उदार बनो और सेवा करो – स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम था नरेन्द | उनके घर पर अनेकों साधु सन्यासी और भिक्षुक आते, अक्सर नरेन्द्र ही द्वार खोलते और उन्हें कुछ भी उपयोगी वस्तु दे देते। एक बार तो उन्हें कुछ नहीं सूझा तो अपनी नयी धोती ही खोलकर दे दी। इस आदत से नाराज होकर माता भुवनेश्वरी देवी ने एक दिन नरेन्द्र को ऊपर के कमरे में बन्द कर दिया। तब भी भिक्षुक की आवाज सुनकर पास ही रखे संदूक में से साड़ियां और कपड़े निकालकर खिड़की से उसे दे दिए। महाविद्यालय शिक्षण के दौरान निर्धन किन्तु पढ़ाई में सदैव अव्वल आने वाले सहपाठी हरीदास के महाविद्यालय शुल्क को माफ करवाने के लिए भी कार्यालय कर्मी को विवश कर दिया था । नरेन्द्र का मानना था कि केवल फीस के कारण अच्छे विद्यार्थी को परीक्षा से वंचित करना अन्याय है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- “मेरे बच्चो काम करो । परिणाम की चिन्तन किये बिना अपने हृदय और आत्मा के साथ काम करो। जब तुम दूसरों की भलाई का काम करोगे तो फिर नर्क क्यूं जाओगे ? मैं कहता हूँ कि यह अपने लिए स्वर्ग प्राप्त करने से निश्चित रूप से बेहतर है।”
एक बार सर्दियों में विवेकानन्द देवगढ़ में प्रियनाथ मुंशी के घर ठहरे हुए थे। वहाँ उन्होंने एक बीमार और दर्द से कराहते असहाय व्यक्ति को सड़क के किनारे पड़े हुए देखा । स्वामी जी तुरन्त उसे प्रियनाथ के घर में ले आए और उसके कपड़े बदलकर उसका प्राकृतिक उपचार करने में जुट गए। हर परिस्थिति में सप्रयास पीड़ित मानव की सेवा करना प्रथम मानव कर्त्तव्य और सार्थक धर्म है । 1898 में जब कलकत्ता भीषण प्लेग से त्रस्त था, स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन के माध्यम से हर संभव सहायता के प्रयत्न किये। अनेक सहायता शिविर खोले पर फिर भी राहत के लिए भारी धन की आवश्यकता थी । एक शिष्य ने स्वामीजी से पूछा कि इतना धन कहां से आयेगा ? तो स्वामीजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा – “हम सन्यासी हैं, पेड़ के नीचे सो सकते हैं और दान – भिक्षा पर जीवित रह सकते हैं । यदि मैं लाखों लोगों का जीवन बचा सकता हूँ तो मठ को बेचने में भी संकोच नहीं करूंगा।” यही जीवटता, यही निश्चय और उदार हृदय सेवाभाव जीवन को सार्थक और सफल बनाता है।
विविध परिस्थितियों में रहते हुए कई बार यह अन्तर्द्वन्द भी प्रत्यक्ष होता ही है कि हम केवल अपने लाभ के लिए काम करें या फिर दूसरों की भलाई के लिए। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ” जब कभी भी मन (अन्तःकरण) और मस्तिष्क ( चेतन बुद्धि) के बीच अन्तर्द्वन्द हो, तो मन का अनुसरण करो क्योंकि बुद्धि की एक सीमा होती है वह उसी के भीतर काम करती है। उससे बाहर नहीं निकल पाती । यह केवल हृदय ही है जो किसी को भी उन सर्वोच्च ऊँचाइयों तक ले जा सकता है, जहाँ मस्तिष्क कभी नहीं पहुँच सकता।”
‘ जैसे दूसरों के लिए किया गया लेशमात्र कार्य हमारे भीतर की शक्ति को जाग्रत करता है, वैसे ही दूसरों के लिए लेशमात्र भलाई का विचार भी धीरे-धीरे हृदय में सिंह जैसी शक्ति भर देता है ।’ स्वामी विवेकानन्द सच्चे कर्मयोगी थे। उन्होंने गरीबों के दुःख दूर करने के विशेष प्रयोजन के लिए जन्म लिया था और इसका उन्होंने अन्तिम श्वास तक अनवरत निर्वहन भी किया। वे कहते हैं- ” नर सेवा ही नारायण सेवा है।” ईश्वर से साक्षात्कार तो प्रत्येक मनुष्य के जीवन में संभव नहीं किन्तु यदि कोई मनुष्य पीड़ित मानव की मनपूर्वक सेवा का कार्य करता है तो उसे ईश्वर – दर्शन के सुख – संतोष की सहज प्राप्ति हो जाएगी । निःस्वार्थ भाव से दूसरों के लिए किया गया कार्य तन और मन दोनों को पवित्र करता है, यही पवित्रता शांति और आनन्द देती है जो जीवन के लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त करने का महत्वपूर्ण कारक है। इस भौतिक युग में जीविकोपार्जन के लिए हम जितने भी व्यस्त हों, कहीं कुछ समय पीड़ित मानव की सेवा के लिए अवश्य निकालें। दूसरों के लिए किया गया कार्य ही मन को संतोष देता है और जीवन सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है ।
लेखक वरिष्ठ संस्कृति कर्मी एवं साहित्यकार हैं।
बहुत सुंदर प्रसंग 💐💐💐💐💐