जब दिल्ली की जामा मस्जिद में गूंजे थे वेद मंत्र
दोपहर के समय 50 लोगों ने घर आ कर स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रेमपूर्वक आग्रह से, तांगे में बिठा कर जामा-मस्जिद ले जाने लगे लेकिन तांगा धीमे चल रहा था अतः कार में बिठाया गया। जामा-मस्जिद की दक्षिण दिशा की सीढ़ियों से प्रवेश किया। मस्जिद में स्वामी-श्रद्धानन्द जी को देखते ही जो लोग नमाज अदा कर अपने घर जा रहे थे वे वापस लौटने लगे और “महात्मा गाँधी के जय”, “हिन्दू-मुस्लिम एकता की जय” आदि नारे लगाने लगे।
स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती भारतीय इतिहास के उन महानतम विभूतियों में से एक हैं, जिनका योगदान भारतीय समाज, संस्कृति और स्वतंत्रता संग्राम में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। उन्होंने न केवल वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया, बल्कि सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व कार्य किए। उन्होंने छुआछूत के उन्मूलन और दलित उद्धार के लिए संघर्ष किया और राष्ट्र के भीतर एकता को सुदृढ़ करने के लिए अथक प्रयास किए।
स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब प्रांत के जालंधर जिले के तलवान ग्राम में हुआ था। उनका मूल नाम मुंशीराम विज था और उनके पिता नानक चंद विज एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। युवावस्था में वे एक कुशल अधिवक्ता बने, लेकिन महर्षि दयानंद सरस्वती के संपर्क में आने के बाद उनका जीवन परिवर्तित हो गया। स्वामी दयानंद की शिक्षाओं ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने सन्यास ग्रहण कर समाज सुधार और राष्ट्र सेवा का संकल्प लिया।
शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान की बात करें तो उन्होंने हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो आज भी भारतीय संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रमुख संस्थान है। उनका यह प्रयास भारतीय शिक्षा प्रणाली को भारतीय मूल्यों और संस्कृति के अनुरूप बनाने का एक महत्वपूर्ण कदम था। उन्होंने वेदों के प्रचार-प्रसार के लिए भी कई प्रयास किए और भारतीय समाज को अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने न केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन किया, बल्कि स्वयं भी सक्रिय रूप से आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने 1919 के अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध जोरदार भाषण दिया, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि “सामाजिक भेदभाव के कारण हमारे करोड़ों भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, लेकिन अब हमें मिलकर इसे समाप्त करना होगा।” उन्होंने देशवासियों से अपील की कि वे छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों को समाप्त कर एक समरस समाज का निर्माण करें।
स्वामी श्रद्धानंद हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रबल समर्थक थे। उन्होंने 4 अप्रेल 1919 में दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद में एक प्रेरणादायक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने वेद मंत्रों का उच्चारण किया। यह घटना अपने आप में अभूतपूर्व थी और यह दर्शाती थी कि वे सच्चे अर्थों में धार्मिक एकता के पक्षधर थे। उन्होंने सदैव सभी धर्मों की समानता पर बल दिया और उनके विचारों ने समाज को नई दिशा दी।
हुआ यूं कि 04 अप्रैल का दिन था वर्ष ईस्वी सन् 1919 शुक्रवार था, जुम्मा था। जुम्मे की सामूहिक नमाज जामा-मस्जिद में दी जानी थी अतः बहुत भीड़ थी। लोग अंग्रेजों द्वारा की गई अन्धाधुन्ध गोलोबारी से परेशान थे अतः हिन्दू-मुस्लिम शहीदों की प्रार्थना सभा का आयोजन जामा-मस्जिद में किया गया था।
शुद्धि आन्दोलन के अग्रणी, गुरुकुल-कांगड़ी के संस्थापक, अछूत-दलित-उद्धारक स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली में ही थे लोगों के आग्रह पर उन्हें जामा-मस्जिद ले जाने की योजना बनी। एक गैर-मुस्लिम व्यक्ति को नमाज के समय मस्जिद में प्रवेश करना उचित न था अतः सलाह, अनुमति का इंतजार किया गया। |
दोपहर के समय 50 लोगों ने घर आ कर स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रेमपूर्वक आग्रह से, तांगे में बिठा कर जामा-मस्जिद ले जाने लगे लेकिन तांगा धीमे चल रहा था अतः कार में बिठाया गया। जामा-मस्जिद की दक्षिण दिशा की सीढ़ियों से प्रवेश किया। मस्जिद में स्वामी-श्रद्धानन्द जी को देखते ही जो लोग नमाज अदा कर अपने घर जा रहे थे वे वापस लौटने लगे और “महात्मा गाँधी के जय”, “हिन्दू-मुस्लिम एकता की जय” आदि नारे लगाने लगे।
मस्जिद में 30 हजार लोग उपस्थित थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी को आग्रहपूर्वक मस्जिद की उपदेश-वेदी पर ले जाया गया, स्वामी जी संकोचपूर्वक उपर गए, मौलाना अब्दुलमजीद अपने प्रवचन को समाप्त कर स्वामी-श्रद्धानन्द जी से आग्रह करने लगे की वेद के अनुसार सन्देश दें। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने जामा-मस्जिद से प्रथम-प्रवचन देना शुरू किया और निम्न वेद-मन्त्र बोला .
