद्र पांडुरंग राव यवलकर रखा गया था। उनके पिता मूलतः यवलकर थे, किंतु भट्ट उनका गोत्र था, इसलिए उनके नाम के साथ भट्ट संबोधन प्रयुक्त होता था। रामचंद्र को लोग स्नेहवश “तात्या” के नाम से पुकारते थे और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। तात्या ने कुछ समय बंगाल सेना की तोपखाना रेजीमेंट में कार्य किया, जिससे उन्हें “टोपे” उपनाम मिला। लेकिन स्वाभिमानी स्वभाव के कारण उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और पुनः बाजीराव द्वितीय की सेवा में लौट आए। समय के साथ उनका विवाह हुआ और दो संतानें हुईं — बेटी मनुताई और बेटा सखाराम।
बाजीराव द्वितीय के बाद नाना साहब ने पेशवाई की बागडोर संभाली। अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के कारण जनता में असंतोष पहले से ही व्याप्त था, लेकिन 1853 के आसपास तात्या टोपे ने उत्तर, मध्य भारत और मालवा की रियासतों से संपर्क कर एक संगठित क्रांति का वातावरण तैयार किया। इस प्रयास में उन्हें उन भारतीय सैनिकों का भी समर्थन मिला, जो अंग्रेज अधिकारियों की अमानवीयता से त्रस्त थे। अंततः 1857 में क्रांति की तिथि तय हुई और समूचे भारत में स्वतंत्रता की ज्वाला भड़क उठी। कानपुर के सैनिकों और अनेक रियासतों ने नाना साहब को अपना नेता और पेशवा घोषित किया, और यह भूमिका तात्या टोपे द्वारा ही निर्मित की गई थी।
तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना प्रमुख सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने कानपुर पर हमला किया, तब तात्या ने भीषण युद्ध का नेतृत्व किया। हालांकि 16 जुलाई 1857 को अंग्रेजों ने पुनः कानपुर पर अधिकार कर लिया। तात्या ने कानपुर छोड़ा, अपनी सेना पुनर्गठित की और बिठूर पहुँचे, जहाँ से पुनः कानपुर पर हमला करने की योजना बनाई गई। परंतु विश्वासघात के कारण अंग्रेजों ने बिठूर पर आक्रमण कर दिया, जिससे तात्या को वहां से भी हटना पड़ा।
इसके बाद वे ग्वालियर क्षेत्र पहुँचे और ‘कन्टिजेंट’ नामक सैनिक टुकड़ी को अपने पक्ष में कर लिया। एक बड़ी सेना के साथ उन्होंने काल्पी पर अधिकार किया और नवंबर 1857 में कानपुर पर आक्रमण कर दिया। मेजर जनरल विंढम के अधीन अंग्रेजी सेना तितर-बितर हो गई, किंतु यह विजय स्थायी नहीं रही। जल्द ही कॉलिन कैम्पबेल ने पुनः कानपुर को घेर लिया और 6 दिसंबर को उस पर फिर से अधिकार कर लिया।
तात्या टोपे खारी पहुँचे और नगर पर कब्जा कर लिया। वहाँ उन्हें अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त हुए। इसी दौरान, जब 22 मार्च को जनरल ह्यूरोज ने झाँसी पर हमला किया, तब तात्या टोपे लगभग 20,000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मीबाई की सहायता के लिए पहुँचे। रानी की सेना और तात्या की संयुक्त शक्ति ने अंग्रेजों को पराजित कर दिया और रानी विजयी हुईं। इसके बाद तात्या और रानी लक्ष्मीबाई काल्पी पहुँचे।
तात्या टोपे ने कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लड़ाइयों का नेतृत्व किया। दुर्भाग्यवश, चरखारी को छोड़कर अन्य स्थानों पर उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। कोंच की हार के बाद उन्हें यह आभास हो गया कि यदि कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया गया, तो स्वतंत्रता संग्राम विफल हो जाएगा। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झाँसी की रानी और अन्य सहयोगियों पर छोड़कर ग्वालियर की ओर रुख किया। जब अंग्रेज काल्पी की विजय का उत्सव मना रहे थे, तब तात्या ने एक चौंकाने वाला युद्ध कौशल दिखाया और महाराजा सिंधिया की फौज को अपने पक्ष में कर लिया। उन्होंने ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई व राव साहब के साथ नाना साहब को पेशवा घोषित कर ग्वालियर में विजय उत्सव मनाया। परंतु इससे पहले कि तात्या अपनी शक्ति को व्यवस्थित कर पाते, ह्यूरोज ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। 18 जून 1858 को फूलबाग के समीप हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई बलिदान हो गईं।
इसके बाद तात्या टोपे का लगभग दस माह का जीवन छापामार युद्धों की अद्वितीय गाथा बन गया। उन्होंने एक वर्ष तक अंग्रेजी सेना को उलझाए रखा। उनका छापामार युद्ध संचालन इतना प्रभावशाली था कि अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा — “हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया, घोड़ों को चालीस-चालीस मील तक दौड़ाया गया, परंतु तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका।” यह उनकी असाधारण सैन्य प्रतिभा का प्रमाण है। वे ग्वालियर से निकलकर राजगढ़, राजस्थान, और पुनः मध्यप्रदेश होते हुए सिरोंज, भोपाल, नर्मदापुरम, बैतूल, असीरगढ़ आदि स्थानों पर पहुँचे। हर जगह उनका अंग्रेजों से संघर्ष हुआ, पर वे हर बार सुरक्षित आगे निकल जाते।
अंततः परोन के जंगल में उन्हें विश्वासघात का सामना करना पड़ा। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और 7 अप्रैल 1859 को तात्या को नींद में ही पकड़वा दिया। उन्हें शिवपुरी लाया गया, जहाँ 15 अप्रैल को उनका कोर्ट मार्शल हुआ। यह केवल औपचारिकता भर थी। उन्हें मृत्युदंड की सजा दी गई और 18 अप्रैल 1859 को शाम चार बजे हजारों लोगों की उपस्थिति में उन्हें फांसी दे दी गई। कहा जाता है कि तात्या दृढ़ता से फांसी के तख्ते पर चढ़े और स्वयं अपने हाथों से फंदा पहन लिया।
तात्या टोपे की वीरता को अनेक अंग्रेज इतिहासकारों ने भी स्वीकार किया है। कर्नल मालेसन ने उन्हें चंबल, नर्मदा और पार्वती घाटियों का नायक बताया, जबकि पर्सी क्रास ने उन्हें 1857 की क्रांति का सबसे प्रखर मस्तिष्क वाला नेता कहा। वास्तव में तात्या टोपे समूचे भारत के नायक हैं, जिन्होंने अपनी रणनीति, साहस और आत्मबलिदान से स्वतंत्रता संग्राम में एक अमिट छाप छोड़ी।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं।