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राष्ट्रसेवा से ही सार्थक जीवन : स्वामी विवेकानन्द

उमेश चौरसिया

उन दिनों भारत में भीषण अकाल के कारण आमजन त्रस्त था । एक दिन ‘हितवादी’ पत्रिका के संपादक देउस्कर अपने दो मित्रों के साथ स्वामी विवेकानन्द से आध्यात्मिक चर्चा के लिए आए। किन्तु स्वामीजी का मन केवल अकाल पीड़ित जन को सहायता की चिन्ता में ही था । स्वामीजी बोले – “महाशय, जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, तब तक उसे खिलाना तथा उसकी देखभाल करना ही मेरा धर्म होगा। बाकी सब कुछ या तो अधर्म है या फिर मिथ्या – धर्म ।”

इन्हीं दिनों वेदान्त पर चर्चा के लिए आए विद्वान पंडित से भी उन्होंने कहा – “पण्डितजी, सबसे पहले तो आप, मुट्ठी भर अन्न के लिए हृदय विदारक क्रन्दन कर रहे अपने देषवासियों की समस्या को दूर करने की चेष्टा कीजिए, उसके बाद आप मेरे पास वेदान्त पर शास्त्रार्थ करने के लिए आइए । अनाहर तथा भूख से मर रहे हजारों लोगों को बचाने के लिए अपने जीवन तथा प्राणों को दाँव पर लगा देना – यही वेदान्त का सार – सर्वस्व है।”

एक बार स्वामीजी की प्रशंसिका अमेरिकी महिला जोसेफीन मैक्लाउड ने उनसे पूछा – “मैं आपकी सर्वाधिक सहायता करना चाहती हूँ, मैं क्या करूँ ?” स्वामीजी ने उत्तर दिया – ” भारत से प्रेम करो।” शिकागो धर्मसंसद के प्रथम व्याख्यान ने ही स्वामीजी को प्रसिद्ध बना दिया था। हर कोई उन्हें अपने घर ले जाना चाहता था। एक करोड़पति आग्रहपूर्वक उन्हें अपने विशाल भवन में ले गया। वहाँ राजसी शान-शौकत, सुख-सुविधा उन्हें उपलब्ध थी ।

किन्तु स्वामीजी इस भव्यता, तड़क-भड़क से बेचैन हो गए, उन्हें विलासितापूर्ण बिस्तर पर नींद नहीं आयी। वे उतरकर फर्श पर लेट गए और सारी रात एक शिशु के समान रोते रहे, प्रार्थना करते रहे – “हे माँ! मैं इस नाम – यश को लेकर क्या करूँ, जबकि मेरे दशवासी घोर निर्धनता में डूबे हुए हैं। मुट्ठीभर अन्न के अभाव में लोग प्राण त्याग रहे हैं। .. भारत की जनता को कौन उठाएगा? मैं उनकी किस प्रकार सेवा कर सकता हूँ?”

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम देखते हैं कि इस भौतिकवादी युग की सभी सुविधाओं को हासिल कर लेने की होड़ में हमने अपने आस-पास वस्तुओं का भण्डार तो एकत्र कर लिया है किन्तु रिष्ते, परिवार, मैत्री, सहयोग, चरित्र, धर्म और राष्ट्र हमसे दूर होते जा रहे हैं। ‘देश हमें देता है सबकुछ हम भी तो कुछ देना सीखें’ यह भी हमें समझना है।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- “प्रत्येक मनुष्य और राष्ट्र को महान् बनाने के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं – सदाचार की शक्ति में विश्वास, ईर्ष्या व सन्देह का परित्याग और जो सत् बनने या सत्कर्म करने के लिए यत्नवान हों, उनकी सहायता करना ।”

भारत का राष्ट्रीय आदर्श हैं-त्याग और सेवा । स्वदेश के प्रति आपका समर्पण-सेवा भाव नहीं है, तो वह देश तरक्की नहीं कर सकता और देश प्रगति नहीं करेगा तो आपका भविष्य उज्जवल, उत्तम और खुशहाल कैसे बन सकेगा ? स्वामीजी ने धर्म और अन्य सब कुछ से ऊपर देशसेवा को माना है। इसीलिए यदि हम स्वयं के जीवन को सफल और सार्थक बनाना चाहते हैं तो राष्ट्रसेवा का प्रथम कर्त्तव्य निभाएं ।

स्वामीजी कहते हैं- ‘देशभक्त बनो, जिस राष्ट्र ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं, उसे प्राणों से भी प्यारा समझो।…. भारत तभी जगेगा, जब विशाल हृदयवाले सैंकड़ों स्त्री-पुरूष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के हित के लिए सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर डूबते जा रहे हैं।’ याद रखिये समर्थ राष्ट्र में ही युवा पीढ़ी का भविष्य उज्जवल बन सकता है ।

लेखक साहित्यकार एवं संस्कृति चिंतक हैं।

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