सन संतावन की क्रांति में छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधित्व का इतिहास
सन संतावन की क्रांति में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाला गौरव ग्राम सोनाखान बलौदाबाजार जिला के कसडोल विकासखण्ड के अंतर्गत ग्राम पंचायत मुख्यालय है। वर्तमान में इस ग्राम की आबादी लगभग 7 हजार है। सन् 1857 में इस गांव की आबादी अनुमानत: 600 रही होगी। यह ग्राम रायपुर से व्हाया बलौदा बाजार 135 कि.मी., बिलासपुर से व्हाया शिवरीनारायण 97 कि.मी., जांजगीर से 88 कि.मी., महासमुंद जिला के पिथौरा से 34 कि. मी. और सराययाली से 94 कि.मी. की दूरी पर है।
सन संतावन की क्रांति (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) के नायक छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह के पूर्वज बिसाही ठाकुर थे। मध्यप्रदेश सूचना एवं प्रकाशन संचालनालय व्हारा प्रकाशित पुस्तिका ‘छतीसगढ़ का प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह” के अनुसार बिसाही ठाकुर बिंझवार राजपूत को रतनपुर के राजा बाहर साय ने लगभग सन 1490 में सैन्य सेवाओं के एवज में सोनाखान की जागीर दी थी। फुलझर की एक झलक-लेखक शंकर लाल साहू के अनुसार वीर नारायण सिंह के पूर्वज बिसाही ठाकुर सारंगढ़ के निवासी और राजा जगदेव साथ के समकालीन थे। उपलब्ध एतिहासिक स्रोतों में सारंगढ़ के इस राजा के नाम की पुष्टि नहीं होती। बिसाही ठाकुर के भाई का नाम प्रसन्न ठाकुर था जो फूलझर की सेवा में और बिसाही ठाकुर रतनपुर राजा की सेवा में थे। रतनपुर के राजा ने बिसाही ठाकुर की वीरता से प्रसन्न होकर ‘सिंघगढ़’ (सोनाखान) का जागीरदार बनाया था तथा फूलझर के राजा ने प्रसन्न ठाकुर को लवन की जागीर प्रदान की थी। उपलब्ध एतिहासिक सूत्रों के अनुसार लवन रतनपुर राज्य के अधीन था और फूलझर करद राज्य था इसलिए प्रसन्न ठाकुर को फूलझर राजा व्दारा जागीर दिया जाना प्रमाणित नहीं होता है।
रतनपुर के राजा बाहर साय (वाहरेंद्र साय) के पुत्र कल्याण साय हुए जो सन 1544 से 1581 तक रतनपुर के राजा रहे। प्राचीन छत्तीसगढ़ (लेखक-प्यारे लाल गुप्त) में उल्लेखित है कि रतनपुर के राजा कल्याण साय को बादशाह जहांगीर का पुत्र परवेज दिल्ली लेकर गया था। राजा कल्याण साय 8 वर्ष तक दिल्ली दरबार में बंदी रहे, इस दौरान उनके सेवादार गोपल्ला राय (गोपाल बिंझिया) उनके साथ रहा। गोपाल बिंझिया उर्फ गोपाल राय की वीरता की कहानियां छत्तीसगढ़ के लोकगीत (गोपाल राय का पवारा) में आज भी गायी जाती है। संभव है कि गोपाल बिंझिया बिसाही ठाकुर बिंझवार राजपूत का वंशज रहा हो क्योंकि छत्तीसगढ़-ओडिशा के सीमांत क्षेत्र में बिंझवार जाति को बिंझिया और बिंझाल कहा जाता है। रतनपुर के राजा कल्याण साय के दिल्ली दरबार जाने की चर्चा छत्तीसगढ़ अभिलेख छवि (संपादक एवं अनुवादक डा. प्रभुलाल मिश्र, आचार्य रामेंद्र नाथ मिश्र) में भी है ।
सन 1818 में रतनपुर राज्य का शासन मराठों से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आया तब सन् 1819 में कैप्टन मैक्सन के नेतृत्व में सोनाखान पर आक्रमण किया गया । जिसमें सोनाखान का जमींदार राम राय पराजित हुआ। मध्यप्रदेश सूचना एवं प्रसारण संचालनालय द्वारा प्रकाशित पुस्तिका में ‘छत्तीसगढ़़ का प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह’ में तब सोनाखान के जमींदार राम राय के अधीन 300 ग्राम थे, जिसे घटा कर लगभग 50 ग्राम कर दिया गया। राम राय शक्तिशाली जमींदार था और सोनाखान तथा आसपास के क्षेत्रों में उसका प्रभाव अंग्रेजों और मराठों से अधिक था। अंग्रेजों को शक्तिशाली जमींदार जो उनकी अधीनता स्वीकार न करता हो, पसंद नहीं था इसलिए सोनाखान पर आक्रमण कर शक्तिहीन किया गया था।
राम राय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नारायण सिंह सन 1830 में सोनाखान का जमींदार बने तब उनकी आयु 35 वर्ष थी। नारायण सिंह लोक हितैषी शासक था। उसका रहन-सहन साधारण था, वह अन्य सामंतों की तरह महल न बनवाकर बांस और मिट्टी से बने कच्चे मकान में रहते थे,’ उल्लेखित है। कच्चे मकान में रहते थे,’ उल्लेखित है।
पड़ोसी राज्य ओडिशा के सरकारी दस्तावेजों के अनुसार नारायण सिंह का विवाह घेंस के जमींदार माधो सिंह बिंझिया की बेटी तुलसी के साथ हुआ था। माधो सिंह ओडिशा राज्य के अत्यंत सम्मानित बहुचर्चित जन नायक थे जो सन् 1857 की क्रांति में अपने 4 पुत्रों क्रमश: हटे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह एवं ऐरी सिंह के साथ शहीद हुए थे।
दिसंबर 1853 में छत्तीसगढ़ में मराठा शासन समाप्त हुआ और 1 फरवरी 1854 को चाल्र्स इलियट डिप्टी कमिश्नर पदासीन हुआ था। इलियट द्वारा कमिश्नर नागपुर को सोनाखान जमींदारी के बारे में भेजे गये पत्र अनुसार 43 परगनों की सूची में लवन परगना के अंतर्गत 322 गांव थे। 10 जून 1855 को रायपुर के डिप्टी कमिश्नर व्दारा कमिश्नर नागपुर को भेजे गये पत्र में लिखा गया है-
‘सोनाखान के संबंध में बताया गया है कि उसमें 12 गांव थे जिसका राजस्व 303 रु. 12 आना था परंतु, उस पर कोई कर (टकोली) नहीं था। वर्तमान में उस परिवार के प्रमुख नारायण सिंह जो बिंझवार राजपूत जाति के हैं, गत 366 वर्षों से इनके पूर्वज बिसई ठाकुर को रतनपुर के राजा बाहर साय ने कर मुक्त जागीर, सैनिक सेवाओं के फलस्वरूप दी थी। इस जमींदारी पर मराठों के समय के पूर्व से कोई कर नहीं था। पर मराठों के विजय के पश्चात बिंबाजी को 1164 फ. सं. में छत्तीसगढ़ उन्हें वाईसरायल्टी में मिला, बिंबाजी सोनाखान से नकदी न लेकर, लकड़ी और लाख का देय स्वीकार किया। यह व्यवस्था फ. सं. 1228 तक रही।
जमींदार राम राजे ने अपने आपको काफी उल्लेखनीय बना लिया था। विशेष रूप से गड़बड़ी के समय जब यह प्रदेश सुपरिटेंडेंट के निर्देशन में आया। अब नये प्रबंध के अनुसार वनोत्पादक वस्तुएं लेना भी समाप्त कर दिया गया। विशेष रूप से रामराजा ने अपने पक्ष को सुपरिटेंडेट के समक्ष लाया। उन्होंने अपने निवेदन में बताया कि राजपूत शासकों के समय में ऐसी कोई भी उगाही उनसे नहीं की जाती थी और यह भी बताया कि उन्हें 300 रु का नामनूक भी दिया जाता था। फलस्वरुप उन्हें नामनूक (सहायता राशि) दिया जाना प्रारंभ हुआ। साथ ही उन्हें 90 रुपए सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए दिया गया जिसमें 30 रुपए उसके स्वयं के लिए और 60 रुपए 15 सुरक्षा बल रखने के लिए (संभवत: यह रकम प्रति माह देय थी)। खरौद में सुरक्षा बल तैनाती के लिए दिया गया था। वर्तमान जमींदार नारायण सिंह अपने पिता की मृत्यु के बाद 1240 फ. सं. में 35 वर्ष की आयु में अधिपति बने। (उल्लेखनीय है कि फसली संवत का प्रारंभ ई. सन 590 से माना जाता है।)
फ. सं. 1245 में देवनाथ मिश्र नामक ब्राह्मण द्वारा तथाकथित अपमानित हुए। क्योंकि जमींदार ने उनसे रकम उधार ली थी, …..को मार डाला। कुछ प्रारंभिक जांच पड़ताल नागपुर में संचालित हुई…..जमींदार को उसके जमींदारी पर पुन: स्थापित कर दिया गया। इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया कि वह कर नहीं देता था।
वर्तमान जमींदार का आचरण कई बार मेरे जानकारी में लाया गया कि वह किसी को कुछ समझता ही नहीं है और आततायी है…उसका यह आचरण विशेष रूप से पड़ोसी जमींदारों पर और लवन और खरोद के परगने में दिखाई दिया। मैंने गंभीरता पूर्वक उससे कहा है…।‘
टीप -डिप्टी कमिश्नर के इस पत्र से स्पष्ट है कि वीर नारायण सिंह के पिता राम राय को सैन्य सेवाओं के बदले कर मुक्त जागीर दिया गया था। सोनाखान जागीर के ग्रामों की संख्या का विवरण उपलब्ध नहीं है किन्तु मराठा शासन स्थापित (1741) के पूर्व अधीनस्थ ग्रामों की संख्या 300 थी। राम राय की मृत्यु सन 1830 में हुई थी और उस पर सन् 1819 में आक्रमण हुआ था। यदि मृत्यु के समय आयु 75 वर्ष भी मान लें तो उसका जन्म मराठा राजा बिंबाजी के राजत्व काल में हुआ होगा और उसके पिता शासक रहे होंगे, जिस पर कर लगाया गया था। राम राय के पूर्वजों को रतनपुर राज्य से बड़ी राशि सुरक्षा व्यवस्था के लिए मिलती थी याने यह क्षेत्र सामरिक महत्व का था। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र से जुड़े हुए फूलझर, चंद्रपुर और सारंगढ़ संबलपुर राज्य के 18 गढ़ गढजात में शामिल थे, जो पूर्व में रतनपुर के करद राज्य थे। सामरिक दृष्टि से सोनाखान का क्षेत्र संवेदनशील था इसलिए रतनपुर राज्य अपनी सीमा की सुरक्षा का भार सोनाखान के सामंत को सौंपा था। संभव है कि रतनपुर राज्य में मराठा आक्रमण के समय जिन सामंतों ने मराठों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार हुए उसमें सोनाखान भी शामिल रहा हो। मराठा राजा बिंबाजी को कवर्धा, पंडरिया, कोरबा और धमधा के सामंतों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। अंग्रेजों के दस्तावेजों के अनुसार बिंबाजी की मृत्यु सन 1787 में सैन्य अभियान के दौरान महासमुंद जिला के नर्रा जमींदारी में हुई थी जहां उसकी समाधि बनी हुई है। यद्यपि बिंबाजी की मृत्यु का स्पष्ट कारण नहीं बताया गया है किन्तु ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार वे खरियार रियासत के सीमांत क्षेत्रों में विद्रोह का दमन करने सैन्य अभियान में गए और घायल हुए थे।
सन् 1818 तक सोनाखान जागीर के 300 ग्रामों में से 250 गांव छीन लिये गये और 1854 तक 12 ग्राम ही बचे थे। वीर नारायण सिंह ने सन 1835 में जिस देवनाथ मिश्र की हत्या की थी उसे कोटगढ़ (अकलतरा के निकट) का सामंत बताया जाता है और सोनाखान के पड़ोसी खरोद और लवन के तत्कालीन सामंत मिश्र परिवार से होना बताया जाता है। संभव है कि मिश्र परिवार मराठों का समर्थक रहा हो जिसके कारण सोनाखान से व्देष रहा हो और नारायण सिंह द्वारा हत्या कर दी गई। जब तक डिप्टी कमिश्नर इलियट द्वारा नागपुर कमिश्नर को भेजे गये पत्रों की मूल प्रति नहीं मिलती है, तब तक सटीक अनुमान लगाना संभव नहीं है।
रायपुर से पुरी यात्रा के लिए मुख्य मार्ग फुलझर जमींदारी के बसना-सरायपाली से होकर गुजरता है। एतिहासिक संदर्भों के अनुसार मराठा राजा के पुरी यात्रा के दौरान फूलझर राज्य में उस पर तथा एक अंग्रेज अधिकारी पर आक्रमण होने की जानकारी मिलती है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर से संबंधित साहित्यों के अनुसार मुगल काल में 18 आक्रमण हुए थे और अंतिम बार 1882 में लूटने का प्रयास हुआ था। संभव है कि पुरी जाने वाले तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा एवं सुविधा के लिए रतनपुर राज्य द्वारा सोनाखान के सामन्त को दायित्व दिया गया जिसका व्यय भार राज्य कोष से उठाया जाता हो।
9 वीं से 18 वीं सदी के मध्य भगवान जगन्नाथ के मंदिर में 18 बार आक्रमण हुए थे, जिसका संक्षेप विवरण इस प्रकार है-
- राष्ट्रकूट राजा गोविंदा ढ्ढढ्ढढ्ढ के सेनापति रक्तबाहु (839 ई.) 2 इलियास सुलतान (1340 ई.) 3. फिरोज शाह तुगलक (1360 ई.) 4 – इस्माइल गाजी ( 1509 ई.) 5. काला पहाड़ (1568 ई.) 6. सुलेमान (1592 ई.) 7. इस्लाम खान/मिर्जा खुर्रम (1601 या 1607 ई.) 8. कासिम खान (1609 ई.) 10. केशवदास मारु (1610 ई.) 11. कल्याण मल (1611 ई.) 11. कल्याण मल (1612 ई.) 12. मुकरम खान (1614 ई.) 13. मिर्जा अहमद बेग (1621 ई.) 14. मिर्जा मक्की (1641 ई.) 15. अमीर फतेह/मुत्क्वाह खान (1647 ई.) 16. इकराम खान/मस्तराम (1692 ई.) 17. मुहम्मद तकी (1731 ई.) एवं 18. दशरथ खान (1733 ई.)।
पुरी धाम की यात्रा का मार्ग सोनाखान जमींदारी के निकट फुलझर जमींदारी से होकर गुजरता है इसलिए कलचुरी राजाओं ने यात्रियों की सुरक्षा एवं सुविधा का दायित्व सोनाखान के जमींदारों को दिया था जिसका व्यय भार राजकोष से उठाया जाता था।
फरवरी 1856 में रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट के पत्र क्रमांक 71 में सोनाखान जमींदारी के एक व्यापारी को लूटे जाने का वर्णन है। डिप्टी कमिश्नर ने सूचित किया है कि, ‘जमींदार नारायण सिंह के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया गया है और वह भूमिगत हो गया है।‘ डिप्टी कमिश्नर गुस्से में दिख रहे है, ने लिखा है कि ‘यह हमेशा उत्पाती स्वभाव का रहा है और टकोली भी नहीं पटाता है। वह उसके विपरीत हमसे 564 रु. 1 आना 7 पाई प्राप्त करता है।
इस पत्र से स्पष्ट होता है कि सन 1854 में कंपनी शासन लगते ही सोनाखान पर अतिरिक्त कर लगा दिया गया किन्तु जमींदार नारायण सिंह पूर्ववत 300+90=390 रु. की राजकीय सहायता राशि से 176 रु. 1 आना 7 पाई की वृद्धि भी गई थी। बड़ा सवाल यह उठता है कि रतनपुर राज्य और उसके बाद कंपनी सरकार इतनी बड़ी राशि सोनाखान जमींदार को क्यों देती थी?
डिप्टी कमिश्नर इलियट के पत्र क्रमांक 72 दिनांक 16 फरवरी 1857 द्वारा कमिश्नर को सूचित किया गया है कि ‘सोनाखान के जमींदार को पकडऩे के लिए मुल्की घुड़सवारों की एक इकाई भेज दी गई है। वह बाद में संबलपुर में 24 अक्टूबर 1856 को पकड़ा गया और अब वह अदालत के समक्ष पेश हुआ है और ट्रायल जारी है।‘ इस संबंध में पड़ोसी ओडिशा के घेंस एवं बरगड़ के जानकारों का कहना है कि नारायण सिंह को घेंस में गिरफ्तार किया गया था। घेंस संबलपुर राज्य के अंतर्गत था इसलिए अंग्रेज आधिकारी द्वारा संबलपुर में गिरफ्तार किया जाना लिखा गया है। कतिपय इतिहासकार मानते हैं कि नारायण सिंह की गिरफ्तारी संबलपुर मार्ग में किसी स्थान में हुई थी।
डिप्टी कमिश्नर इलियट पत्र क्रमांक 73 दिनांक 15 सितंबर 1857 द्वारा नागपुर मुख्यालय को सूचित करते हैं कि ’27 अगस्त की रात्रि में जमींदार नारायण सिंह एवं 3 अन्य कैदी दीवाल में सुराख बनाकर भाग गये हैं।‘
सोनाखान जमींदार नारायण सिंह द्वारा जेल तोड़कर भागने भी चर्चा इतिहासकार एवं साहित्यकार करते हैं लेकिन 3 अन्य कैदी कौन थे और उनके साथ क्या हुआ? इसकी जानकारी नहीं देते। म.प्र. सूचना एवं प्रकाशन संचालनालय व्दारा प्रकाशित पुस्तिका छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह के अनुसार जेल की दीवाल में सुराख बनाने भी घटना की जांच कराई गई थी। रायपुर में जमींदार नारायण सिंह के वकील (नाम का उल्लेख नहीं है) के घर की तलाशी में एक कागज मिला, जिसमें तीसरी रेजिमेंट के लांस नायक शमशेर बहादुर का नाम लिखा था। जांच में शमशेर बहादुर का जमींदार नारायण सिंह से संपर्क होना पाया गया और डिप्टी कमिश्नर द्वारा उसकी कोर्ट मार्शल करने भी सिफारिश की गई किन्तु कंपनी कमांडर व्दारा साक्ष्य के अभाव में कार्यवाही से इंकार कर दिया गया।‘
रायपुर जेल तोडऩे भी घटना को लेकर घेंस जमींदार की जानकारी रखने वालों का मानना है कि यह घटना जमींदार माधो सिंह जो नारायण सिंह के ससुर थे, की सहायता से कराई गई थी। वे यह भी मानते हैं कि हजारीबाग जेल से वीर सुरेंद्र साय को भी उन्होंने ही निकलवाया था। कहा जाता है कि रायपुर जेल तोड़कर जमींदार नारायण सिंह सीधे घेंस पहुंचे जहां सुरेन्द्र साय उपस्थित थे। घेंस जमींदार माधो सिंह के मार्गदर्शन में विद्रोह को रायपुर एवं संबलपुर प्रशासनिक इकाई के अन्य जमींदारियों तक विस्तार करने की योजना बनाई गई। विशेष उल्लेखनीय यह है कि तब संबलपुर राज्य, छोटा नागपुर सैन्य-प्रशासनिक इकाई के नियंत्रण में था। घेंस जमींदार माधो सिंह संबलपुर राज्य के 18 गढ़ गढज़ात के बोड़ासांभर जमींदार बिनोद सिंह बरिहा के पांचवीं पीढ़ी के वंशज थे। घेंस जमींदार और उनके पुत्रों की वीरता के अनेक किस्से छत्तीसगढ़ ओडिशा के सीमांत क्षेत्रों में लोक गीतों, लोक नाट्यों एवं कहानियों में आज भी जीवंत है।
इस प्रसंग में मेरा मत है रायपुर के डिप्टी कमिश्नर व्दारा कमिश्नर नागपुर एवं सैन्य अधिकारियों को भेजे गये प्रतिवेदनों एवं पत्रों का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया जाना उचित होगा क्योंकि वीर नारायण सिंह के घेंस जाते ही क्रांतिकारियों की गतिविधियां तीव्र हो गई थी और रायपुर से संबलपुर जाने वाले मार्ग की घाटियों को कब्जे में लेकर आवागमन अवरुद्ध कर दिया गया था। उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोंतों के अनुसार क्रांतिकारियों और कैप्टन वुड के नेतृत्व वाली कंपनी सेना के बीच महासमुंद जिला के सिंघोड़ा एवं निशा घाटी में 26 दिसंबर 1857 को मुठभेड़ हुई जिसमें अनेक क्रांतिकारी शहीद हुए और कंपनी के अनेक सैनिक भी मारे गये तथा कैप्टन वुड घायल होकर संबलपुर भाग गया था।
कार्यपालक असिस्टेंट कमिश्नर स्मिथ द्वारा कमिश्नर इलियट को 9 दिसंबर 1857 को विस्तृत प्रतिवेदन दिया गया था जिसमें उसने रायपुर से सैन्य टुकड़ी की रवानगी, जमींदार नारायण सिंह की गिरफ्तारी एवं रायपुर मुख्यालय वापसी का वृतांत है।
म.प्र. सूचना एवं प्रसारण संचालनालय व्दारा प्रकाशित पुस्तिका छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह में उल्लेखित है कि ‘नारायण सिंह की अविलंब गिरफ्तारी के लिए डिप्टी कमिश्नर इलियट ने कैप्टन स्मिथ को आदेश दिया कि वह सोनाखान जाए। तद्नुसार वह लेफ्टिनेंट नेपियर के अतिरिक्त 53 सवार पुलिस 4 वफादार तथा तथा एक जमादार की सेना को साथ लेकर 10 नवंबर 1857 को सुबह रायपुर से सोनाखान के लिए रवाना हुआ। स्मिथ के नेतृत्व में रायपुर से भेजी गई सेना जब खरोद होते हुए सोनाखान की ओर बढ़ रही थी तब उस समय रास्ते में अनेक स्थानों पर उन्हें जनता में विद्रोह की भावना के प्रमाण मिले। यह दुर्भाग्य की बात भी थी कि छत्तीसगढ़ के कतिपय जमींदारों ने उस समय अंग्रेजों की खुलकर सहायता की। स्मिथ ने खरोद थाना में अपना डेरा डाला था । वहीं से उसने सोनाखान पर चढ़ाई करने की पूरी व्यवस्था की थी। इसी बीच खरोद थाने में एक घुड़सवार ने स्मिथ को नारायण सिंह का एक पत्र लाकर दिया था। यह पूरा पत्र नारायण सिंह की निर्भीकता, देशप्रेम और स्वाभिमान की भावना से ओतप्रोत था। पत्र पढ़ कर स्वयं स्मिथ और अंग्रेजों की सहायता के लिए प्रस्तुत चाटुकार जमींदारों के पैरों के नीचे जमीन खिसक गई।‘
