एक अमर स्वर स्वतंत्रता की धुन में : सुब्रमण्या भारती

दक्षिण भारत का सांस्कृतिक परिदृश्य अपनी भाषाई समृद्धि और साहित्यिक परंपराओं के लिए विश्व में विशिष्ट माना जाता है। तमिल भाषा की अनगिनत धाराएँ सहस्त्राब्दियों से कविता, दर्शन, धर्म और सामाजिक चेतना का पोषण करती आई हैं। इसी पवित्र भूमि पर उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में एक ऐसे कवि ने जन्म लिया जिसने न केवल कविता को नया रूप दिया बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की चेतना को शब्द और स्वर दोनों में नया आवेग दिया।
यह महान व्यक्तित्व सुब्रमण्या भारती हैं, जिन्हें लोग आदर से महाकवि भारती या भारतीयार कहकर पुकारते हैं। उनका जन्म 11 दिसंबर 1882 को तमिलनाडु के एट्टायपुरम जैसे छोटे से गाँव में हुआ। जीवन केवल उनतालीस वर्षों का रहा, लेकिन उनमें समाई संवेदना, विद्रोह, करुणा और मानवीयता ने उन्हें अमर बना दिया।
भारती का जन्म एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता चिन्नास्वामी अय्यर तमिल भाषा के विद्वान थे और एट्टायपुरम के राजघराने में कवि दरबार के प्रमुख के रूप में प्रतिष्ठा रखते थे। माता लक्ष्मी अम्मल को उन्होंने बहुत कम समय तक ही देखा, क्योंकि पाँच वर्ष की उम्र में ही उनका साया छिन गया। कुछ ही वर्ष बाद पिता भी चल बसे और बालक भारती जीवन की कठोरता से अकेले जूझने लगे। इन कठिनाइयों ने उनके भीतर अद्भुत दृढ़ता और संवेदनशीलता का विकास किया।
बचपन से ही उनमें साहित्यिक प्रतिभा की ज्योति जग चुकी थी। सात वर्ष की उम्र में उन्होंने संस्कृत में कविता लिखना शुरू कर दिया और ग्यारह वर्ष की अवस्था में एट्टायपुरम के कवि सम्मेलन में अपनी रचना सुनाकर विद्वानों से सर्वस्वती जैसी उपाधि प्राप्त की। यह उस दौर की बात है जब तमिल साहित्य परंपरा में जकड़ा हुआ था, और नवजागरण की आवश्यकता स्पष्ट महसूस की जा रही थी। भारती आने वाले समय में इसी नवजागरण के सूत्रधार बने जिन्होंने तमिल भाषा को सरल, सहज, प्रांजल और जनसुलभ रूप में नई दिशा दी।
उनकी औपचारिक शिक्षा सीमित थी लेकिन आत्म-अध्ययन की क्षमता अद्भुत थी। एट्टायपुरम और मदुरै के विद्यालयों में पढ़ते हुए उन्होंने तमिल और संस्कृत की गहराई को समझा, वहीं अंग्रेजी ने उन्हें विश्व साहित्य और आधुनिक विचारधाराओं से जोड़ा। लेकिन उनकी असली शिक्षा जीवन के अनुभवों और यात्राओं ने दी। 1902 में वह वाराणसी पहुँचे और वहाँ भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र को नजदीक से महसूस किया। गंगा के तट पर रहते हुए उन्होंने वेदांत, भारतीय दर्शन और राष्ट्रवाद की धारा से जुड़ाव महसूस किया।
स्वामी विवेकानंद के विचारों ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया और सिस्टर निवेदिता के संपर्क से उनके भीतर सोई हुई राष्ट्रभक्ति को एक नई दिशा मिली। यह वही समय था जब वे अनेक भाषाओं के अध्ययन में रम गए। तमिल, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगाली के साथ उन्होंने कई विदेशी भाषाएँ भी सीखीं। उस समय लोगों को आश्चर्य होता था कि एक युवा कितनी गति से विभिन्न भाषाओं में संवाद और लेखन कर सकता है। यह भाषाई विविधता उनकी रचनाओं के सौंदर्य में स्पष्ट दिखती है जहाँ वे पूर्व और पश्चिम दोनों के विचारों को भारतीय मर्म से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं।
कलकत्ता जाकर उन्होंने बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय से मुलाकात की। इन सब की निर्भीक विचारधारा और अहर्निश संघर्ष भावना ने उन्हें प्रभावित किया। गरम दल के इन नेताओं के विचारों ने भारती के हृदय में स्वराज की पुकार को और जोर से गूँजाया। उनके भीतर छिपा क्रांतिकारी अब जाग चुका था। वे मानने लगे कि परतंत्र भारत को राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों स्तरों पर स्वतंत्र होना चाहिए। यह भावना आगे चलकर उनकी कविताओं और लेखों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
भारती की साहित्यिक यात्रा पत्रकारिता से आरंभ हुई। 1904 में वे चेन्नई के प्रमुख तमिल दैनिक स्वदेशमित्रन से जुड़े। यहाँ उन्होंने निर्भीक राष्ट्रवादी लेख लिखे जिनमें अंग्रेजी शासन की नीतियों की खुलकर आलोचना की जाती थी। लेकिन ब्रिटिश सेंसरशिप के कारण उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसीलिए 1906 में उन्होंने अपना साप्ताहिक पत्र इंडिया शुरू किया। यह लाल कागज पर छपता था और उसमें राजनीतिक व्यंग्य, लेख, कविताएँ और कार्टून होते थे।
इस पत्र का उद्देश्य सिर्फ समाचार देना नहीं था, बल्कि जनता के बीच राष्ट्रचेतना की आग पैदा करना था। जल्द ही उन्होंने बाला भारतम नामक अंग्रेजी साप्ताहिक शुरू किया जिसमें बच्चों को राष्ट्रभक्ति और चरित्र निर्माण के लिए प्रेरणादायक सामग्री दी जाती थी। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका यह योगदान अभूतपूर्व है, क्योंकि उन्होंने इसे सामाजिक क्रांति का माध्यम बनाया और जनजागरण के लिए अपना पूरा जीवन दांव पर लगा दिया।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका कभी भुलाई नहीं जा सकती। 1905 के बनारस कांग्रेस सत्र में उन्होंने पहली बार भाग लिया और स्वराज की माँग को खुलकर सामने रखा। 1906 के कलकत्ता कांग्रेस सत्र में दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के प्रस्ताव को उन्होंने भावनात्मक और तर्कपूर्ण रूप से समर्थन दिया। 1907 के सूरत कांग्रेस अधिवेशन में गरम दल और नर्म दल के बीच हुए मतभेद के समय वे तिलक के साथ खड़े रहे। इस कारण अंग्रेजी शासन की नजर उन पर गड़ गई।
1908 में गिरफ्तारी की संभावना बढ़ने पर वे पांडिचेरी चले गए, जो कि उस समय फ्रांसीसी क्षेत्र था। पांडिचेरी में उन्होंने लगभग आठ वर्ष निर्वासन में बिताए, लेकिन यह समय उनकी सृजनशीलता का स्वर्णकाल बन गया। वहाँ उनकी मुलाकात श्री अरविंद से हुई और उन्होंने ‘कर्मयोगी’ तथा ‘आर्या’ जैसी पत्रिकाओं के संपादन में योगदान दिया। इसी दौरान उन्होंने राष्ट्रभक्ति की अनगिनत अमर रचनाएँ लिखीं जिनमें स्वदेश गीतांगल जैसे काव्य संग्रह आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।
1918 में जब वे पांडिचेरी से लौटे तो ब्रिटिश शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, हालांकि बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। परंतु उनकी लेखनी और विचारों पर किसी प्रकार का बंधन नहीं लगाया जा सका। जिस निर्भीकता से उन्होंने राजनीतिक अत्याचारों, सामाजिक बुराइयों और धार्मिक संकीर्णताओं पर प्रहार किया वह उन्हें महान बनाती है। 1917 की रूसी क्रांति पर लिखी उनकी कविता पुटिया रूस में उन्होंने दुनिया की क्रांतियों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझाने की कोशिश की। वह मानते थे कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक घटना नहीं है, बल्कि यह मन और समाज की जंजीरों को खोलने की प्रक्रिया है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ उस समय लोकगीतों की तरह गाँव गाँव में गाई जाती थीं और युवाओं को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करती थीं।
भारती की रचनाएँ विषय, शैली और भावनाओं के स्तर पर अत्यंत व्यापक हैं। उन्होंने राष्ट्रभक्ति, प्रकृति, प्रेम, भक्ति, दर्शन और समाज सुधार जैसे अनेक विषयों पर लिखा। उनकी कृति पांचाली सपथम द्रौपदी की प्रतिज्ञा को आधार बनाकर लिखी गई है, जिसमें उन्होंने स्त्री की शक्ति और आत्मसम्मान का चित्र खींचा है। यहाँ द्रौपदी केवल पौराणिक पात्र नहीं रह जाती, बल्कि वह आधुनिक स्त्री की प्रतीक बन जाती है जो अन्याय के विरुद्ध खड़ी होने का साहस रखती है।
कन्नन पातु में उन्होंने बाल कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा और जीवन की सरल खुशियों का वर्णन किया। कुयिल पातु प्रकृति और मानव जीवन के मधुर संबंधों का सुंदर रूपक है। पापा पातु बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई रचनाएँ हैं जो सरल भाषा में देशभक्ति, ज्ञान और नैतिकता का संदेश देती हैं। चिन्नांचिरु किल्ली में उन्होंने बच्चों को ब्रह्मांड के रहस्य और कल्पनाओं की दुनिया से जोड़ा है।
