जानिए ऐसा क्या है इस बावड़ी में जो लोग देश-विदेश से देखने चले आते हैं
राणी की वाव गुजरात के ऐतिहासिक पाटण गांव के उत्तर पश्चिम में वहाँ से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पाटण पहले मेहसाणा जिल्ले का एक भाग था। अब पाटण गुजरात के पाटण जिल्ले का मुख्यालय है, जो अहमदाबाद से 140 किमी की दूरी पर है।
पाटण पुराण प्रसिद्ध सरस्वती नदी के किनारे पर चपोतकट -चावड़ा राजा वनराज चावड़ा का बसाया हुआ शहर है। उसे अनहिलपुरा, अनहिलवाडा, अनहिल पाटक, अनालावता के नाम से और पुराने दौर के मुस्लिम लेखकों के इतिहास के पुस्तको में नाहरवाला के नाम से जाना जाता था।
यह सोलंकी या चालुक्य राजाओं की एक समृद्ध और शक्तिशाली राजधानी थी। पाटण करीब 600 साल तक गुजरात का केन्द्रवर्ती शहर यानी राजधानी रहा। ईसवी सन 1000 की साल में दुनिया के दस प्रमुख शहरों में 100000 की जनसंख्या के साथ पाटण भी सम्मिलित था। पुराना पाटण वहाँ था, जहाँ अभी अनावाड़ा गांव है। वर्तमान पाटण शहर बाद में बसा। गुजरात मे सल्तनत की स्थापना के बाद पंद्रहवी सदी में राजधानी अहमदाबाद में बनाई गई, इससे पाटण का महत्व धीरे-धीरे कम होता गया।
पाटण, सहस्त्रलिंग तालाब के लिए भी प्रसिद्ध है। जो राजा सिद्धराज जयसिंह ने पुराने दुर्लभ सरोवर की जगह बनवाया था। जिसके किनारे पर सहस्त्र (1000) शिवमंदिर स्थित थे और जिसे सोलंकी राजा ने सरस्वती नदी में से पानी लाने के लिए नहर और शुद्ध जल के लिए पत्थर की विशिष्ठ छलनी की व्यवस्था कर के बनाया था। पाटण के बुनकरों द्वारा निर्मित बहुमूल्य वस्त्र पटोला के नाम से विश्व विख्यात है, जिसे बुनने में महीनों लग जाते है। पटोला बुनने वाले बुनकर सोलंकी युग मे बाहर से यहाँ बसायें गए थे। पाटण में अभी भी कुछ पुराने धरोहर जैसे कि किले के दरवाजे, बुर्ज, मंदिर, मस्जिद, दरगाह, तालाब, वाव (बावली) बचे हुए है।
पाटण स्थित राणी की वाव सब से विशाल और भव्य है। यह सिर्फ गुजरात नही, पूरे भारत की सर्वश्रेष्ठ वाव है। इसीलिए उसे “Queen of stepwell ” का नाम दिया गया है। पूरी वाव बहोत ही बारीकियों से उकेरे गए शिल्पों से सजी हुई है।
ऐसा कहते है कि यह सिर्फ वाव नही बल्कि भूमिगत वाव मंदिर है। सामान्य मंदिर जमीन के ऊपर होता है, जबकि यह जमीन के नीचे है। यह वाव राणी उदयमती द्वारा उनके पति सोलंकी राजा भीमदेव (शासन काल ईसवी सन 1022-63) की स्मृति में ईसवी सन 1075 के आस-पास बनाई गई है।
सोलंकी राजा भीमदेव के शासन के दौरान ही महमूद गजनी ने सोमनाथ मंदिर को लूंटा था। जिसे बाद में पुनः निर्मित किया गया। सोलंकी राजा भीमदेव, उनके पुत्र कर्णदेव और पौत्र जयसिंह सिद्धराज (त्रिभुवन गंड बर्बरीक जिष्णु गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह सोलंकी) के शासन काल मे पाटण एक भव्य विशाल और समृद्ध शहर था। अमाप सिमा वाला गुर्जर देश, उसमे लोग सुख शांति से रहते थे। उस दौर के पाटण की समृद्धि की गवाही आज भी राणी की वाव के शिल्प देते है। उस दौर की पाटण की समृद्धि का जिक्र काफी प्रवासी लेखकों ने अपनी पुस्तकों में किया है।
राणी की वाव और सहस्त्रलिंग तालाब के साथ-साथ बहुत सारे तालाब और वाव पूरे गुजरात मे सोलंकी राजा परिवार ने बनवाये, वह उनके जल व्यवस्थापन के लिए दीर्घ दृष्टि और अपनी प्रजा की सहुलियत का खयाल रखने की चाहत दिखाते है।
राणी की वाव पुराने किले की दीवार के पास है, नजदीक ही सहस्त्रलिंग तालाब है। सोलंकी राजाओ का राज महल भी राणी की वाव के पास ही था, ऐसा कुछ इतिहासकारों का मानना है।
राणी की वाव करीब 64 मीटर लंबी, 20 मीटर चौड़ी और 27 मीटर गहरी है। इसकी दिशा पूर्व पश्चिम है, जिसमे कुंआ पश्चिम में जबकि प्रवेश पूर्व दिशा में है। नीचे उतरने के लिए सीढ़ी (स्टेप्स ) बनाये गए है। इस वाव के प्रमुख अंगों में प्रवेश के लिए सीढ़ी, थोडे अंतर पर स्तंभ युक्त मंडप और आसपास की दीवारों में उकेरी गई अद्भुत मूर्तिया है। हरेक तल पर मंडप है। मंडप के स्तंभ की छत पत्थर की है। स्तंभ के ऊपर छत कीचक की रचना से टिकी हुई है। कहा जाता है कि उसके कुंए में से गुप्त रास्ता सिद्धपुर के रुद्र महालय को जाता था।
यह वाव अज्ञात कारणों से या तो सरस्वती नदी में आई भीषण बाढ़ से रेत के नीचे दब गई थी। उसकी कुंए की दीवार ही सिर्फ बाहर थी, जब कि वाव के प्रवेश के हिस्से में से तोरण के स्तंभ के कुछ अंश बाहर थे। तोरण नदारद था। यह वाव सदियों तक रेत में दबी रही। लोगों को या शासकों को भी करीब ईसवी सन 1960 तक यहां दबी हुई वाव की विशालता और उसमें लगी बेमिसाल मूर्तियों के बारे में पता नही था।
कर्नल टोड़ के पुस्तक में जिक्र है कि राणी की वाव के आसपास पड़े ऊपर के मजले के स्तंभो से पाटण में ही एक और “त्रिकम बारोट की वाव ” बनाई गई। सदियों तक यह मान्यता थी कि वाव के कुएं के पानी से बच्चों के कुछ रोग ठीक होकर स्वास्थ्य लाभ होता है।
लोगो को तो पता नही था, आक्रांताओं को भी इस भूमिगत खजाने का पता नही था, इस लिए यह सब भूमिगत बचा रहा। वर्ना वह दौर ऐसा रहा कि विधर्मी आक्रांताओं ने भारत भर के मंदिर लूंट लिए, मूर्तियाँ तोड़ डाली, संस्कृत्ति तहस नहस कर डाली। जितना समय गुजरात सल्तनत रही, पाटण के स्थापत्यों के पत्थर उठा ले जा कर अहमदाबाद के स्थापत्यो में प्रयोग किये गए। यही सिलसिला मुग़ल और मराठा काल मे भी रहा।
