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आध्यात्मिकता और प्रकृति सौंदर्य का उत्सव शरद पूर्णिमा

भारतीय संस्कृति में चन्द्रदेव का विशेष महत्व है, वर्ष में आने वाली पूर्णिमाओं को विशेष रुप से कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। माह परिवर्तन के साथ ॠतु परिवर्तन का संदेश भी ये पूर्णिमाएं लेकर आती है। इस दिन पूर्णचन्द्र की ज्योत्सना सारी पृथ्वी जगमगा उठती है। ॠग्वेद के दशम मंडल में चन्द्रमा का उल्लेक है। इसे पुरुष सूक्त कहते हैं।

‘चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोसूर्योऽजायत।’
अर्थात् चन्द्रमा का जन्म परमात्मा के मन से हुआ तथा सूर्य का जन्म परमात्मा के आंख से हुआ। ज्योतिष में चन्द्रमा मन का कारक अर्थात् जिम्मेदार माना जाता है जबकि सूर्य आंखों का कारक माना गया है।

पूर्णिमा का चंद्रमा पूर्णचंद्र, गोल होता है, इसलिए कवियों ने चन्द्रमा की तुलना प्रेयसी के मुखड़े से की है। नायिका के मुख को चंद्रमुखी कहा है। इसके पीछे धारणा रही होती कि जिस तरह चन्द्रमा शीतलता एवं गंभीरता धारण करता है वैसे ही नायिका भी उपमा अर्थ समझकर शीतलता एवं गंभीरता धारण करे। समुद्र में ज्वार भाटा आता है, इसलिए पूर्णिमा मनुष्य के मन  को भी प्रभावित करती है। समुद्र शास्त्र में स्त्री के मुख की तुलना चंद्रमा से करते हुए शास्त्रकार कहता है –

पूर्णचंद्रमुखी या च बालसूर्य-समप्रभा। विशालनेत्रा विम्बोष्ठी सा कन्या लभते सुखम् ।1। अर्थात जिस कन्या का मुख चन्द्रमा के समान गोल, आंखे बड़ी और होंठ हल्की लालिमा लिए होते हैं, ऐसी लड़कियों को अपने जीवन काल में सभी सुख प्राप्त होते हैं।

वैसे तो 12 माहों में प्रत्येक माह में एक पूर्णिमा होती है, किन्तु कुछ पूर्णिमाओं का ही महत्व दिखाई देता है। जिसमें शरद पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा एवं फ़ाल्गुन पूर्णिमा।

शरद पूर्णिमा क्यों है खास?

आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा गया है, यह समय वर्षा ॠतु के समापन एवं शीत ॠतु के आगमन का होता है। शरद ऋतु में आकाश नीला और स्वच्छ होता है, धूप कोमल और सुखदायक होती है, और प्रकृति का हर दृश्य मानो किसी चित्रकार की बनाई हुई कलाकृति जैसा लगता है। इस समय तक बारिश के बादलों का प्रभाव समाप्त हो चुका होता है और चारों ओर हरियाली अपने चरम पर होती है। जलाशयों में कमल खिलते हैं, और किसान अपनी फसलों की देखभाल करते हुए अगले कटाई के मौसम की तैयारी करते हैं। गगन में उड़ते पक्षियों के झुंड, सुबह और शाम की ठंडी हवाएँ, और नदियों का साफ़ जल, ये सभी शरद ऋतु की पहचान हैं।

शरद ऋतु भारतीय समाज में न केवल प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध है, बल्कि इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी बहुत गहरा है। इस ऋतु में कई प्रमुख त्योहार आते हैं, जैसे कि नवरात्रि, विजयादशमी (दशहरा), और दीपावली। इन त्योहारों का संबंध आध्यात्मिकता और आनंद से जुड़ा होता है, और इस समय प्रकृति की शांति और सुंदरता इन पर्वों को और भी आनंदमय बना देती है।

महालक्ष्मी का जन्म दिवस कोजागरी पूर्णिमा

मान्यता है कि इस दिन चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है तथा इसी दिन महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ था। इसलिए इसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। माना जाता है कि इस दिन महालक्ष्मी बहुत प्रसन्न होती हैं और चंद्रमा की ज्योत्सना में पृथ्वी पर भ्रमण करने आती हैं। जिन भक्तों को पूजा पाठ में लीन एवं भजन उपवास करते देखती हैं उस पर लक्ष्मी जी की विशेष अनुकम्पा होती है। चन्द्रमा सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अमृत की वर्षा करते हैं, इसलिए उस अमृत को पाने के लिए खीर बनाकर ज्योत्सना में रखी जाती है, जिससे चन्द्रमा का प्रभाव उस खीर में आ जाए एवं आगामी शीत ॠतु को सहन करने लायक मनुष्य का शरीर तैयार हो सके तथा इससे रोग व्याधि इत्यादि दूर हो सके।

कवियों ने शरद पूर्णिमा पर क्या कहा है?

शरद ऋतु का महत्त्व भारतीय काव्य साहित्य में अत्यधिक है। इस ऋतु को कवियों ने न केवल उसके प्राकृतिक सौंदर्य और शांति के लिए सराहा, बल्कि इसे आध्यात्मिकता, प्रेम, भक्ति, और मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं से भी जोड़ा है। तुलसीदास और कालिदास जैसे महाकवियों ने शरद ऋतु का विस्तृत वर्णन अपने काव्यों में किया है। इसके अलावा, कई अन्य कवियों ने भी इस ऋतु के विभिन्न आयामों का उल्लेख किया है।

तुलसीदास का शरद ऋतु वर्णन
तुलसीदास, जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की, ने शरद ऋतु को आध्यात्मिक और नैतिक शुद्धता से जोड़ा है। शरद ऋतु की रात, उसकी शीतलता और स्वच्छता को तुलसीदास ने भगवान राम की महिमा के प्रतीक के रूप में देखा। उन्होंने शरद की चांदनी को भक्तों के हृदय की शुद्धता से जोड़कर उसे भक्तिपूर्ण जीवन का प्रतीक माना। रामचरितमानस में तुलसीदास ने शरद ऋतु का यह वर्णन किया है:

“शरद निशा, जग जामिनि जाकी।
लघु तम घन घन मूरति साकी।।
बिमल विलोचन लोक निहारा।
सरद चंद महेसु पसारा।।”
यह उद्धरण शरद ऋतु के निर्मल चंद्रमा की शांति और उजाले की ओर इशारा करता है, जिसे तुलसीदास ने भक्ति और आस्था के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। यहाँ शरद ऋतु को नैतिक और आध्यात्मिक प्रकाश के रूप में देखा गया है, जो अज्ञान (अंधकार) को समाप्त कर जीवन में प्रकाश (ज्ञान) लाता है।

‘बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥’
हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥

कालिदास का शरद ऋतु वर्णन
महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में ऋतुओं का विस्तृत वर्णन किया है, जिसमें शरद ऋतु का विशेष स्थान है। कालिदास ने शरद ऋतु को सुंदरता और स्वच्छता के रूप में चित्रित किया। उन्होंने इसे उस समय के रूप में वर्णित किया, जब प्रकृति अपने शुद्धतम रूप में होती है। आकाश का नीला होना, चंद्रमा की स्वच्छता, कमल के फूलों का खिलना, और जलाशयों का स्वच्छ होना—ये सब शरद ऋतु के विशेष तत्व हैं जो कालिदास की कविताओं में सजीव हो उठते हैं। कालिदास ने ऋतुसंहार में शरद ऋतु का यह वर्णन किया है:

“धौतांबरम् निर्मलमम्बुवाहम्,
वपुः स्फुटं चन्द्रमसो विभाति।
शरद्भिरुक्तं जगदाभिरामम्,
नवेव दृष्टं मृगवन्धुना च।।”
(अर्थात, शरद ऋतु में आकाश स्वच्छ और निर्मल हो जाता है, चंद्रमा का तेज और भी अधिक चमकदार हो जाता है, और संपूर्ण जगत का सौंदर्य निखर उठता है।)

जयशंकर प्रसाद का शरद ऋतु वर्णन
छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने भी शरद ऋतु को अपनी रचनाओं में विशेष स्थान दिया है। उनकी रचना कामायनी में शरद ऋतु का उल्लेख अत्यंत भावनात्मक और प्रतीकात्मक ढंग से किया गया है। शरद की चांदनी और उसकी शीतलता को प्रसाद ने मनुष्य के आंतरिक जीवन और उसकी भावनाओं से जोड़ा है। शरद ऋतु उनके लिए शांति और संतुलन का प्रतीक है, जो व्यक्ति के भीतर और बाहर दोनों रूपों में व्याप्त है।

“शरद की चाँदनी में वह शीतलता थी,
जो मन को नीरव शांति से भर देती है।”
यह उद्धरण शरद ऋतु की शांत और गहन प्रकृति को व्यक्त करता है, जहाँ मनुष्य अपने भीतर की शांति को महसूस करता है। यह समय आत्मनिरीक्षण और आध्यात्मिकता का भी होता है, जब मनुष्य बाहरी दुनिया के कोलाहल से दूर अपनी आत्मा की ओर मुड़ता है।

सूरदास का शरद ऋतु वर्णन
भक्ति काव्य के महान कवि सूरदास ने शरद ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण की लीला से जोड़ा है। उन्होंने गोपियों और श्रीकृष्ण के बीच के प्रेम और भक्ति के संबंध में शरद ऋतु के चंद्रमा की शीतलता और उसकी मोहकता का वर्णन किया है। सूरदास ने अपने पदों में शरद ऋतु को प्रेम और भक्ति का समय बताया है, जब प्रकृति का सौंदर्य मानो प्रेम में सराबोर हो जाता है।

“शरद शशि मुख नहिं छिपत, तिहारे नैनन के कोर।
सांवरे मनमोहन गोविंद, बिराजत बंसी के ठोर।”
सूरदास ने शरद ऋतु को श्रीकृष्ण के प्रेम और उनकी मोहकता से जोड़ा है, जहाँ चंद्रमा की शीतल रोशनी और प्रेम का एहसास एक साथ मिलते हैं।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का शरद ऋतु वर्णन
आधुनिक हिंदी कविता में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने शरद ऋतु को राष्ट्रीय एकता और शांति के प्रतीक के रूप में देखा। दिनकर ने शरद की शांति और उसकी स्थिरता को समाज के लिए एक आदर्श समय बताया, जहाँ संतुलन और सद्भाव व्याप्त होता है। उनकी कविताओं में शरद ऋतु का यह पहलू अत्यंत गहन रूप से व्यक्त हुआ है।

“शरद के चंद्रमा सी शांति हो जब मन में,
तभी होगा विजय का मार्ग सरल जन जीवन में।”
दिनकर ने शरद को शांति, संतुलन और सफलता का प्रतीक माना है, जो संघर्ष और कठिनाइयों के बीच भी व्यक्ति को सही दिशा दिखाती है।

इस तरह हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति मे शरद ॠतु का महत्व यहाँ के जन जीवन में स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है। वर्षा के बीतने के पश्चात दशहरे एवं दीवाली का त्यौहार मनुष्य के जीवन में नव उल्लास एवं नव संचार लेकर आता है, जो जीवन क्षमता में वृद्धि करता है, क्योंकि प्रकृति उल्लास एवं उमंग का ही पर्याय है। प्रकृति हमें सह अस्तित्व के साथ जीना सिखाती है और वसुधा, वसुंधरा होकर चराचर जगत के जीवों के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देती है। हमें प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए एवं सह अस्तित्व को बनाए रखना चाहिए।

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