\

धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत : स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती भारतीय समाज में धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत थे। वे एक महान सुधारक, विचारक और आर्य समाज के संस्थापक थे। बोध दिवस वह महत्वपूर्ण दिन है, जब स्वामी दयानंद को अपने आध्यात्मिक लक्ष्य और सत्य की वास्तविकता का साक्षात्कार हुआ। यह दिन उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ था, जिसने उन्हें वेदों के शुद्ध ज्ञान के प्रचार और सामाजिक सुधार की ओर प्रेरित किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म फ़ाल्गुन दसमी, विक्रमी संवत् 1881 तदनुसार 12 फ़रवरी 1824 ईं को गुजरात के मोरबी राज्य के टंकारा नामक स्थान पर हुआ था। उनका बचपन का नाम मूलशंकर था। वे एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे, जहाँ धार्मिक संस्कार बचपन से ही उनके जीवन का हिस्सा बने। उनके पिता अम्बाशंकर एक शिव भक्त थे, और वे अपने पुत्र को भी शिव भक्ति में संलग्न रखना चाहते थे।

महाशिवरात्रि की घटना

स्वामी दयानंद के जीवन में बोध दिवस का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि इसी दिन उन्होंने सांसारिक आडंबरों से मुक्त होकर सत्य की खोज का निर्णय लिया। उनके जीवन में महाशिवरात्रि को आत्मजागरण की घटना घटी। यह घटना तब की है जब मूलशंकर (स्वामी दयानंद) मात्र १४ वर्ष के थे। महाशिवरात्रि के दिन वे अपने परिवार के साथ मंदिर गए और पूरी रात शिवलिंग के सामने बैठकर उपासना करने लगे। आधी रात के समय उन्होंने देखा कि मंदिर में एक चूहा शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खा रहा था और वहां पेशाब भी कर रहा था। यह दृश्य उनके लिए गहरे चिंतन का कारण बना। उन्होंने सोचा – “जो शिवलिंग स्वयं को चूहे से नहीं बचा सकता, वह मेरे और समस्त संसार के दुखों को कैसे हर सकता है?”

इस विचार ने उनके मन में प्रश्नों की ज्वाला जगा दी। वेदों में बताए गए “सत्य” और रूढ़ियों में जकड़े समाज के बीच का अंतर उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। इस घटना के बाद वे अपने पिता और समाज की परंपराओं से प्रश्न करने लगे। उनके विचारों से असहमत होकर परिवार ने उन पर बंधन बढ़ा दिए, लेकिन उन्होंने घर छोड़ने का निर्णय लिया और सत्य की खोज में निकल पड़े। उन्होंने कई वर्षों तक हिमालय, काशी और अन्य स्थानों पर गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया और अंततः वेदों के अध्ययन में स्वयं को समर्पित किया।

बोध दिवस का महत्व

वेदों की ओर लौटने की प्रेरणा स्वामी दयानंद ने दी, बोध दिवस को आत्मज्ञान और जागरूकता का प्रतीक माना। उन्होंने समझा कि सच्ची धार्मिकता किसी मूर्ति या आडंबर में नहीं, बल्कि वेदों के ज्ञान में निहित है। यही विचार बाद में “वेदों की ओर लौटो” (Go Back to Vedas) के रूप में प्रसिद्ध हुआ। स्वामी दयानंद ने समाज में फैले अंधविश्वासों, मूर्तिपूजा, जातिवाद और कर्मकांडों के विरुद्ध अभियान चलाया। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा और स्त्री-शिक्षा के अभाव को लेकर आवाज उठाई। स्वामी दयानंद ने १८७५ में आर्य समाज की स्थापना की, जो वेदों के ज्ञान और समाज सुधार के लिए समर्पित संगठन बना।

आर्य समाज के मंदिरों में हवन-यज्ञ और वेदों के मंत्रों का पाठ किया जाता है। यज्ञ को स्वच्छ पर्यावरण और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। विचार गोष्ठियों का आयोजन कर स्वामी दयानंद के जीवन और उनके विचारों पर चर्चा की जाती है। समाज में व्याप्त बुराइयों के समाधान पर मंथन किया जाता है। विद्यालयों और गुरुकुलों में शिक्षा और स्वामी दयानंद के संदेशों पर व्याख्यान दिए जाते हैं।

हिंदू धर्मांतरण को रोकने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य

आर्य समाज ने हिंदू धर्मांतरण को रोकने की दिशा में सबसे पहले कार्य किया। स्वामी दयानंद ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की और वेदों की ओर लौटो” (Go Back to the Vedas) का नारा दिया। उनका मानना था कि यदि हिंदू धर्म अपनी जड़ों को मजबूत करेगा, तो धर्मांतरण की समस्या स्वतः ही समाप्त हो जाएगी। स्वामी दयानंद सरस्वती के बाद, स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आंदोलन को आगे बढ़ाया और बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कर चुके लोगों की हिंदू धर्म में वापसी करवाई। उन्होंने विशेष रूप से पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में इस आंदोलन को प्रभावी ढंग से चलाया। आर्य समाज ने विशेष रूप से 19वीं और 20वीं शताब्दी में हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना और समाज सुधार के लिए सक्रिय रूप से कार्य किया।

  1. शुद्धि आंदोलन
    आर्य समाज ने उन हिंदुओं की घर वापसी सुनिश्चित करने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया, जो विभिन्न परिस्थितियों में इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुके थे। इस आंदोलन का उद्देश्य हिंदू धर्म को सशक्त बनाना और धर्मांतरण के प्रभाव को कम करना था।
  2. धर्मांतरण के खिलाफ जनजागरण
    आर्य समाज के नेता और प्रचारक गाँव-गाँव जाकर हिंदुओं को उनके धर्म, संस्कृति और मूल्यों के बारे में जागरूक करते थे, ताकि वे मिशनरियों या जबरन धर्मांतरण से बच सकें।
  3. ईसाई और इस्लामी मिशनरियों का विरोध
    ब्रिटिश शासन के दौरान ईसाई मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किए जा रहे थे। आर्य समाज ने वैदिक धर्म और सनातन संस्कृति के प्रचार-प्रसार से हिंदुओं को अपने धर्म में दृढ़ बनाए रखा।
  4. गौ रक्षा और हिंदू संस्कृति का प्रचार
    आर्य समाज ने गौरक्षा, वेदों के अध्ययन और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देकर हिंदू समाज को संगठित किया, जिससे धर्मांतरण के प्रयास कमजोर पड़ें।
  5. सामाजिक सुधार और जातिवाद का उन्मूलन
    कई बार निम्न जाति के लोगों का धर्मांतरण इसलिए होता था क्योंकि उन्हें समाज में अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ता था। आर्य समाज ने जातिवाद के खिलाफ आंदोलन चलाया और समानता का प्रचार किया, जिससे समाज के सभी वर्गों को सम्मान मिला और धर्मांतरण कम हुआ।

बोध दिवस केवल स्वामी दयानंद का आत्मज्ञान दिवस नहीं, बल्कि एक क्रांति का प्रारंभ था। यह वह दिन था जब उन्होंने समाज की रूढ़ियों को चुनौती देने का साहस किया और सच्चे वेद ज्ञान की खोज में निकल पड़े। उनका यह प्रयास भारतीय समाज को एक नई दिशा देने वाला साबित हुआ। बोध दिवस हमें सिखाता है कि हमें आँख मूँदकर परंपराओं का अनुसरण नहीं करना चाहिए, बल्कि सत्य और ज्ञान की खोज करनी चाहिए। “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” – अर्थात पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाओ यही स्वामी दयानंद का सच्चा संदेश है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *