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स्वामी सत्यानंद सरस्वती केरल में सनातन पुनर्जागरण के अग्रदूत

स्वतंत्रता के बाद भी भारत में स्वत्व, सनातन परंपरा और भारत राष्ट्रत्व की पुनर्प्रतिष्ठा का संघर्ष कम नहीं हुआ। भारत के विभिन्न प्रांतों में अनेक ऐसी शक्तियाँ सक्रिय रहीं जिनमें कोई वैचारिक साम्य नहीं था, लेकिन वे सनातन के विरुद्ध एकजुट दिखाई देती थीं। इसकी स्पष्ट झलक केरल प्रांत में मिलती है, जहाँ मुस्लिम लीग, वामपंथी और मिशनरीज रूपांतरण के अभियान में एक साथ सक्रिय रहे।
स्वामी सत्यानंद सरस्वती ऐसे ही संन्यासी थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन इस गठबंधन के बीच सनातन परंपराओं को पुनर्प्रतिष्ठित करने में समर्पित कर दिया।

ऐसे ही क्रांतिकारी संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती का जन्म 22 सितम्बर 1933 को केरल प्रांत के तिरुअनंतपुरम के अंतर्गत ग्राम अण्डुरकोणम् में हुआ। परिवार ने उनका नाम शेखरन पिल्लई रखा। उनका परिवार सनातन परंपराओं के लिए समर्पित था। घर में संस्कृत और मलयालम दोनों भाषाओं का वातावरण था। उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव में हुई। आगे की शिक्षा के लिए वे तिरुवनंतपुरम आए। शिक्षा पूर्ण कर वे तिरुवनंतपुरम के माधव विलासम हाई स्कूल में शिक्षक बने। वे बहुत लगन से पढ़ाते थे और अपने विषयों के साथ भारतीय सनातन परंपरा की वैचारिकता और वैश्विकता के बारे में भी समझाते थे।

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यह समय स्वतंत्रता के बाद का आरंभिक काल था। भारत स्वतंत्र तो हो गया था, लेकिन सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल में जो शक्तियाँ समाज के रूपांतरण के लिए सक्रिय थीं, केरल में उनका काम यथावत चल रहा था। एक ओर छद्म सेक्युलरिस्ट थे, जिन्हें कहने को नास्तिक कहा जा सकता है, लेकिन उनका उद्देश्य केवल सनातन परंपरा की आलोचना कर समाज को उसकी जड़ों से दूर करना था। वे कुतर्कों के माध्यम से सनातन नौजवानों में भटकाव पैदा कर रहे थे। दूसरी ओर कट्टरपंथी उलेमा और मिशनरीज रूपांतरण के अभियान में जुटे थे।

यद्यपि ये तीनों धाराएँ अलग थीं, परंतु केरल में इनके बीच एक आंतरिक तालमेल दिखाई देता था। दूसरी ओर सनातन समाज में आंतरिक मतभेद और विभाजन बहुत थे। ऐसी शक्तियाँ कमजोर थीं जो समाज को उसकी विशेषताएँ समझाकर एकजुट कर सकें। इस तरह के सामाजिक दृश्य देखकर युवा शेखरन पिल्लई का मन व्यथित रहता था, और वे समाधान के लिए संतों से चर्चा करते थे।

समय के साथ उनका संपर्क तिरुवनंतपुरम के स्वामी रामदास आश्रम से बना और 1964 में उन्होंने विधिवत दीक्षा लेकर आश्रम से जुड़ाव बढ़ाया। शेखरन पिल्लई 1966 में हुए इतिहास प्रसिद्ध गौरक्षा आंदोलन के सहभागी बने। इसके बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया। उन्होंने संन्यास लिया और पूरी तरह समाज सेवा में प्रवृत्त हो गए। संन्यास के बाद उनका नाम स्वामी सत्यानंद सरस्वती हुआ।

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संन्यासी के रूप में उन्होंने पूरे केरल प्रांत की पदयात्रा की और समाज को एकजुट करने का अभियान शुरू किया। इसके लिए केरल में ‘हिन्दू ऐक्य वेदी’ नामक संगठन की स्थापना की और वे इसके अध्यक्ष बने। वे अध्ययनशील थे। इतिहास, संस्कृति और अध्यात्म उनके प्रिय विषय थे। उनके प्रखर भाषणों और तर्कपूर्ण विश्लेषणों से समाज में नई ऊर्जा और एकत्व का संचार हुआ। 1970 के बाद केरल में विभिन्न हिंदू संगठनों को एक मंच पर लाने में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही।

सामाजिक जागरण के लिए सभा, संगोष्ठियों के साथ उन्होंने ‘पुण्यभूमि’ नामक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारंभ किया और इसके संपादक बने। स्वामी जी आयुर्वेद और वनस्पतियों के औषधीय गुणों के भी जानकार थे। उन्होंने ‘हर्बल कोला’ नामक स्वास्थ्यवर्धक पेय तैयार किया, जो उस समय काफी लोकप्रिय रहा। उन्होंने श्री रामदास मिशन की भी स्थापना की। वे ज्ञान योग, भक्ति योग, राज योग और कर्म योग जैसे विषयों पर अद्भुत व्याख्यान देते थे।

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स्वामी जी श्री रामदास आश्रम, चेंगोट्टूकोणम (तिरुअनंतपुरम) के पीठाधिपति बने। समय के साथ वे विश्व हिंदू परिषद से जुड़े और मार्गदर्शक मंडल के सदस्य रहे। उन्होंने देश-विदेश में कई रामदास आश्रमों की स्थापना की। ‘यंग मैन्‍स हिंदू एसोसिएशन’ और ‘मैथिली मंडलम्’ से उन्होंने बड़ी संख्या में हिंदू परिवारों को जोड़ा।

बाद में वे अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से भी जुड़े। उन्होंने अयोध्या के विद्वानों को केरल आमंत्रित किया और तिरुअनंतपुरम में प्रतिवर्ष रामनवमी मेले की परंपरा प्रारंभ की।
श्रीराम मंदिर आंदोलन की प्रत्येक कारसेवा में वे केरल से संतों और रामभक्तों के बड़े दल के साथ सहभागी हुए।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने अपना संपूर्ण जीवन स्वत्व, संस्कार और सनातन परंपराओं की पुनर्प्रतिष्ठा में समर्पित किया। उन्होंने 73 वर्ष की आयु में 24 नवम्बर 2006 को महाप्रयाण किया। उनकी स्मृति में तिरुअनंतपुरम स्थित आश्रम में प्रतिवर्ष मेला लगता है। आश्रम में उनके ग्रंथों की पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं।