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सिवाणा का पहला जौहर और साका : वीरता और बलिदान की अमर गाथा

मध्यकाल में हुए भीषण विध्वंस और नरसंहार के बीच रोंगटे खड़े कर देने वाली ऐसी अगणित वीरगाथाएँ हैं, जिनमें अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिये क्षत्रिय सैनिकों और शासकों ने केशरिया बाना धारण करके प्राणों का बलिदान किया और असंख्य स्त्रियों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिये सखी-सहेलियों सहित अग्नि में प्रवेश कर लिया। ऐसी ही एक रोंगटे खड़े कर देने वाली गाथा है सिवाणा का जौहर और साका।

इतिहास की पुस्तकों में सिवाणा के किले में दो जौहर और ढाई साके का वर्णन है। पहला जौहर और साका दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय हुआ था। तिथियों को लेकर मतभेद हैं, किंतु जौहर और साके का विवरण इतिहास के प्रत्येक वृत्तांत में है। सिवाणा में दूसरा जौहर और साका मुगल बादशाह अकबर के आक्रमण के समय हुआ।

सिवाणा किले का महत्व

दिल्ली के हर शासक की कुदृष्टि सिवाणा किले पर रही है। यह किला जोधपुर के राजाओं के अज्ञातवास का सुरक्षित और गुप्त स्थान था। इसकी बनावट और पहुँच मार्ग दुर्गम पहाड़ियों से घिरे होने के कारण हमलावर आसानी से नहीं पहुँच सकते थे। सल्तनत काल में जब भी जोधपुर पर दिल्ली या गुजरात से हमले होते, तब राजपरिवार की महिलाओं के लिये सुरक्षित स्थान सिवाणा का किला ही हुआ करता था।

किले की दुर्गमता के कारण हमलावर नीचे बस्तियों में लूट-खसोट कर लौट जाते थे। यह किला जालौर के रास्ते में पड़ता था, इसलिए आती-जाती सेनाएँ इस किले और बस्ती पर धावा बोलती रहती थीं। लेकिन इस बार सिवाणा पर योजनाबद्ध हमला हुआ। खिलजी की सेनाओं ने दो बार हमला किया था और दोनों ही बार असफल रहीं।

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खिलजी का पहला असफल हमला

जुलाई 1308 में अलाउद्दीन खिलजी की फौज नाहर खाँ के नेतृत्व में जालौर पर हमले के लिये जा रही थी। रास्ते में सिवाणा पड़ा। नाहर खाँ ने सिवाणा पर धावा बोला। यह किला परमार काल में बना था। परमार शासक राजा भोज के पुत्र वीर नारायण पंवार ने दसवीं शताब्दी में इसका निर्माण करवाया था। पहले इसका नाम “कुस्थाना का किला” था, जो बाद में अपभ्रंश होकर “सिवाणा” हो गया।

उन दिनों जालौर पर कान्हड़दे सोनगरा का शासन था और उनके भतीजे सातलदेव सोनगरा सिवाणा की रक्षा के लिये तैनात थे। नाहर खाँ ने सातलदेव से समर्पण करने और सेना के लिये रसद व अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने का दबाव डाला।

सातलदेव सोनगरा एक वीर और पराक्रमी योद्धा थे। उन्हें पहाड़ों के गुप्त रास्तों से होकर हमलावर सेना पर धावा बोलने में महारथ हासिल थी। जुलाई 1308 को खिलजी की सेना ने सिवाणा को घेर लिया। यह घेरा लगभग एक महीने रहा।

किले में अधिक सेना नहीं थी, फिर भी सैनिकों का मनोबल ऊँचा था। एक रात योजना बनाकर सोनगरा वीरों ने अचानक खिलजी की सेना पर धावा बोल दिया। यह हमला इतना अकस्मात था कि खिलजी की सेना को इसकी भनक तक नहीं लगी और उन्हें संगठित होने का अवसर ही नहीं मिला। इस धावे में सेनानायक नाहर खाँ सहित हजारों सैनिक मारे गए और पांडालों में आग लगा दी गई। केवल वही सैनिक बच सके, जो प्राण बचाकर भाग निकले।

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खिलजी का दूसरा हमला और लम्बा घेरा