नतीजा यह हुआ कि पाटण में जो दिखता नहीं और जमीन में दबा था ऐसा सहस्त्रलिंग तालाब और राणी की वाव और महाकाली मंदिर के सटे पुराने किले की दीवार ही बची रही और कुछ मुस्लिम स्थापत्य ही बचे थे। सल्तनत काल, मुग़ल काल, मराठा काल भी गुजर गया। देश आजाद हुआ, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की रचना हुईं।
सहस्त्र लिंग तालाब, राणी की वाव सुरक्षित स्मारक घोषित हुए। ASI ने सहस्त्र लिंग तालाब का कुछ हिस्सा खोज निकाला, जिसमे वडोदरा की महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी का भी अहम योगदान रहा है। ASI ने राणी की वाव में से पूरी रेत निकाली तो जो अंदर से मूर्तियाँ और स्थापत्य रूपी गड़ा खजाना निकला, वह अकल्पय था।
जितनी भी मूर्तियाँ निकली सब को सही जगह वापस लगाया गया। स्तंभों को भी लगाया गया और वाव को जितना हो सके मूल रूप दिया गया। प्रवेश का तोरण, कुछ स्तंभ, कुछ मूर्तियाँ नदारद ही रही। फिर भी जितना बाकी रहा, वह बेमिसाल शिल्प है। मूर्तियाँ जमीन में दबे रहने से ऐसी ही सुरक्षित रही, जैसी बनाते वक्त थी।
इस वाव में बहुत सुंदर मूर्तियाँ जैसी की महिसासुर मर्दिनी, पार्वती, शिव जी , विष्णु भगवान के दशावतार जैसे कि वराह, वामन, राम, बुद्ध और कल्कि, भैरव,गणेश, सूर्य, कुबेर, लक्ष्मीनारायन, अष्ट दिकपाल, अप्सराएं, नागकन्याएं, योगिनी, वसु, बलराम, चामुंडा, हरिहर, दुर्गा क्षेमंकरी, महालक्ष्मी, नायिका कर्पूरमंजरी वगैरह प्रमुख है।
वाव के कुएं में शेषशायी विष्णु की और अन्य मूर्तियाँ है । सब मूर्तियाँ वाव में उतरने की सीढ़ी के आसपास की दीवारों में लगाई गई है। यहाँ पाटण का विख्यात वस्त्र पटोला की डिजाइन को भी दीवार में स्थान मिला है। वाव में एक जगह राणी उदयमती की मूर्ति भी लगायी गयी है। यह सोलंकी युग के स्थपति और कारीगरों की सूझबूझ और प्राविन्य का नतीजा है कि मूर्तियाँ उकेरने में और उसमे सौंदर्य, विविध भाव, गति दिखाने में कला की निपुणता स्पष्ट दिखाई देती है।
इस वाव का जो भी हिस्सा दिखता था, उसे समय समय पर मुस्लिम और अंग्रेज प्रवासी लेखकों ने अपने अपने प्रवास वर्णन में स्थान दिया है। आर्थर मेलेट, हेनरी कजिंस, जेम्स बर्गेस और जेम्स टॉड ने इस वाव का जिक्र अपनी रचना मे किया है।
वाव का सूक्ष्म और सटीक शिल्प इसे पूरे विश्व मे एक अनूठी, सब से बड़ी और सुंदर रचना बनाते है। यही वजह है कि इसे देखने पूरे विश्व के कोने कोने से लोग खिंचे चले आते है। जो इसे एक बार देखता है, देखता ही रह जाता है। भारतीय संस्कृति और शिल्पकला के रसिक जनों को एक वार राणी की वाव जरूर देखनी चाहिए।
धन्यवाद तरुण जी, रानी की वाव के बारे में कुछ अनजाने तथ्य सामने लाने के लिए। आज तक सिर्फ आभानेरी और अडालज वाव ही देखने का सौभाग्य मिला है। देखिये, रानी की वाव देखने का सुअवसर कब मिलता है!
धन्यवाद
वाह तरुणजी ।कुछ फोटोग्राफस कैसे लिए ?ड्रोन केमेरा से ?