सोनाखान में क्रांतिवीर नारायण सिंह के नेतृत्व में आदिवासियों और खैरख्वाह जमींदारों की सक्रिय मदद से अंग्रेजों के बीच जो युध्द हुआ उसका विवरण इस प्रकार है-लेफ्टिनेंट स्मिथ 26 नवंबर 1857 को मय फौज के रायपुर से सोनाखान के लिए रवाना हुआ। किंतु मार्गदर्शक के गलत के रास्ते में ले जाने पर 21 नवंबर 1857 की रात्रि में उसे रायपुर से 70 मील दूर एक गांव में रुकना पड़ा। वहां से सोनाखान 39 मील दूर था । अगले दिन 18 मील चलकर करौंदी पहुंचने पर स्मिथ को ज्ञात हुआ कि सोनाखान के रास्ते पर ऊंची दीवाल खड़ी कर नारायण सिंह ने रास्ता रोक दिया है तथा उसकी सेना निपटने को तैयार खड़ी है। स्मिथ को बाध्य होकर करौंदी में ही रुकना पड़ा। रात्रि में स्मिथ नारायण सिंह पर अचानक हमला करने की योजना बनाई। अत: करौंदी के एक निवासी बाला पुजारी की सहायता से एक अन्य रास्ते से सोनाखान के लिए रवाना हुआ । नीमतला से सोनाखान के बीच 3 मील तक दुर्गम पहाड़ थे। स्मिथ द्वारा भेजे गये जासूस ने समाचार दिया कि घाट पर नारायण सिंह की सेना नाके बंदी कर मोर्चा के लिए तैयार है। नारायण सिंह को भलीभांति तैयार देख स्मिथ को अचानक हमला करने की योजना को रद्द करना पड़ा तथा और अधिक सेना एकत्रित करने उसने कटगी, बडग़ांव तथा बिलाईगढ़ के जमींदारों को सहायता के लिए जल्दी बुलवाया। 23 नवंबर को कटगी के कामदार 16 बंदूकधारियों के साथ पहुंचे तथा 25 सैनिकों सहित बडगांव का जमींदार भी स्मिथ के सहायतार्थ पहुंच गया। इसके पश्चात स्मिथ स्वयं घाट के ऊपर मुआयना करने पहुंचा किन्तु नारायण सिंह की सैन्य स्थिति अधिक सुदृढ़ देख कर वह पुन: नीमतला वापस आ गया। अब उसने 52 मील दूर स्थित बिलासपुर के अधिकारियों को सैन्य सहायता हेतु पत्र लिखा कि उनकी रेजीमेंट की टुकड़ी से 50 सैनिक शीघ्र ही सहायतार्थ भेजा जाये। अगले दिन बिलाईगढ़ जमींदार 40 सहायकों सहित स्मिथ के पास पहुंचा। उन्हें स्मिथ ने विभिन्न घाटों पर तैनात करा दिया ताकि सोनाखान जाने वाली रसद, सैनिक सामग्री एवं अन्य सहायता को रोका जा सके।
इस प्रकार 29 नवंबर तक स्मिथ शस्त्रादि एकत्रित करने हेतु टुकडिय़ां भेजता रहा। बिलासपुर से उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने अपने सहायक कमिश्नर की गंभीर स्थिति को भांप कर रायपुर स्थित रेजीमेंट के कमांडिंग आफिसर से सहायतार्थ निवेदन किया कि 100 सैनिकों तथा अन्य यथोचित अनुपात में देशी कमीशन के अधिकारियों के साथ एक सेना तुरंत ही स्मिथ की सहायता हेतु भेज दी जाये। तद्नुसार उपरोक्त सेना दिनांक एक दिसंबर 1857 को रवाना कर दी गई।
इसी बीच स्मिथ को मंगल नामक एक व्यक्ति से सूचना मिली कि सोनाखान पहुंचने का एक अन्य रास्ता देवरी से है। जहां पर समय के अभाव में नारायण सिंह नाकेबंदी का कार्य पूरा नहीं कर सका तथा अवरोध हेतु खड़ी की जाने वाली दीवाल अपूर्ण है। पचास मील के चक्कर से सोनाखान पहुंचने वाले इस रास्ते पर 10 मील तक फैले वन, जंगल तथा ऊंची घास है। यह रास्ता पार करना स्मिथ को श्रेयस्कर लगा।
उसी समय 26 नवंबर की रात्रि में नारायण सिंह का एक घुड़सवार खरोद में गिरफ्तार कर स्मिथ के समक्ष लाया गया। उसने बताया कि नारायण सिंह के पास 500 हथियारबंद सिपाहियों के साथ 6 या 7 छोटी तोपें भी हैं जो कि जंगलों में विभिन्न स्थानों पर तैनात हैं तथा नारायण सिंह रक्त के अंतिम बूंद तक मोर्चा लेने को तत्पर है।
तथोपरांत स्मिथ ने अपने अधीनस्थ जमींदारों के कतिपय सहायकों को विभिन्न घाटियों की पूर्ण नाकेबंदी हेतु आदेशित कर 90 सैनिक और नियुक्त किये तथा 29 नवंबर को प्रात: एक बजे नीमतला से देवरी के रास्ते सोनाखान रवाना हुआ, ताकि शाम तक वह सोनाखान पहुंच सके। किंतु मार्गदर्शक द्वारा धोखा दिये जाने से वह 35 मील गलत मार्ग पर भटक गया तथा संबलपुर के एक ग्राम में उसे रात्रि विश्राम करना पड़ा। 30 नवंबर को स्मिथ देवरी पहुंचा। वहां से सोनाखान 10 मील दूर था।
देवरी जमींदार यद्यपि रिश्ते में नारायण सिंह का काका होता था किन्तु पारिवारिक कटुता के कारण उसने स्मिथ का साथ दिया। देवरी से स्मिथ ने फूलझर, कोंडी, सिवनी आदि जमींदारों को समाचार भेज कर सावधान किया कि यदि नारायण सिंह वहां से बच निकलने का प्रयास करे तो पकड़ लिया जाये। स्मिथ 126 सिपाहियों सहित देवरी जमींदार के मार्गदर्शन में सोनाखान की ओर एक दिसंबर के प्रात: रवाना हुआ। जब सोनाखान 3 मील दूर रह गया तो देवरी के जमींदार ने स्मिथ को सलाह दी कि नारायण सिंह ने आगे तीन स्थानों पर और भी नाकेबंदी की है। जहां पर उसके सिपाही मोर्चा लेने तैयार हैं। यथानुसार मुठभेड़ टालते हुए एक चक्करदार रास्ते से जोंक नदी को दो बार पार कर स्मिथ सीधे सोनाखान के समीप लगभग एक चौथाई मील दूरी पर पहुंच गया। तभी एक नाले के पास से नारायण सिंह की टुकड़ी ने गोलियों की बौछार की। परंतु उससे बचते हुए स्मिथ सोनाखान की ओर बढ़ा। इसके पूर्व ही अवशेष सेना के साथ नारायण सिंह ने सोनाखान को खाली कर पहाड़ी पर मोर्चा लेने की तैयारी प्रारंभ कर दी थी। उसने परिवारजनों, माल असबाब आदि के साथ अपने पुत्र गोविंद सिंह को सोनाखान के बाहर भेज दिया था।
दोपहर को स्मिथ सोनाखान ग्राम पहुंच गया। जब वह खाली मकानों को नष्ट करने प्रयत्नशील था तभी पहाड़ी के ऊपर से भीषण गोली बारी कर नारायण सिंह ने स्मिथ को एक बारगी लौटने पर विवश कर दिया। तत्पश्चात रात के समय खाली ग्राम में स्मिथ ने आग लगा दी। सारा गांव जलकर राख हो गया। गांव के लोग पहाड़ी से यह दृश्य देख रहे थे। इस पर जंगल के दूसरी ओर से नारायण सिंह की सेना ने गोली की बौछार शुरु की। उसके फलस्वरूप स्मिथ को अपनी सेना जान बचाने के लिए गोलियों की पहुंच से दूर गांव से हटकर आने को बाध्य होना पड़ा।
रात्रि में स्मिथ ने पहाडिय़ों पर व्यक्तियों के लगातार आगमन को देखा। जलते हुए सोनाखान ग्राम के उस पार पहाडिय़ों पर हलचल देखते हुए स्मिथ की वह रात्रि अत्यंत बेचैनी से व्यतीत हुई। प्रात: 10 बजे से उसे कटगी से कामदार सहित आवश्यक कुमुक आदि प्राप्त हो गई।
नारायण सिंह ने वस्तुत: सोनाखान से 7 मील की दूरी पर ही तोपों सहित सहित अंग्रेजी सेना पर आक्रमण की योजना बनाई थी किंतु देवरी के जमींदार महाराज साय द्वारा धोखा दिये जाने से वह योजना क्रियान्वित नहीं कर सका तथा उसकी तोप और सेना पहाड़ी में ही यत्र-तत्र बिखर कर रह गई। तभी अंग्रेजी सेना को कुमुक प्राप्त होने के समाचार नारायण सिंह को मिले। उसकी स्वयं की सेना तोपों सहित जंगलों में बिखरने के अतिरिक्त रसद के मार्ग अवरुध्द हो जाने से अवशेष सैन्य शक्ति भी बिखर जा रही थी। अतएव नारायण सिंह ने और मुकाबला करना व्यर्थ ही समझा और अपनी बची हुई जनता के रक्षा के लिए अपने एक साथी के साथ वह स्वयं ही स्मिथ के समीप दोपहर के समय उपस्थित हो गया। स्मिथ ने तुरंत ही नारायण सिंह को लेकर रायपुर की ओर प्रस्थान किया। 5 दिसंबर को 1857 की स्मिथ रायपुर पहुंचा और नारायण सिंह को डिप्टी कमिश्नर इलियट के सुपुर्द कर दिया।‘
(नोट-इस विवरण के कुछ स्थानों में लिपिकीय त्रुटियां दिखती हैं तथा कुछ पंक्तियां अज्ञात स्रोंतों से लेकर लिखी गई हैं। लेख में कटगी, बडगांव तथा बिलाईगढ़ के जमींदारों का उल्लेख किया गया है। सन् 1909 में ब्रिटिश अधिकारी ए. ई. नेल्सन व्दारा संपादित सेंट्रल प्रोविंसेस डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, रायपुर डिस्ट्रिक्ट के पृष्ठ क्रमांक 62, 63 एवं 64 में कैप्टन स्मिथ व्दारा दिनांक 9 दिसंबर 1857 को डिप्टी कमिश्नर इलियट को लिखे प्रतिवेदन को प्रकाशित किया गया है। इसमें कटगी, भटगांव तथा बिलाईगढ़ लिखा गया है। उल्लेखनीय है कि सोनाखान के आसपास बडग़ांव जमींदारी न होकर भटगांव जमींदारी थी। इसी लेख में आगे लिखा गया है कि ‘देवरी से स्मिथ ने फुलझर, कोंडी, सिवनी आदि जमींदारियों को समाचार भेजकर सावधान किया था कि यदि नारायण सिंह वहां से बच निकलने का प्रयास करे तो पकड़ लिया जावे।‘ इसका उल्लेख 1909 के गजेटियर में नहीं है लेकिन फुलझर के साथ कोंडी, सिवनी आदि जमींदारियों को समाचार भेजना लिखा जाना भी समझ से परे है क्योंकि इस नाम की जमींदारियां सोनाखान के आसपास नहीं थी। इस लेख में करौंदी नामक स्थान में 22 नवंबर को पहुंचना और रात्रि विश्राम कर करौंदी के बाला पुजारी को लेकर सोनाखान भी ओर बढऩा उल्लेखित है, स्मिथ की रिपोर्ट में करौंदी में रात्रि विश्राम करने का उल्लेख नहीं है और बालक पुजारी को शिवरीनारायण का निवासी लिखा गया है। स्मिथ के प्रतिवेदन में खरौद थाना का उल्लेख है। इसी गजेटियर में खरोद को संबलपुर राज्य के अंतर्गत आने वाले जमींदारियों की सूची में बताया गया था अर्थात सोनाखान के पड़ोस का खरौद जमींदारी रायपुर (रतनपुर) राज्य में न होकर संबलपुर राज्य में था म.प्र. सूचना एवं प्रकाशन संचालनालय की पुस्तिका में फुलझर जमींदारी के एक गांव में विश्राम करने उल्लेख है यह भी स्मिथ के प्रतिवेदन में नहीं है।
डिप्टी कमिश्नर इलियट के पत्र क्रमांक-16 में प्रतिवेदित किया गया है कि ‘नारायण सिंह जो कि आमतौर पर सोनाखान का जमींदार माना जाता था उसे आज मेरे अदालत ने अपराधी घोषित किया गया है। जो अधिकार मुझे कमिश्नर के रूप में 1857 के कानून के अंतर्गत क्रमांक 14 सेक्शन 7 जिसमें देशद्रोहियों को उन्हें शासन के विरुद्ध घोषित करते हैं और जिसमें मुझे उक्त कानून के अंतर्गत धारा 11 के तहत खंड 1 में जो अधिकार दिये गये हैं उसके अंतर्गत मैंने उसे फांसी की सजा दी है और वह फैसला आज सुबह इस स्थान (रायपुर) के सभी सेनाओं और बल के सामने जिन्हें विशेष परेड के रूप में एकत्रित किया गया था, फांसी पर चढ़ा दिया गया था। इसमें को दुर्घटना नहीं हुई, कोई गलती नहीं हुई, और न ही किसी ने दुस्साहस किया।
इस घटना को पूरे जिले में प्रसिद्धि दी जायेगी। विशेष रूप से जमींदारियों में जहां नारायण सिंह के अपराधों को घोषित कर उसके परिणामों को सूचित किया जायेगा।‘
इस पत्र की तिथि को पूर्व में 19 दिसंबर 1587 पढ़ा गया था लेकिन सूक्ष्मता से छानबीन कर 10 दिसंबर 1857 सर्व मान्य किया गया।
ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार शहीद वीर नारायण सिंह के पितामह फतेह नारायण सिंह मराठा राजा बिंबाजी के राजत्व काल में सोनाखान के जागीरदार थे। मराठा शासक उनके जागीर को छीनकर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे जिसका प्रतिरोध फतेह नारायण सिंह ने किया था। फतेह नारायण सिंह के बाद राम राय जागीरदार हुए और उसने भी मराठा शासन के आगे घुटना नहीं टेका। लेकिन सोनाखान पर कर के रूप में इमारती लकड़ी एवं अन्य वन उत्पाद देने बाध्य किया गया। सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी शासन स्थापित होते ही सोनाखान पर आक्रमण किया गया और राम राय के जागीर से अधिकांश गांव छीनकर जमींदार बना दिया गया। इस प्रकार सोनाखान के बिंझवार राजपूत पीढिय़ों से आक्रमणकारियों के विरुद्ध अपनी माटी के अस्मिता के लिए लड़ते रहे।
मध्य प्रदेश सूचना एवं प्रकाशन संचालनालय व्दारा प्रकाशित पुस्तिका में शहीद वीर नारायण सिंह के शहादत का विवरण भी 10 दिसंबर 1857 की घटनाओं के साथ समाप्त हो जाता है। कुछ साहित्यकारों ने शहीद के परिवार की कहानी को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। जिसके अनुसार वीर नारायण सिंह का पुत्र गोविंद सिंह संबलपुर के क्रांतिकारी सुरेंद्र साय की सहायता से देवरी के जमींदार महाराज साय पर आक्रमण कर उसका वध कर देता है और गोविंद सिंह वीर सुरेन्द्र साय की सेना में शामिल हो जाता है। छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों के अनुसार अंग्रेजी सरकार गोविंद सिंह को गिरफ्तार कर रायपुर के जेल में कैद कर देती है और कालांतर में वह सरकार से क्षमा याचना कर कैद से मुक्त हो जाता है।
फुलझर की झलक (लेखक-शंकर लाल साहू) के अनुसार गोविंद सिंह फुलझर की रानी सगुन कुमारी देवी के शरण में जाता है और रानी उसे जीवन यापन के लिए फुलझर जमींदारी में गोंडमर्रा नामक गांव प्रदान करती है। इस प्रसंग को भलीभांति समझने के लिए फुलझर जमींदारी के इतिहास को समझना पड़ेगा। सन् 1857 में फुलझर जमींदारी संबलपुर राज्य के 18 गढ़ गढज़ात में शामिल था और उसी वर्ष जमींदार के पद पर राजा पृथ्वी साय की मृत्यु उपरांत जग साय पदासीन हुआ था। जग साय पृथ्वी साय की दूसरी पत्नी (अवैध पत्नी) का संतान था। पृथ्वी साय की रानी सगुन कुमारी देवी थी जिसका कोई पुत्र नहीं था इसलिए रानी सगुन कुमारी देवी ने जग साय को फुलझर जमींदारी का शासक पदासीन कराया था। जमींदार जग साय की सन 1867 में निस्संतान मृत्यु हुई। पश्चात जमींदारी का शासन सूत्र रानी सगुन कुमारी के हाथों में आया। वह अपने निकट रिश्तेदार को जमींदार अधिकृत कराने का प्रयास करती है लेकिन ब्रिटिश शासन से मान्यता नहीं मिलती। अंग्रेज अधिकारी मालखरौदा के जमींदार रिछपाल सिंह को उत्तराधिकारी बनाने दबाव बनाते हैं, जिसे रानी सगुन कुमारी स्वीकार नहीं करती और इस तरह फुलझर के उत्तराधिकारी का विवाद उलझ गया। रानी सगुन कुमारी का देहांत 23 जनवरी 1878 को फुलझर जमींदारी मुख्यालय बस्तीपाली में हुआ। उनके देहांत के बाद जमींदारी का भार रानी कपिलाश कुमारी देवी को मिला जो सेवक साय की पत्नी थी। वे भी निस्ससंतान थे। वे अपने सहयोगी के पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने का प्रयास करते रहे जिसे ब्रिटिश शासन ने मान्य नहीं किया। उनके शासन काल में जमींदारी का मुख्यालय बस्तीपाली से स्थानांतरित होकर सरायपाली पहुंचा। ब्रिटिश शासन के आदेशानुसार 24-12-1885 को बुरदा नामक आधिकारी को मैनेजर के रूप में जमींदारी का कार्यभार सौंपा गया। ब्रिटिश अधिकारी रानी कपिलाश कुमारी पर मालखरौदा के जमींदार को फुलझर का उत्तराधिकारी बनाने दबाव बनाते रहे और 1898 में रिछपाल सिंह को प्रभार सौंप दिया गया। सन 1903 में रिछपाल सिंह के पुत्र लाल बहादुर सिंह को फुलझर जमींदारी का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। सन 1905 में फुलझर जमींदारी को संबलपुर जिला प्रशासनिक इकाई से अलग कर सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार के रायपुर जिला प्रशासनिक इकाई में शामिल किया गया।
शहीद वीर नारायण सिंह के पारिवारिक सूत्रों के अनुसार गोविंद सिंह के पुत्र भगवान सिंह को जीवन यापन के लिए 12 गांव की मालगुजारी देने का प्रस्ताव फुलझर जमींदारी व्दारा दिया गया था किन्तु भगवान सिंह ने गोंड़मर्रा गांव को ही स्वीकार किया। वर्तमान में भगवान सिंह के कुछ वंशज इसी गांव में तथा कुछ सोनाखान में निवासरत हैं। सन् 1981 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा वीर नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद मान्य करते हुए उनके वंशजों को पेंशन एवं सरकारी सुविधाएं देने का निर्णय लिया गया। वर्तमान में शहीद वीर नारायण सिंह परिवार के वंशावली में पितृ पुरुष बिसाही ठाकुर को मान्य करते हुए नारायण सिंह के पितामह का नाम फतेह नारायण सिंह बताया गया है। उपलब्ध एतिहासिक संदर्भों के अनुसार दोनों के बीच कम से कम 4 पीढिय़ां रही होगी। इतिहास में बिसाही ठाकुर का विस्तृत उल्लेख नहीं है जिन्हें रतनपुर के कलचुरी राजा वाहरेंद्र साय (बाहर साय) के समकालीन बताया जाता है। लेकिन वाहरेंद्र साय के पुत्र राजा कल्याण साय के एक सहयोगी गोपल्ला राय उर्फ गोपाल बिंझिया की वीरता का वर्णन इतिहास में उपलब्ध है। संभव है कि गोपाल बिंझिया बिसाही ठाकुर के पुत्र या वंशज रहे हों।
सोनाखान के बिंझवार राजपूत परिवार की वंशावली रतनपुर के राजा बाहर साय के राजत्व काल में बिसाही या बिसाई ठाकुर से प्रारंभ होती है। उसी काल खंड में छत्तीसगढ़ के वनांचलों में चांदा (चंद्रपुर-महाराष्ट्र) से गोंड़ राजपूतों का फैलाव हुआ और फूलझर से भैंना, सबरमाल (सुअरमार) से संवरा तथा बिंद्रानवागढ़ से भूंजिया सामंतों को पराजित कर शासक बने। इस काल में बोड़ासांभर में बिनोद सिंह बरिहा शासक हुए जो बिंझवार राजपूत जाति के थे। सोनाखान के बिंझवार सोनझोरिया उपजाति के हैं। विशेष उल्लेखनीय यह है कि सोनाखान की पहाड़ी के बाघमारा में स्वर्ण धातु का निक्षेप है और इसकी पुष्टि भू-वैज्ञानिक अध्ययन से हो चुकी है। सदियों से इस क्षेत्र की मिट्टी से स्वर्ण कण निकाला जाता है। संभव है कि बिंझवार शासकों ने स्वर्ण धातु के संग्रहण के लिए संगठित प्रयास कर माइनिंग की तकनीक विकसित की हो इसलिए वे सोन झोरिया कहलाए हों। वर्तमान में इस क्षेत्र से स्वर्ण धातु उत्खनन का कार्य वेदांता ग्रुप को दिया गया है।
मेरा अनुमान है कि सोनाखान में स्वर्ण धातु पाए जाने के आकर्षण के कारण मराठा शासक इस क्षेत्र पर नियंत्रण करना चाहते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस संपदा की सूचना मिलते ही आनन फानन में सोनाखान पर आक्रमण कर अधिकांश गांवों में कब्जा कर लिया था। छत्तीसगढ़ का क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी को केवल 12 वर्षों के लिए ही ‘लीज’ पर मराठों से मिला था। उन्हें सन 1830 में मराठों को रतनपुर राज्य पुन: को सौंपना पड़ा, इसलिए स्वर्ण उत्खनन के लिए आधुनिक तकनीक विकसित नहीं कर सके होंगे। सन 1857 की क्रांति के बाद सोनाखान को जब्त कर लिया गया था। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों (सेंट्रल प्रोविंसेस डिस्ट्रिक्ट गजेटियर डिस्ट्रिक्ट दुर्ग 1909) के अनुसार एक यूरोपियन कंपनी को स्वर्ण धातु के अन्वेशन का कार्य सौंपा गया था किंतु वर्षों तक खोजबीन करने के बाद भी धातु के स्रोत तक नहीं पहुंच सके थे इसलिए जब्त किए गए गांवों को भींभोरी जिला दुर्ग के जगदेव कुर्मी के परिवार को दिया गया। इस परिवार के तुला राम नामक व्यक्ति ब्रिटिश काल में तलसीलदार थे और इन्होंने इन गांवों का खरीदा था। कहा जाता है कि सोनाखान क्षेत्र में अभी भी परगनिहा परिवार की भूमि है। इन सभी संदर्भों में गहन शोध की आवश्यकता है।
पड़ोसी ओडिशा राज्य के इतिहास एवं सरकारी दस्तावेजों में सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह का ससुराल घेंस में होना और प्रसिद्ध जमींदार शहीद माधो सिंह को ससुर तथा इनकी बेटी का नाम तुलसी (वीर नारायण सिंह की पत्नी) बताया गया है। ओडिशा में शहीद माधो सिंह के नाम पर सरकारी योजनाएं अद्यतन है। शहीद माधो सिंह बोड़ासांभर राज्य के संस्थापक राजा बिनोद बरिहा के पांचवीं पीढ़ी के वंशज थे। सन् 1857 की क्रांति में घेंस जमींदार माधो सिंह की अग्रणी भूमिका थी। माधो सिंह के 4 पुत्र क्रमश: हटे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह एवं ऐरी सिंह सन 57 की क्रांति में शहीद हुए थे। उनकी वीरता की अनेक कहानियां लोक में प्रचलित हैं। ओडिशा के साहित्यों के अनुसार शहीद माधो सिंह की नातिन एवं शहीद कुंजल सिंह की बेटी पूर्णिमा का विवाह शहीद वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह के साथ हुआ था। गोविंद सिंह ने अपने ससुर कुंजल सिंह एवं उसके भाई की सहायता से देवरी जमींदार महाराज साय का वध कर अपने पिता के बलिदान का बदला लिया था। गोविंद सिंह उस घटना के बाद वीर सुरेंद्र सिंह की सेना में शामिल होकर लगभग 7 वर्षों तक अंग्रेजों के साथ चले गोरिल्ला युद्ध में शामिल रहा तथा अन्य क्रांतिकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया था।
ओडिशा में उपलब्ध साहित्यों के अनुसार गोविंद सिंह की गिरफ्तारी एवं मारे जाने का समाचार सुनकर उसकी पत्नी पूर्णिमा ने अपने मायके घेंस के कुंए में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। सीमांत क्षेत्र में प्रचलित कहानियों के अनुसार देवरी जमींदार महाराज साय के वध में शहीद माधो सिंह के पुत्र शहीद हटे सिंह, शहीद कुंजल सिंह और खरियार जमींदारी के खोलागढ़ (तानवट) के शहीद लाल सिंह माझी की भागीदारी थी। बताया जाता है कि क्रांतिकारी महासमुंद के खल्लारी में एकत्र हुए थे और दो भागों में बंट कर देवरी पर आक्रमण किया था।
महासमुंद जिला के कोमाखान क्षेत्र के सुआ लोक गीत में रेंगहू सतनामी और बोदेल गांड़ा के नामों का उल्लेख होता है जो सन 57 की लड़ाई में वीर सुरेन्द्र साय की सेना में थे और लौटकर घर नहीं आए। खरियार के सेवानिवृत प्रोफेसर फनिंदम देव ने शहीद लाल सिंह माझी के बलिदान पर शोध पत्र प्रकाशित किया है जिसमें सन 1862 में शहीद लाल सिंह माझी और शहीद चैत साह को कालापानी में भेजे जाने का उल्लेख है। शहीद लाल सिंह माझी का स्मरण उसकी ‘सती पत्नी लोईसिंघहीन माता के चौरा’ के रूप में किया जाता है जो तानवट कस्बे के निकट उस स्थान पर है जहां शहीद की पत्नी ने आत्म उत्सर्ग किया था। इन सभी एतिहासिक सूत्रों की गहन छानबीन की आवश्यकता है।
महासमुंद जिले के बसना विकास खंड के देवरी, पिलवापाली और गणेशपुर में एक संवरा परिवार है जिनका गोत्र ‘नोराजी खांडा’ है। इनके पूर्वज लछमन सिंह घेंस जमींदारी के उत्तालगढ़ के गढ़तिया थे और 1862 में अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए शहीद हो गए। इस गांव को पूरी तरह मिटा दिया गया था। इस परिवार की महिला 3 छोटे बच्चों को लेकर वहां से भाग कर फूलझर जमींदारी में पहचान छुपा कर रहने लगी। इस परिवार के शेष लोग खपरैल नुआपाली तहसील बीजेपुर में हैं।
सोनाखान की पूरी घटना का विवेचना करने से स्पष्ट संकेत मिलता है कि शहीद वीर नारायण सिंह के पूर्वज रतनपुर राज्य के विश्वसनीय सामंत थे और इन्होंने मराठा शासन को भी सहजता से स्वीकार नहीं किया था। ऐतिहासिक संदर्भों से जानकारी मिलती है कि मराठा राजा बिंबाजी को कवर्धा, पंडरिया, धमधा, कोरबा आदि के सामंतों से संघर्ष और सोनाखान जमींदार से भी समझौता करना पड़ा था। छत्तीसगढ़ के साहित्यकार स्व. हरि ठाकुर के लेख (छत्तीसगढ़ गौरव गाथा) के इस बात से सहमत हूं कि चार धाम के तीर्थ यात्री जो सोनाखान जमींदारी के सीमांत क्षेत्र से पुरी (जगन्नाथ) की यात्रा करते थे की सुरक्षा एवं सत्कार के लिए सोनाखान जमींदार को कलचुरी काल में राजकीय कोष से सहायता दी जाती थी। मराठा राजा बिंबाजी के निधन के बाद सोनाखान का संबंध नागपुर से अधिक बिगड़ा गया था परिणाम स्वरूप सन 1819 में कंपनी सेना को कार्यवाही करनी पड़ी थी। सन् 1857 के आते तक सोनाखान जमींदारी के अंतर्गत ग्रामों की संख्या 300 से घट कर लगभग 50 हो गई थी तथा सोनाखान जमींदारी भी देवरी और भटगांव जमींदारी के रूप में बंट गई। ब्रिटिश अधिकारियों व्दारा लिखे गये प्रतिवेदनों के अनुसार सोनाखान जमींदार को कुछ अन्य जमींदारियों से टकोली (कर) वसूलने की जिम्मेदारी दी जाती थी।
सन 1857 के सैन्य अभियान का जो विवरण ब्रिटिश आधिकारियों द्वारा लिखा गया है उससे कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निकलते हैं–
- जमींदार नारायण सिंह 24 अक्टूबर 1857 को रायपुर जेल तोड़कर जाने उपरांत दो महीने में अन्य क्रांतिकारियों से संपर्क कर मजबूत संगठन बना लिया था, जिनके सदस्यों की संख्या लगभग 500 थी।
- सोनाखान के क्रांतिकारियों के पास पारंपरिक देशी हथियारों के अलावा बंदूकें और 7-8 छोटी तोपें थी जिससे वे 3 दिन युद्ध करते रहे।
- स्मिथ जब सोनाखान बस्ती में प्रवेश किया तब लगभग 600 की आबादी वाले गांव के सभी घर खाली मिले थे जिसे आग लगाकर नष्ट कर दिया गया। सोनाखान तक जाने वाले सभी रास्तों में कृत्रिम दीवार (अवरोध) एवं खंदक खोदकर सैनिकों (क्रांतिकारियों) की तैनाती की गई थी।
- कैप्टन स्मिथ के अनुसार वीर नारायण सिंह ने बिना शर्त समर्पण किया था और बताया था कि उसके 500 साथी जो पहाडिय़ों में तैनात थे वे बिखर गये हैं और उनकी तोपें जिसे बस्ती से दूर घाटी में स्थापित किया गया था उसे बस्ती के निकट की पहाडिय़ों में नहीं लाया जा सका है, इसलिए वह शेष बचे लोगों की जान बचाने समर्पण कर रहा है। यह कथन सर्वथा अविश्वसनीय प्रतीत होता है क्योंकि स्मिथ के सैनिकों की संख्या लगभग 200 थी जिनमें से अधिकांश घाटी के अलग-अलग स्थानों में तैनात थे। यह संख्या क्रांतिकारियों की संख्या के आधे से भी कम है।
- वीर नारायण सिंह का खुफिया तंत्र मजबूत था और उनके समर्थकों ने कंपनी सेना का मार्ग भटकाने का भरपूर प्रयास किया था।
- वीर नारायण सिंह के साथ समर्पण करने वाले सहयोगी की कोई जानकारी स्मिथ ने नहीं लिखी है। ठीक इसी तरह जेल में सुराख बनाकर भागने वालों में वीर नारायण सिंह के 3 साथियों का उल्लेख तो है लेकिन उनकी भी जानकारी नहीं दी गई। वीर नारायण सिंह के वकील के घर की तलाशी में कुछ कागज मिले थे लेकिन वकील का नाम नहीं लिखा गया है।
निष्कर्ष
सन 1857 में छत्तीसगढ़ के रतनपुर एवं संबलपुर राज्य में हुए विद्रोह का समग्रता से आकलन करने से स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह सुनियोजित विद्रोह था जिसके सूत्रधार घेंस जमींदार शहीद माधो सिंह थे। वीर सुरेंद्र साय सन 1840 में गिरफ्तार हुये और 30 जुलाई 1857 को हजारीबाग जेल तोड़कर घेंस पहुंचे थे। वीर नारायण सिंह 24 अक्टूबर 1956 को गिरफ्तार हुए और 28 अगस्त 1857 को जेल तोड़ कर घेंस पहुंचे थे। इन्हें ब्रिटिश सेना से लडऩे की तैयारी के लिए 3 महिना से अधिक समय मिला था जिसका लाभ उठाकर सोनाखान घाटी को युद्ध के लिए उपयुक्त स्थान पाकर वहीं एकत्र हुये थे। कंपनी सेना 21 नवंबर को रायपुर से रवाना हुई थी जिसकी पूरी सूचना 3 दिनों में सोनाखान पहुंच गई होगी और सेना की सभी गतिविधियों पर निगरानी की गई होगी तद्नुसार युद्ध नीति बनाई गई होगी। वीर नारायण सिंह के नि:शर्त आत्म समर्पण की कहानी सरलता से हजम नहीं होती। प्रतीत होता है अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने रिपोर्ट में अनेक तथ्य छुपा लिए थे। वीर नारायण सिंह की शहादत के बाद रायपुर से संबलपुर लौट रही कंपनी सेना पर सरायपाली के निकट सिंघोड़ा घाटी एवं निशा घाटी में क्रांतिकारियों ने 26 दिसंबर को जबरदस्त आक्रमण कर कंपनी सेना को भागने के लिए मजबूर कर दिया था याने राज मार्गों पर तगड़ी मोर्चा बंदी की गई थी।
समाहार
सन 1857 से 1864 तक चले स्वतंत्रता संग्राम के भूकंप से छत्तीसगढ़ के 50,000 वर्ग कि.मी. से अधिक भू-भाग प्रभावित हुआ था और इसका एपीसेंटर (केंद्र) घेंस में था। सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह, खिंडा के जमींदार सुरेंद्र साय और घेंस के जमींदार माधो सिंह उस संग्राम के सेनापति थे। माधो सिंह की आयु 72 वर्ष थी यानि वे सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह के पिता राम राय की आयु से कुछ कम के थे। ये दोनों बिंझवार राजपूत जाति के थे, जिनके पूर्वजों का बोड़ासांभर (पदमपुर) में शासन था, जबकि खिंडा जमींदार चौहान राजपूत थे।
घटना का कुछ विवरण ब्रिटिश अधिकारियों ने लिखा है तथा लोक गीतों एवं किवदंतियों के रूप में जन मानस में सुरक्षित है। घटना का प्रथम प्रकाशन सन 1909 में रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में हुआ था। जिसके आधार पर साहित्यकार स्व. हरि ठाकुर ने 1956 में लेख लिखा था। स्व. हरि ठाकुर के लेख को मध्य प्रदेश सरकार व्दारा संज्ञान में लेकर बलौदाबाजार के तत्कालीन तहसीलदार श्री गिदरोनिया से परीक्षण कर प्रतिवेदन मांगा गया और तथ्यों के आधार पर वीर नारायण सिंह को सन 1957 में प्रथम स्वाधीनता संग्राम की स्वर्ण जयंती के अवसर पर छतीसगढ़ का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी एवं प्रथम शहीद घोषित किया गया था। इस घोषणा के लगभग 20 वर्षों तक शासन स्तर पर अधिक जानकारी जुटाने के प्रयास नहीं हुए और शहीद के वंशजों को पेंशन इत्यादि सुविधाएं नहीं दी गई।
सन 1980 में स्व. अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने और कुछ माह उपरांत महासमुंद जिला के मुढ़ीपार ग्राम में आयोजित किसान सम्मेलन में आये तब समाजवादी नेता स्व. जीवन लाल साव एडवोकेट द्वारा सन 1957 में सरकार की घोषणा का विस्तार से जानकारी स्व. अर्जुन सिंह के समक्ष रखी थी। स्व. अर्जुन सिंह की संवेदनशीलता से शहीद वीर नारायण सिंह के वंशजों की खोज शुरु हुई और उनके कुछ परिजनों को स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों को दी जाने वाली सुविधाएं मिलने लगी। इस दौरान इनके वंशजों द्वारा शहीद वीर नारायण सिंह के दो पुत्र क्रमश: गोविंद सिंह और गंभीर सिंह के होने का दावा किया गया। वर्तमान में इन दोनों के वंशजों को पेंशन एवं अन्य सुविधाएं दी जा रही हैं।
अनुशंसा
छत्तीसगढ़ राज्य में प्रचलित इतिहास में राज्य के वर्तमान सीमा के भीतर घटित घटनाओं को ही आधार मानकर विवरण लिखा जाता है जिससे इतिहास की खंडित जानकारी मिलती है। चूंकि सन 1857 की क्रांति में छत्तीसगढ़ के साथ-साथ ओडिशा के संबलपुर एवं कालाहांडी तथा झारखंड के हजारीबाग जेल की संलग्नता रही है इसलिए इन स्थानों के शोधार्थियों को एकत्र कर समेकित इतिहास लिखने का प्रयास होना समीचीन है।
संदर्भः
1-छत्तीसगढ़ अभिलेख छवि, संपादक एवं अनुवादक डॉ. प्रभुलाल मिश्र / आचार्य रमेंद्रनाथ मिश्र – 2010
2-छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह, मध्य प्रदेश सूचना एवं प्रकाशन संचालनालय, भोपाल
3-श्री जगन्नाथजी की अनोखी गाथा, डॉ. बिबुधरंजन – 2003
4-श्री जगन्नाथ मंदिर के लूंठन का इतिहास, डॉ. सुरेन्द्र कुमार मिश्र – 2008
5-छत्तीसगढ़ गौरव गाथा, हरि ठाकुर -2003
6-फूलझर की एक झलक, शंकरलाल साहू – 2014
7-श्री नारायण प्रसाद नैरोजी से. नि. वाणिज्यिक कर अधिकारी रायपुर से प्राप्त जानकारी
8-Central Provinces District Gazetteer Raipur District By A. E. Nelson-19093
9-Central Provinces District Gazetteer Durg District By A. E. Nelson-1904
10-Report on the land revenue settlement of the Sambalpur District By F. Dewar – 1904
11. Report on the land revenue settlement of the Belaspur District 1869
12-History of Bargarh By Dr. Jagdish Mishra-2018
13-The Saga of Kudopali The unsung story of 1857, ICHR New Delhi
14-Madhya Pradesh district Gazetteer Raipur District By R. Varma-1971
15-Bengal District Gazetteerz, Sambalpur By L. S. S. O’Malley-1909
16-Report on Land Revenue Settlement of the Raepore District By Hewwit 1869
17-Unsung Heroes of 1857 Revolt: Lal sah, Chait Singh of Tanwar … By Dr. Fanindam Deo-2023
घना राम साहू
सह प्राध्यापक भू-विज्ञन
शास. इंजीनियरिंग महाविद्यालय, रायपुर
निवास : मकान नंबर ई 20, कंचन गंगा फेस-2
डी. डी. नगर, रायपुर 492010 (छत्तीसगढ़)
बहुत सुंदर जानकारी भईया
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कभी कहीं कुछ लोगों से सुना था कि भटगांव जमींदार का परिवार भैना आदिवासी को हटाकर शासन में आया था.ऐसा कहा गया कि यह परिवार गोंड जनजाति का नहीं है बल्कि बिन्झजवार है . आपके लिखे में ऐसा पढ़ भी लिया.
सच विभिन्न हिस्सों से गुजर कर यात्रा करता है अशोक शुक्ल जी ने सोना खान का वर्णन किया था . इस वर्णन को रमेंद्र नाथ मिश्र जी ने भी बढ़ाया था . पूरी पुस्तक लिखी थी .आपने अब इस काम को उठाया है . हम आपके निष्कर्ष का और विस्तारित लेखन का इंतजार करते हैं .
आपको शुभकामनाएं
भटगांव जमींदारी परिवार का एक हिस्सा चौहान लोगों का है तो दूसरा प्रकट में गोंड लोगों का इसकी व्याख्या भी आवश्यक है