इस समाचार ने दिल्ली में अलाउद्दीन को आगबबूला कर दिया। उसने बदला लेने के लिये सेनापति कमालुद्दीन के नेतृत्व में एक बड़ी सेना सिवाणा पर भेजी। यह सेना 10 नवम्बर 1308 को रवाना हुई। कहीं-कहीं यह भी उल्लेख है कि अलाउद्दीन खिलजी स्वयं ही सेना लेकर आया।

सेना ने आकर किले को घेर लिया। यह किला अजेय था। लगभग दो वर्षों तक खिलजी की सेना ने सिवाणा को घेरे रखा। बीस हजार की फौज कमालुद्दीन के नेतृत्व में किले पर डेरा डाले रही। इस बार खिलजी की फौज सतर्क थी, जिससे सोनगरा वीरों को रात में छापामार युद्ध का अवसर नहीं मिला।

इन दो वर्षों में न तो सेना हटी और न सातलदेव सोनगरा ने समर्पण किया। हाँ, कई बार गुप्त रास्तों से निकलकर उन्होंने सेना पर धावा बोला और उन्हें परेशान किया।

विश्वासघात और जलाशय का अपवित्रीकरण

अंततः कमालुद्दीन ने किसी विश्वासघाती की सहायता ली और दुर्ग के पेयजल जलाशय में गोमांस डलवा दिया। अब सातलदेव के सामने केवल दो ही विकल्प थे—या तो समर्पण करना या फिर केशरिया बाना धारण कर अंतिम युद्ध करना।

उन्होंने रानी हंसादेवे से परामर्श किया और साका करने का निश्चय किया। उस समय किले में रानी हंसादेवे सहित कुल नौ सौ महिलाएँ थीं, जिनमें राजपरिवार और सैनिक परिवार की स्त्रियाँ सम्मिलित थीं।

रानी हंसादेवे ने जौहर की तैयारी आरंभ की और सातलदेव ने साका की। जौहर 25 सितम्बर से आरंभ हुआ और दो दिन चला। 27 सितम्बर की भोर में रानी हंसादेवे ने अग्नि में प्रवेश किया। तत्पश्चात किले के द्वार खोल दिये गये और वीर सैनिक प्राण हथेली पर लेकर शत्रु सेना पर टूट पड़े।

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साका और युद्ध का परिणाम

भीषण युद्ध हुआ। सिवाणा के सैनिकों की संख्या केवल एक हजार थी, जबकि खिलजी की सेना बीस हजार की थी। युद्ध केवल एक दिन ही चल सका। अंततः सिवाणा का पहला जौहर और साका वीरता और बलिदान की अमर गाथा बनकर इतिहास में दर्ज हो गया।

इतिहास में उल्लेख

सिवाणा के इस पहले जौहर और साके की तिथियों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। किंतु इसका विवरण अमीर खुसरो और कान्हड़दे प्रबंध दोनों में मिलता है।

कान्हड़दे प्रबंध के अनुसार सुल्तान एक बड़ी सेना लेकर सिवाणा की ओर चला। इसी दौरान एक राजद्रोही ‘भावले’ की सहायता से किले के कुण्ड—जो निवासियों और सैनिकों के लिए एकमात्र जलस्रोत था—को गौरक्त से अपवित्र करवा दिया गया। किले में खाद्य सामग्री भी समाप्त हो चुकी थी।

जब सर्वनाश निकट था, तो वीरांगनाओं ने जौहर कर अपनी देह अग्नि को समर्पित कर दी। किले के फाटक खोल दिये गये और वीर राजपूत केसरिया बाना पहनकर शत्रुओं पर टूट पड़े। एक-एक कर सभी वीरगति को प्राप्त हुए। सातलदेव भी एक वीर योद्धा की भाँति अंत तक लड़ते रहे और रणभूमि में शहीद हुए।

सुल्तान ने इस विजय के बाद सिवाणा दुर्ग का अधिकार कमालुद्दीन को सौंपा और इसका नाम बदलकर ‘खैराबाद’ रखा। हालांकि सुल्तान का अधिकार केवल दो वर्षों तक ही रह पाया। दिल्ली सल्तनत की उठापटक के बीच शीघ्र ही राजपूतों ने पुनः इस दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।