ओ३म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ ।
अधा ते सुम्नमीमहे।। (ऋग्वेद 8-98-11)
अपार जनता से कहा कि, वह शहीदों के बेकसूर होने की साक्षी दें और परमात्मा के चरणों में नत होवें जो सबका पिता और सबकी माता है। उर्दू कवि के निम्न उद्धरण को पढ़ा :-
हिन्दू सनम में जलवा पाया तेरा।
आतिश पै फिगां ने रस गाया तेरा।
देहरी ने किया देहर से ताबीर मुझे।
इन्कार किसी से बन न आया तेरा॥
स्वामी जी ने “ओ३म् शांतिः आमीन” कहा तो सारी सभा ने एक स्वर से सारे स्थान को गुंजाते हुए उसे पुनः उच्चरित किया। यह प्रेरणादायक दृश्य था।
हालांकि, जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाई है, तो उन्होंने इससे अलग होकर हिंदू महासभा के माध्यम से समाज सुधार का कार्य जारी रखा। उन्होंने “शुद्धि आंदोलन” चलाया, जिसका उद्देश्य उन लोगों को पुनः हिंदू धर्म में वापस लाना था, जो जबरन या किसी अन्य कारणवश मतांतरण कर चुके थे। उनका यह आंदोलन विशेष रूप से उन दलित और पिछड़े वर्गों के लिए था, जिन्हें समाज में उचित स्थान नहीं मिल रहा था। उन्होंने जोर देकर कहा कि जातिगत भेदभाव समाप्त किया जाए और सभी भारतीयों को समान अधिकार मिले।
स्वामी श्रद्धानंद ने महिलाओं की शिक्षा के लिए भी अग्रणी भूमिका निभायी थी। जालंधर में पहले कन्या महाविद्यालय की स्थापना का श्रेय स्वामी श्रद्धानन्द को जाता है। वे आर्य समाज द्वारा संचालित अखबार ‘सदधर्म प्रचारक’ में लेखों के माध्यम से गार्गी और अपाला जैसी वैदिक विदुषियों के उदाहरणों का हवाला देते हुए महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रेरित किया करते थे। स्वामी श्रद्धानंद की विचारधारा इतनी प्रभावशाली थी कि उन्होंने हजारों नौजवानों को समाज सुधार और राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित किया। उनके प्रयासों ने भारतीय समाज में एक नई ऊर्जा का संचार किया और देशवासियों को आत्मगौरव का अहसास कराया।
परंतु, उनके विचारों और कार्यों से आक्रोशित होकर कुछ कट्टरपंथी तत्वों ने उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचा और 23 दिसंबर 1926 को अब्दुल रशीद नामक व्यक्ति ने उनकी हत्या कर दी। इस घटना ने देशभर में शोक की लहर दौड़ा दी। इसके बावजूद, उनका योगदान और उनकी शिक्षाएँ आज भी भारतीय समाज के लिए एक मार्गदर्शक बनी हुई हैं।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्वामी श्रद्धानंद को “अछूतों के सबसे सच्चे हितैषी” कहा था। यह कथन स्वयं सिद्ध करता है कि उनका योगदान केवल हिंदू समाज के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण था। आज जब धर्मांतरण और सांस्कृतिक विघटन की समस्याएँ पुनः उठ रही हैं, तब स्वामी श्रद्धानंद के विचारों की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। उनके द्वारा किए गए सामाजिक सुधार, शिक्षा, स्वदेशी प्रचार, दलित उत्थान, वेद प्रचार, अंधविश्वास उन्मूलन और नारी शिक्षा जैसे कार्य आज भी प्रेरणादायक हैं।
स्वामी श्रद्धानंद का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची समाज सेवा और राष्ट्रभक्ति के लिए त्याग और समर्पण की आवश्यकता होती है। उनका बलिदान सदैव स्मरणीय रहेगा और भारतीय संस्कृति एवं समाज सुधार में उनकी भूमिका सदियों तक एक प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।
आचार्य ललित मुनि