भारत के पुनः जगद्गुरु बनने के पथ प्रदर्शक स्वामी विवेकानंद
इंग्लैंड से विदा लेने से पूर्व एक अंग्रेज मित्र ने उनसे पूछा, “स्वामीजी, चार वर्षों तक विलासिता, चकाचौंध तथा शक्ति से परिपूर्ण इस पश्चिमी जगत का अनुभव लेने के बाद अब आपको अपनी मातृभूमि कैसी लगेगी ?” स्वामीजी ने उत्तर दिया, “यहाँ आने से पूर्व मैं भारत से प्रेम करता था परंतु अब तो भारत की धूलिकण तक मेरे लिए पवित्र हो गयी है। अब मेरे लिए वह एक पुण्यभूमि है – एक तीर्थस्थान है!”
ऐसी थी हमारे परमपूज्य स्वामी विवेकानंद की भारत भक्ति। १२ जनवरी १८६३ को कलकत्ता में जन्में, ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के परमप्रिय शिष्य, गुरुदेव के आशीर्वाद से साधारण नरेन्द्र से असाधारण स्वामी विवेकानंद बन गए। परिव्राजक सन्यासी के रूप में स्वामीजी भारत भ्रमण करते हुए अंत में भारतवर्ष के अंतिम छोर, ध्येयभूमि कन्याकुमारी पहुँचते हैं। १८९२, दिसंबर माह की २५,२६ और २७ तारीख को महासागर के मध्य स्थित शिला पर भारत के भूत, भविष्य, वर्तमान का ध्यान करते हुए उन्हें साक्षात जगतजननी भारत माता के दिव्य स्वरूप के दर्शन होते हैं और साथ ही अपना जीवनोद्देश्य भी प्राप्त होता है।
शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में पहुँचने से पूर्व स्वामीजी को अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। तत्पश्चात ११ सितंबर १८९३ के पावन दिवस पर उनके मुख से गुरु रामकृष्ण प्रेरित ऐसी ओजस्वी वाणी गूंजी कि आज भी दुनिया याद करती है। यह केवल स्वामीजी की दिग्विजय ही नहीं अपितु भारतवर्ष के पुनरुत्थान का शंखनाद भी था। सम्पूर्ण विश्व भारत के प्रति, यहां की सभ्यता-संस्कृति के प्रति नतमस्तक हो गया।
स्वामीजी रातों – रात लोकप्रिय और प्रसिद्ध हो गए। उनके सम्मान में राजोचित सत्कार का आयोजन किया गया। स्वामीजी का कक्ष भौतिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण था, किन्तु उस विलासितापूर्ण बिछौने पर एक सन्यासी को नींद कहां आने वाली थी! उनका हृदय तो भारत के लिए क्रंदन करता रहा और वे फर्श पर लेट गए। द्रवित होकर सारी रात एक शिशु के समान फूट-फूट कर रोते रहे और ईश्वर के सम्मुख भारत के पुनरुत्थान की प्रार्थना करते रहे। भारत के प्रति उनका ऐसा ही ज्वलंत प्रेम था।
चार वर्षों के विदेश प्रवास के उपरान्त भारत लौटने के लिए अधीर होते स्वामीजी भारत की मिट्टी पर १५ जनवरी १८९७ को अपना पहला कदम रखते हैं। अपने मन के आवेग को वे रोक नहीं पाते और स्वदेश की मिट्टी में लोट-पोट होने लगते हैं तथा भाव-विभोर होकर रोते हुए कहने लगते हैं कि, “विदेशों में प्रवास के कारण मुझमें यदि कोई दोष आ गए हों तो हे धरती माता! मुझे क्षमा कर देना।” एक बार किसी ने स्वामीजी से कहा की सन्यासी को अपने देश के प्रति विशेष लगाव नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे तो प्रत्येक राष्ट्र को अपना ही मानना चाहिए। इस पर स्वामीजी ने उत्तर दिया – “जो व्यक्ति अपनी ही माँ को प्रेम तथा सेवा नहीं दे सकता, वह भला दूसरे की माँ को सहानुभूति कैसे दे सकेगा ?” अर्थात पहले देशभक्ति और उसके बाद विश्वप्रेम!
स्वामीजी की महान प्रशंसिका तथा उन्हें अपना मित्र माननेवाली अमेरिकी महिला “जोसेफिन मैक्लाउड” ने एक बार उनसे पूछा था, “मैं आपकी सर्वाधिक सहायता कैसे कर सकती हूँ?” तब स्वामीजी ने उत्तर दिया था, “भारत से प्रेम करो।” स्वयं के विषय में बोलते हुए उन्होंने एकबार कहा था कि वे “घनीभूत भारत” हैं। वस्तुतः उनका भारत-प्रेम इतना गहन था कि आखिरकार वे भारत की साकार प्रतिमूर्ति ही बन गए थे। कविश्रेष्ठ रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनके विषय में कहा था कि, “यदि आप भारत को समझना चाहते हैं, तो विवेकानंद का अध्ययन कीजिये।”
स्वामीजी और भारत एकाकार हो गए थे। भगिनी निवेदिता के शब्दों में यही विश्वास प्रतिध्वनित होता है – “भारत ही स्वामीजी का महानतम भाव था। भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। इतना ही नहीं वे स्वयं ही भारत बन गए थे। वे भारत की सजीव प्रतिमूर्ति थे। वे स्वयं ही – साक्षात भारत, उसकी आध्यात्मिकता, उसकी पवित्रता, उसकी मेधा, उसकी शक्ति, उसकी अन्तर्दृष्टि तथा उसकी नियति के प्रतीक बन गए थे।”
स्वामीजी सभी दृष्टियों से अतुल्य थे। ऐसा कोई भी न था, जो भारत के प्रति उनसे अधिक लगाव रखता हो, जो भारत के प्रति उनसे अधिक गर्व करता रहा हो और जिसने उनसे अधिक उत्साहपूर्वक इस राष्ट्र के हित के लिए कार्य किया हो। उन्होंने कहा था, “अगले ५० वर्षों तक के लिए सभी देवी-देवताओं को ताक पर रख दो, पूजा करो तो केवल अपनी मातृभूमि की, सेवा करो अपने देशवासियों की, वही तुम्हारा जाग्रत देवता है। उन्होंने देशभक्ति का ऐसा राग छेड़ा, कि वह आज भी गुंजायमान है।
युवाओं के प्रति आशा भरी दृष्टि : युवावस्था जीवन की वह अवधि है, जो शक्ति और क्षमता के साथ आगे बढ़ती है। किसी भी समस्या का समाधान युवा सकारात्मकता से हल करना जानता है। अतः किसी भी देश के युवा उस देश का भविष्य होते हैं और उस देश की प्रगति और विकास में उनकी प्रमुख भूमिका होती है। स्वामी विवेकानंद का भारत की युवा पीढ़ी पर अटल विश्वास रहा है। वे बड़ी आशा भरी दृष्टि से कहा करते थे कि, “मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आयेंगे। सिंहों की भांति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे।”
वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक भारत में पच्चीस वर्ष तक की आयु वाले लोग कुल जनसंख्या के पचास फीसद हैं, वहीं पैंतीस वर्ष तक वाले कुल जनसंख्या के पैंसठ फीसद हैं। यानी भारत अपने भविष्य के उस सुनहरे दौर के निकट है, जहां उसकी अर्थव्यवस्था नई ऊँचाईयों को छू सकती है। यही कारण है कि भारत को दुनिया भर में उम्मीद से देखा जा रहा है और इक्कीसवीं सदी की महाशक्ति होने की भविष्यवाणी की जा रही है। ये युवा न केवल कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं, बल्कि आने वाले समय में सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और जनसंख्या के विकास का संकेत भी देते हैं। चूंकि ये किसी भी देश के सबसे अधिक उत्पादक कामकाजी वर्ग होते हैं, तो यह उम्मीद की जा रही है कि युवाओं की बड़ी आबादी की मदद से भारत वर्ष 2025 तक दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। तब विश्व की कुल जीडीपी में भारत का योगदान लगभग छः फीसद होगा।
राष्ट्र निर्माण कैसे होगा ?
अब प्रश्न यह उठता है कि कौन सा युवा राष्ट्र निर्माण करेगा ? कौन है वह जो देश बदलेगा ? वह जिसकी प्रतिभा भ्रष्टाचार के भेंट चढ़ गई ? अपितु वह जो रोजगार हेतु दर-दर की ठोकरें खा रहा है ? या वह जो साक्षर तो है परन्तु शिक्षित नहीं… हाथों में डिग्रियाँ तो हैं परन्तु विषय संबंधित व्यावहारिक ज्ञान का अभाव है। या वह जो सोशल मीडिया की दुनिया में डूब गया है, जिसे सही गलत का भान न रह गया है.. आखिर कौन ?
आज बहुत से ऐसे विकसित और विकासशील राष्ट्र हैं, जहां नौजवान ऊर्जा व्यर्थ हो रही है। कई देशों में शिक्षा के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना की कमी है तो कहीं प्रच्छन्न बेरोजगारी जैसे हालात हैं। ऐसी परिस्थिति में भी युवाओं को एक उन्नत और आदर्श जीवन की ओर अग्रसर करना नितांत आवश्यक है। यह सच है कि जितना योगदान देश की प्रगति में कल-कारखानों, कृषि, विज्ञान और तकनीक का है, उससे बड़ा और महत्त्वपूर्ण योगदान स्वस्थ और शक्तिशाली युवाओं का होता है। इतिहास साक्षी है कि आज तक दुनिया में जितने भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, चाहे वे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा वैज्ञानिक रहे हों, उनके मुख्य आधार युवा ही रहे हैं। शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ युवा वर्ग ही राष्ट्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
स्वामी विवेकानंद के विचारों ने भारतवर्ष ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के युवाओं को प्रभावित व प्रेरित किया है। समय की मांग है कि भारत की युवा शक्ति स्वामीजी के “उत्तिष्ठत! जाग्रत! प्राप्य वरान्निबोधत!!”रूपी आह्वान से जाग उठे। अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकले, यात्राएं करे, दुनिया की समझ विकसित करे, ज्ञान की खोज में निकले, लक्ष्य प्राप्ति हेतु सदैव तत्पर और संघर्षरत रहे, चरित्रवान, आस्थावान और ऊर्जावान रहे। यदि सत्य में स्वामी विवेकानंद के विचार हमें प्रेरणा देते हैं तो हमारा प्रत्येक दिन ही ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ होना चाहिए। 19वीं शताब्दी में ही उस राष्ट्रसंत ने भारत माता के पुनः जगद्गुरु बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। आज 21वीं शताब्दी में, स्वामीजी 162वीं जयंती पर आवश्यकता है तो केवल उनके बताए मार्ग पर संकल्पबद्ध होकर चलने की।
लेखिका कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोध छात्रा हैं।