\

आर्यावर्त का द्वार द्वारका और श्रीकृष्ण मिथकीय नहीं

श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका का समुद्र में समाना एक प्राकृतिक घटना है जिस काल में द्वारका नगरी समुद्र में डूबी उस दौरान दुनिया के अनेक भागों में ऐसी घटनाएं घटी जिस दौरान कई नगर समुद्र की डूब में आ गए। श्रीकृष्ण का वराह अवतार मिथक अवधारणा नहीं है और ना द्वारका नगरी। कृष्ण के वराह अवतार के सांकेतिक चिन्ह भारत की धार्मिक परंपरा और रीति-रिवाजों में ही नहीं सिमटे हैं बल्कि अनेक बड़े संस्थानों ने श्रीकृष्ण के नव स्वरूप को अपना ‘लोगो’ बनाया है। इन संस्थानों का ‘लोगो’ श्रीकृष्ण को दर्शाने का है या नहीं..! या केवल कल्पना से ‘लोगो’ बनाया गया है, यह कहा नहीं जा सकता!

अरब सागर में डूबी द्वारका-

अरब सागर में जलमग्न द्वारिका के अवशेष

द्वारका 3102 ईसा पूर्व समुद्र के डूब में आ गई। द्वापर युग का अंत और कलियुग का प्रारंभ हुआ इस दौरान यह प्राकृतिक घटना घटी। श्रीमद्भागवत पुराण व अन्य ग्रंथों में इसका उल्लेख किया गया है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार कलियुग 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व की मध्य रात्रि से शुरू हुआ। द्वापरयुग से कलियुग में पृथ्वी में प्रवेश किया और ठीक इसी समय अरब सागर की आक्रामक लहरें द्वारका की सुदृढ़ दीवारों से टकराने लगी और कुबेर निर्मित द्वारका देखते ही देखते डूब गई

द्वारका का निर्माण

महाराज रैवतक ने समुद्र से भूमि छीनकर ‘कुशस्थली’ का निर्माण किया। समुद्र से भूमि छीनने का अभिप्राय वैज्ञानिक प्रक्रिया से समुद्र से भूमि अधिग्रहण किया गया। रैवतक कृष्ण के बड़े भाई बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे जिन्होंने समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ किया और यह कुशस्थली कहलाई। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण से पता चलता है कि इसी कुशस्थली पर श्रीकृष्ण ने विश्व की सबसे पहली स्वर्ण नगरी द्वारका बसाई। द्वारिका के निर्माण के लिए यम सभ्यता के वास्तुकार कुबेर को निर्माण कार्य सौंपा था। मथुरा से श्रीकृष्ण अपने भाई बांधव और नागरिकों सहित द्वारका आए, और उन्होंने 36 साल तक राज किया और वे द्वारकाधीश कहलाए।

द्वारका अर्थात कई द्वारा वाला नगर, संस्कृत में जिसे द्वारवती कहा गया है। द्वारका अर्थात समुद्र में खुलने वाला आर्यवर्त का द्वार था जैसे आज गेटवे ऑफ इंडिया बना हुआ है। श्रीकृष्ण की पौराणिक राजधानी द्वारका के चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारें थीं। गुजरात के दक्षिण पश्चिम कोने में स्थित समुद्र के किनारे चार धामों से एक वर्तमान में दो द्वारका है।पहला गोमती द्वारका धाम, और बेट द्वारका जो समुद्र के बीच टापू में स्थित है। जैन सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारका के 12 योजन लंबे 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख मिलता है। द्वारका के वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलकापुरी से की जाती रही।

द्वारका नगर का अस्तित्व-

 

मोहन जोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त नौ पशुचिन्ह आकृति

द्वारका काल्पनिक नगरी नहीं है। राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी) ने दिसंबर 2000 में समुद्र में 800 फीट नीचे एक विशाल नगर संरचना का अध्ययन किया इसी आधार पर ‘ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट एंड साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ के निर्देशक डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने दावा किया कि एनआईओटी ने 9500 साल पुरानी सभ्यता के अवशेषों की खोज की है उन्होंने दावा किया कि हड़प्पा सभ्यता से पूर्व एक सभ्यता के अवशेष गुजरात के तट से दूर खंभात की खाड़ी में समुद्र के नीचे मिले हैं। द्वारका की खोज महाभारत और श्रीकृष्ण काल की खोज है जिसमें भारत की प्राचीन सभ्यता संस्कृति की सनातन परंपरा पुष्ट होती है।

द्वारका की प्राचीन मुद्रा-

द्वारका की खोज 80 के दशक से की जा रही है थी। ‘काउंसिल आफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च’ के तहत डॉ. आर. एस. राव को आगे की खोज नहीं कर सके। 1980 में डॉ. एस. आर. राव को बेट द्वारका में एक मुद्रा मिली। प्राचीन काल में बेट द्वारका में प्रवेश के पूर्व सुरक्षाकर्मी मुद्रा की जांच करते थे। बेट द्वारका की चेकपोस्ट में मुद्रा की जांच होती थी फिर प्रवेश की अनुमति दी जाती थी। संयोगवश तब किसी जहाज से बेट द्वारका की सुरक्षा चौकी में यह मुद्रा गिर गई होगी जिसे डॉ. राव ने खोज निकाला। बेट द्वारका में जैसी मुद्रा मिली थी ऐसी ही मुद्रा मोहनजोदड़ो में भी मिली है इस मुद्रा से स्पष्ट है कि द्वारका सभ्यता और मोहनजोदड़ो सभ्यता के बीच परस्पर व्यापार होता रहा था। हरिवंश पुराण में द्वारका की मुद्रा के बारे में स्पष्ट रूप से कहा गया है,
मुद्राया स मच्छन्तु राज्ञो ये गंतुमीप्सव:, न चामुद्र प्रवेष्टव्यो द्वारपालाश्य पश्यत:।