हिंदी अनुवादों में उनकी अनेक कविताएँ लोकप्रिय हुईं। भारत मेरा देश जैसी पंक्तियों वाले गीतों में उन्होंने भारत की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधता को एक परिवार की तरह प्रस्तुत किया। वंदेमातरम को उन्होंने तमिल भावना के साथ नई ध्वनि दी। स्वतंत्रता का गान में उन्होंने स्वतंत्रता देवी की स्तुति की और बताया कि मुक्ति केवल शासन परिवर्तन से नहीं आती, बल्कि यह प्रत्येक मनुष्य की चेतना से उपजती है। भारतीय माता की नवरत्न माला में भारत के नौ प्रमुख गुणों और विविधताओं को रत्नों की तरह सजाया गया है। रूसी क्रांति पर आधारित उनकी कविता में उन्होंने दमन के विरुद्ध संघर्ष को सार्वभौमिक सत्य बताया।
भारती का समाज सुधारक रूप भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वह छुआछूत, जाति आधारित भेदभाव, बाल विवाह, स्त्री अत्याचार और रूढ़िवादी प्रथाओं के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्री को देवी का रूप देते हुए उसे राष्ट्र की रानी बताया। चक्रवर्तिनी नामक कविता में उन्होंने स्त्री की अधिकारपूर्ण छवि प्रस्तुत की। वह विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा के समर्थक थे। उन्होंने अपनी पत्नी चेल्लम्मा को बाल कटवाने पर प्रोत्साहित किया क्योंकि उनका मानना था कि स्त्री की स्वतंत्रता उसके व्यक्तित्व से शुरू होती है, किसी पोशाक या परंपरा से नहीं। ज्ञानारथम में उन्होंने कहा कि शिक्षा ही समाज की मुक्ति का मार्ग है। हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति वर्ग या समुदाय से हो ज्ञान की रोशनी पाने का समान अधिकार रखता है।
मात्र उनतालीस वर्ष की अवस्था में 12 सितंबर 1921 को चेन्नई में एक दुर्घटना ने उनका जीवन छीन लिया। कहा जाता है कि एक घायल बंदर ने उन्हें काटा और संक्रमण बढ़ता चला गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु साहित्य और समाज दोनों के लिए भारी क्षति थी। किंतु उनका जीवन इतना व्यापक और गहन था कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनके विचार और कविताएँ जीवित रहीं और आज भी नई पीढ़ी को प्रेरणा देती हैं।
भारती की विरासत को भारत सरकार और तमिलनाडु सरकार दोनों ने संजोया है। 1949 में उनके साहित्य का राष्ट्रीयकरण किया गया। 1960 में उनका स्मारक डाक टिकट जारी हुआ। 1987 में सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार की स्थापना हुई और 2021 में भारती युवा कवि पुरस्कार शुरू किया गया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उनके नाम पर एक शोध पीठ स्थापित है। उनकी जन्मजयंती तमिलनाडु में भारतीय भाषा उत्सव के रूप में मनाई जाती है।
इस दिन विद्यालयों और विश्विद्यालयों में उनकी कविताएँ पढ़ी और गाई जाती हैं। वह पूरी दुनिया को बताते हैं कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह मनुष्यता की पूर्णता का मार्ग है। जब दुनिया विभाजनों, संघर्षों और असहिष्णुता के दौर से गुजर रही हो, तब भारती का संदेश और भी अर्थपूर्ण हो जाता है। उनका संदेश है कि प्रेम, समानता, और साहस जैसे मूल्य किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी हैं।
भारती स्वयं कहते थे कि कविता शब्दों का संगीत है जो मन को छू ले। उन्होंने यह भी कहा कि मैं हवा हूँ जो आग को भड़काती हूँ। यह बात सही है कि उनकी कविताओं ने उस समय भारतीय समाज में क्रांति की आग जगाई और आज भी नई चेतना का संचार करती हैं। वह कवि थे, योद्धा थे, पत्रकार थे और सबसे बढ़कर एक मानवतावादी थे। उनका जीवन सिखाता है कि एक व्यक्ति भी अपने विचारों और कर्मों से पूरे समाज की दिशा बदल सकता है। महाकवि सुब्रमण्या भारती इसलिए सदैव याद किए जाते रहेंगे, क्योंकि उन्होंने भारत के लिए केवल स्वतंत्रता का स्वप्न ही नहीं देखा, बल्कि मनुष्य की आत्मा को स्वतंत्र करने का मार्ग भी दिखाया।
लेखिका साहित्यकार एवं हिन्दी व्याख्याता हैं।

