श्री दुर्गासप्तशती : विश्व का प्रथम स्त्री–सशक्तिकरण ग्रन्थ

भारतीय सनातन ज्ञान परम्परा में स्त्री को मात्र गृहिणी या पारिवारिक संरक्षक के रूप में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्वव्यवस्था की मूलाधारशक्ति के रूप में देखा गया है। “शक्ति” की अवधारणा नर के पूरक रूप में नहीं, अपितु ब्रह्म के वास्तविक क्रियात्मक परमशक्ति रूप में स्थापित हुई। यही कारण है कि ऋग्वेद से लेकर उपनिषद, महाभारत, योगवासिष्ठ और श्रीदुर्गासप्तशती तक, स्त्रीशक्ति को विश्व की नियामक, रक्षिका, विद्या–प्रदाता और दुष्टसंहारिणी के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।
मानव सभ्यता में स्त्री-शक्ति का चिंतन प्राचीनतम है, किन्तु व्यवस्थित रूप में स्त्री-सशक्तिकरण का घोषणापत्र श्री दुर्गासप्तशती (मार्कण्डेयपुराण) के रूप में प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ केवल एक स्तोत्र नहीं है, बल्कि स्त्री-शक्ति केंद्रित वैश्विक समाज, संस्कृति और रक्षा-दर्शन का मूल स्रोत है।
विशेषतः “श्रीदुर्गासप्तशती” (जो मार्कण्डेयपुराण के अंतर्गत आता है) विश्व का प्रथम ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्त्री–सशक्तिकरण, स्त्री–आर्मी (देवी की सेनाएँ), स्त्री–शिक्षा (विद्या–स्वरूपा, सरस्वती–तत्व), स्त्री–विज्ञान (प्रकृति–आधारित शक्ति–चक्र), स्त्री–केंद्रित समाज व्यवस्था, इन सभी विषयों पर संगठित, तात्त्विक और व्यावहारिक रूप से विचार उल्लेखित किया गया है।
श्रीदुर्गासप्तशती : स्वरूप और महत्व
श्रीदुर्गासप्तशती में १३ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। यह देवी माहात्म्य है जिसमें शक्ति के त्रिविध रूप – महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का विस्तृत वर्णन है। इसमें केवल देवी की स्तुति ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक, स्त्रीशक्ति, स्त्रीशिक्षा, स्त्री सशक्तिकरण इत्यादि का संदेश व विचार भी निहित हैं।
स्त्री–सशक्तिकरण का आधार
श्रीदुर्गासप्तशती में माँ दुर्गा को समस्त देवताओं की शक्ति का सामूहिक रूप बताया गया है।
“या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥”
यहाँ स्पष्ट है कि शक्ति (स्त्री) सम्पूर्ण प्राणी, जीव–जगत में व्याप्त है। यह दार्शनिक उद्घोष स्त्री–सशक्तिकरण की जड़ है।
दुर्गासप्तशती में स्त्री को केवल गृहिणी या माता नहीं, बल्कि सृष्टि की आधारशक्ति माना गया है।
स्त्री-शक्ति को ही पुरुष की शक्ति का मूल कहा गया है।
यह श्लोक बताता है कि प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान शक्ति देवी है, अर्थात स्त्री ही शक्ति का स्रोत है।
स्त्री–आर्मी (देवी–सेना) की अवधारणा
ग्रन्थ में महिषासुर, शुम्भ–निशुम्भ, चण्ड–मुण्ड, रक्तबीज आदि के युद्ध वर्णनों में देवी के साथ युद्ध करने वाली शक्तियों (काली, चामुण्डा, ब्राह्मणी, वैष्णवी, वाराही, ऐन्द्राणी, कौमारी, कामेश्वरी शक्ति आदि) का उल्लेख है।यह दर्शाता है कि देवी के सहचरिणी स्वरूपा देवियाँ एक संगठित “स्त्री–आर्मी” का रूप धारण करती हैं।
“ततः कोपान्महादेवी मुखात् कोटिसूर्ययः। निर्गता भैरव्या नाम्ना कालिका क्रोधसंयुता ॥”
यह युद्धशक्ति का स्त्रीरूप है, जो न केवल रक्षण करती है, बल्कि अन्य स्त्रियों को भी संगठित कर सैन्यशक्ति बनाती है।
मध्यम-चरित में देवी दुर्गा अपने सिंहवाहन पर आरूढ़ होकर असुरों की सेना का नाश करती हैं। यह रूप स्त्री-सेना की प्रथम वैदिक-सांस्कृतिक कल्पना है।
“सिंहवाहिनि देवी शूलहस्ते महाबला। दैत्यसेनाप्रणाशाय कल्पिता परमेश्वरी॥”
यह संकेत है कि स्त्री स्वयं आर्मी कमांडर की भूमिका निभाती है।
स्त्री–शिक्षा और विद्या–तत्व
सप्तशती में देवी को विद्या, बुद्धि, श्रद्धा, दया, लक्ष्मी, स्मृति आदि रूपों में स्थापित किया गया है।
यह ज्ञान–केन्द्रित स्त्री–समाज का आदर्श प्रस्तुत करता है।
“या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥”
यहाँ देवी को विद्या की मूलाधार बताकर यह संदेश दिया गया कि शिक्षा और ज्ञान का केन्द्र स्त्री ही है।
देवी को विद्या और बुद्धि कहा गया है।
“या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै…”
यहाँ स्पष्ट है कि शिक्षा और ज्ञान का वास्तविक स्वरूप स्त्री-तत्त्व है।
स्त्री–विज्ञान और प्रकृति–सम्बन्ध
श्रीदुर्गासप्तशती में बार–बार कहा गया है कि देवी ही प्रकृति हैं और वही विज्ञान का मूलाधार हैं।
सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी, जल सभी देवी के स्वरूप माने गए हैं।
यह “स्त्री–विज्ञान” की संकल्पना है, जिसमें प्रकृति और शक्ति का अभिन्न सम्बन्ध स्थापित हुआ।
“या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥”
देवी को “माता” कहने का अर्थ केवल जैविक मातृत्व नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि की जननी शक्ति है।
देवी को मायारूपिणी, शक्ति-बीज, प्रकृति कहा गया है। यह विज्ञान के ऊर्जा-सिद्धान्त (Energy Principle) का दार्शनिक रूप है। यहाँ ‘माया’ का अर्थ विज्ञान की परम ऊर्जा और विश्वव्यापी सापेक्षता से है।
समाज और शासन में स्त्री–केन्द्रिकता
सप्तशती के युद्ध आख्यान यह सिखाते हैं कि जब–जब देवता (पुरुष–तत्त्व) असमर्थ होते हैं, तब देवी (स्त्री–तत्त्व) नेतृत्व करती हैं।
यह केवल धार्मिक दृष्टान्त नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक संरचना में स्त्री–नेतृत्व की अनिवार्यता का घोष है।
“देविभिर्भासितं विश्वं तप्तं तेजोमयं यथा।”
यह स्त्री–शक्ति को संपूर्ण विश्व की नियामक शक्ति सिद्ध करता है।
स्त्री-नेतृत्व और राज्यव्यवस्था
देवी केवल युद्धिनी नहीं, बल्कि राज्य की अधिष्ठात्री भी हैं।
“या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता…”
यह बताता है कि धैर्य, नीति और नेतृत्व स्त्री के मूल गुण हैं।
श्री दुर्गासप्तशती केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं, बल्कि स्त्री सशक्तिकरण, शिक्षा, सुरक्षा, विज्ञान और संस्कृति पर आधारित विश्व का प्रथम घोषणापत्र है। इसमें स्त्री को शक्ति, विद्या, आर्मी, विज्ञान और विश्वशक्ति के रूप में स्थापित किया गया है। आधुनिक समाज, जो जेंडर इक्वालिटी की बात करता है, उसके लिए यह ग्रन्थ मार्गदर्शक है।
स्त्री-विश्वशक्ति और संस्कृति
दुर्गासप्तशती के अनुसार सम्पूर्ण विश्व स्त्री-तत्त्व से संचालित है।
“या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै…” “या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता…”
यह वैश्विक सांस्कृतिक दृष्टि है जिसमें स्त्री सृजन, पालन और संहार तीनों भूमिकाओं की अधिष्ठात्री है।
वैश्विक सन्दर्भ
आज “Women Empowerment” एक वैश्विक विमर्श है। पश्चिमी समाज इसे 19वीं–20वीं शताब्दी की उपलब्धि मानते हैं, किन्तु भारतीय सनातन परम्परा में यह प्राचीन काल या वैदिक काल से ही स्थापित था।
यूनानी, रोमन, मिस्री, चीनी सभ्यताओं में स्त्रियाँ देवियों के रूप में तो प्रतिष्ठित थीं, किन्तु सैन्य नेतृत्व, विद्या–आधिपत्य और विश्वनियामक रूप केवल दुर्गासप्तशती में स्पष्ट मिलता है।इस प्रकार दुर्गासप्तशती एक वैश्विक “फेमिनिस्ट मैनिफेस्टो” (Feminist Manifesto) आज के दृष्टिकोण में कहा जा सकता है।
श्रीदुर्गासप्तशती केवल एक स्तोत्रग्रन्थ नहीं, बल्कि स्त्री–सशक्तिकरण, स्त्री–आर्मी संगठन, स्त्री–शिक्षा और विद्या–केन्द्र,स्त्री–विज्ञान और प्रकृति–सम्बन्ध, स्त्री–केंद्रित समाज और शासन–नीति का दार्शनिक एवं व्यावहारिक संविधान है।
यह ग्रन्थ सिद्ध करता है कि सनातन संस्कृति में स्त्री मात्र पूज्य नहीं, बल्कि विश्व–नियामक और विश्व–शक्तिस्वरूपा है।
यही दृष्टि वैश्विक समाज–निर्माण और आधुनिक “Women Empowerment और women education की जड़ों को सशक्त करते हुए भारतीय सनातन ज्ञान–परम्परा से जोड़ती है।