मुद्रा याने पहचान पत्र-

परंपरागत रूप से बनाए जाने वाला श्रीकृष्ण का प्रतीक चिन्ह

द्वारका के हर नागरिक के पास एक मुद्रा थी जो आज के पहचान पत्र (आईडी) जैसी थी। मुद्रा में शंख के आवरण से बनी तीन मुखी जानवर के चिन्हांकित हैं। 18 ×20 एम.एम. आकार की मुद्रा पर अंकित किए गए प्राणी के तीन मुख बैल, बकरी और प्राचीन प्राणी एकसिंघा के हैं। द्वारका के हर नागरिक को इसे धारण करना अनिवार्य था।

श्रीकृष्ण का वराहवतार-

वराह अवतार प्राचीन अवधारणा है जो महाभारत की प्रमुख विषय वस्तु है। महाभारत के मोक्ष धर्म- शांति पर्व 93 में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “मेरे वराह रूप का विख्यात और सुंदर ‘त्रिककुत है जिसमें मेरे शरीर चिन्ह में तीन गर्दन बने हुए हैं।’
“तथैवास त्रिककुत वाराहम रूपमस्थित:, त्रिककुत तेन विख्यात: शरीरस्य: तू मापनात।”

रहस्यमय स्वरूप-

जगन्नाथ पुरी के प्राचीन पट चित्र में भगवान श्री कृष्णा

श्रीकृष्ण का रहस्यमय विराट स्वरुप नौ पशु चिन्ह का है। नौ प्रतीक चिन्ह वाले कृष्ण की छवि जगन्नाथ पुरी के प्राचीन पटचित्र में दिखती है। बर्मा और दक्षिण पूर्व एशिया के कौनबंग वंश में नवरूप चिन्ह के नाम से प्रसिद्ध है। तमिलनाडु के थिरूवनमलई मंदिर में श्रीकृष्ण को ऐसे ही चिन्ह में दर्शाया गया है।

मोहनजोदड़ो में नौ पशु चिन्ह से युक्त श्रीकृष्ण को उकेरा गया है। सरला दास की उड़िया महाभारत में भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप में नौ गुण आए हैं। नौ गुणों में नौ पशु चिन्ह का सम्मिश्रण है। यही चिन्ह मोहनजोदड़ो में है जिसमें सर्प और सिंह की आकृति ज्यों की त्यों है। श्रीकृष्ण का एकश्रृंग वराह अवतार मोहनजोदड़ो में मिला है। मोहनजोदड़ो में मिले चिन्ह में एकश्रृंग वराह के साथ ब्राह्मी के अक्षर हैं। ऐसे ही चिन्ह थोड़े बदलते हुए कानपुर और गोरखपुर अंचल में पाए गए हैं।

श्रीकृष्ण का बदलता हुआ चिन्ह जो कई कंपनियों का ‘लोगो’ बना हुआ है

समुद्र में डूबी प्राचीन नगरी द्वारका में श्रीकृष्ण के चिन्ह और मोहनजोदड़ो में ऐसे ही चिन्ह में काफी साम्य है। हाल ही में पुरातत्व सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है। समुद्र में समाई द्वारका साकार हो सामने आ रही है। हिंदुओं ने अपनी प्राचीन धरोहरों को संभाल कर रखा है। भारत की गृहनियां सूप में लाल सिंदूर से श्रीकृष्ण के वराह चिन्ह को ज्यों का त्यों रखी हुई हैं।जिसकी पूजा परंपरागत चली आ रही है। ब्रजभूमि में रहने वाली गुर्जर जाति के लोग इस अल्पना चिन्ह को प्राचीन काल से भगवान श्रीकृष्ण का प्रतीक मानते हैं।

प्राचीन एकश्रृंग वराह चिन्ह से धीरे-धीरे वराह का मुख लुप्त हो गया। बौद्ध काल में भारत के लोग इस प्राचीन चिन्ह को भूल चुके थे उनकी स्मृति में मात्र गोल सिरा ही बचा रहा। इसी चिन्ह को लेकर देश के ग्रामीण क्षेत्रों में श्रीकृष्ण की आकृतियां बनाई जाती है। आश्चर्य की बात है कि कई कंपनियों का ‘लोगो’ ऐसे ही चिन्ह को लेकर बनाया गया है। समुद्र में खुलने वाला आर्यवर्त का द्वार ‘द्वारिका’ और द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की तथाकथित मिथकीय अवधारणा को समाप्त करते हुए सनातन सत्य को सामने रखती हुई अपने अतीत के वेभव को उजागर कर रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *