लेखक का लेखन कब मरता है ?
जीवन के पचीसों वर्ष स्वांत; सुखाय लेखन के रहे, नये शब्दों का चुनाव, नये शब्दों का निर्माण, वाक्यों में प्रवाह एवं लयबद्धता मेरे लेखन की विशेषता रही है। रोज सुबह जागकर चाय का प्याला टेबल पर आते ही लेखन शुरु हो जाता। कोई विषय तय नहीं होता था, कोई विधा तय नहीं होती थी। बस प्रेरणा मिलती और स्वत: कीबोर्ड खटखटाने लगता और एक उम्दा आलेख बनकर तैयार हो जाता। क्योंकि मेरे पास शब्दों की एवं लेखन की सीमा असीम थी।
आनंद इतना आता था जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि मेरा लेखन, मेरे लिये ही था। पाठकों को पसंद आता था। मैं भाषा की दृष्टि से बहुत समृद्ध हूँ, घुमक्कड़ी ने बहुभाषी बनाया, बहुभाषी होने के कारण लेखन के लिए शब्द स्वयं ही मेरे सामने आकर खड़े हो जाथे और कहते कि इस जगह पर मेरा प्रयोग करो और मैं उनकी मानकर उन शब्दों का प्रयोग कर भी लेता था। मेरा स्वांत सुखाय लेखन पाठकों को पसंद भी आता था। मैं सोचता था कि ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है, कुछ लोग हैं जो मेरी जैसी पसंद के हैं।
मुझे याद आता है कि 2018 के बाद मन का नहीं लिख सका क्योंकि जीवन के चढ़ाव पर आवश्यक हो गया कि कहीं से कुछ अर्थ अर्जन किया जाए और जीवन में पहली और आखरी बार छ: वर्ष का समय एक संस्थान को दिया। सोचा कि जैसा मैं लिखता हूँ वैसा ही लिखना है। लेकिन वहां की स्थिति अलग थी, जो नियोक्ता ने कहा वैसा ही लिखा और किया। इन वर्षों में अपनी स्वतंत्रता को अपनी आवश्यकताओं को बेच चुका था।
वह खेलता – कूदता, हंसी ठिठोली करता यारबाज बिंदास लेखक धीरे-धीरे मरता चला गया। आपाधापी में वह कब मरणासन्न हो गया पता ही न चला। मेरी कलम मेरे गीत नहीं गा रही थी, मेरी कलम किसी और के संकेत पर चल रही थी। जैसा वह कहते वैसे ही करता। मेरा कुछ नहीं था। आपने देखा होगा 2018 के बाद मेरे फ़ेसबुक से और ब्लॉग से जैसे नाता ही टूट गया था। सुबह ऑफ़िस जाता तो जाने से पहले वहीं के काम करता शाम को भोजन करके वहीं के काम करता, मतलब जीवन यंत्रवत था।
मेरी शब्दावली, मेरा लेखन, मेरे प्रोजेक्ट, मेरी किताबें सब अधूरी रह गई। घुमक्कड़ी का तो धनिया बोआ गया तथा यही घूमना और लिखना मेरी पहचान थी। शरीर में भी धीरे-धीरे जंग लगने लगा। वह भी कुछ अलग तरह से रियेक्ट करने लगा। पराकाष्ठा तो श्रुति के जाने के बाद हुई। सब कुछ छिन्न भिन्न हो गया। किराये पर लेखनी दिया हुआ लेखक और कितना मरता, जो एक बार मर चुका है। डेढ वर्ष संज्ञा शुन्य अवस्था में कटे। न लिखने के लिए, न पढने के लिए बुद्धि में कुछ आया।
मेरे परिजन इस अवधि में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर थे, जीवन का कठिन समय हम सबने मिलकर काटा, एक दो ऐसे भी मित्र थे, जिन्होंने मेरा साथ नहीं छोड़ा। लेकिन कुछ ऐसे भी मित्र थे, जिनके लिए कभी मेरा पसीना ही चंदन था। चरणरज को माथे पर धरते थे, वे दिखाई नहीं दिये। यह मैं पहले से समझता था। मुझे लगा कि इनके लिए मैं भारत के नक्शे से ही गायब हो गया हूँ, पूर्व में लिखता भी रहा हूं ‘दुनिया पीत्तल दी।’ लेकिन एक झंझावात ने समझा दिया कि वास्तविकता में भी दुनिया पीत्तल की ही है, भले सोने जैसी चमक से आकर्षित करती रही है।
मेरी कलम किराये पर उठ गई थी, किसी और के लिए चल रही थी। यह भी नहीं था किसी ने जबरिया कट्टा अड़ा के कब्जा कर लिया था। परिस्थितियों ने मुझे खुद किराये पर देने के लिए मजबूर किया था। क्योंकि मेरी कलम कोई खरीद नहीं सकता। मैने अनुभव किया कि जब कलम किसी और के लिए लिखती है तो आपके शब्दों में तेजस्विता, प्रखरता, लयबद्ध प्रवाह, और बाजीगरी का अभाव हो जाता है। लेखन का उद्देश्य स्वांत: सुखाय होता है, यानी आत्मसंतोष और आत्मसुख के लिए लिखा जाता है। लेकिन जब यह स्वार्थ, भय या दबाव के अधीन होता है, तो इसका वास्तविक स्वरूप खो जाता है। हां इतना है कि मेरी कलम ने इन वर्षों में किसी का अहित नहीं किया। सिर्फ़ भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र का गुणगान किया।
एक स्वतंत्र कलम विचारों को निर्भीकता से प्रस्तुत करती है। यह समाज की कमियों को उजागर करती है, सत्य को उजागर करती है, लेकिन जब किराये पर चढ़ जाती है, तो लेखन कमजोर पड़ जाता है। लेखक की कलम को जब और कहीं से मार्गदर्शन मिलता है, तो वे धीरे-धीरे लेखक मरने लगता हैं। उनकी आत्मा की प्रखरता और तेजस्विता समाप्त हो जाती है। शब्दों की शक्ति कमजोर हो जाती है, और विचारों में गहराई नहीं रह जाती।
स्वांत: सुखाय का अर्थ है आत्मसुख के लिए लेखन करना। यह लेखन का सबसे पवित्र और सार्थक उद्देश्य है। जब एक लेखक अपने आत्मसुख के लिए लिखता है, तो वह अपने विचारों को स्वतंत्रता से अभिव्यक्त करता है। यह लेखन जीवनामृत के समान है, जो ज्ञान और आयु का वृद्धिकारक होता है। आत्मसंतुष्टि के साथ किया गया लेखन लेखक को आंतरिक शांति और आनंद प्रदान करता है। यह लेखन सच्चे अर्थों में समाज के लिए लाभकारी होता है और समाज को जागरूक और प्रबुद्ध बनाता है।
गत मई से कोशिश कर रहा था पुन; पुरानी रवानी आ जाए, लिखने भी लगा। छत्तीसगढ़ की मेरी सबसे पुरानी न्यूज वेबसाइट को पुन; जगाया और खरामा खरामा चेतना जागृत करने की कोशिश में लगा रहा। लेकिन आज फ़ेसबुक पर 15 जुलाई 2015 की एक पोस्ट यादों के झरोखे में खुल गई, टिप्पणियां पढ़ने लगा। दर्शन बवेजा माटसाब की एक टिप्पणी ने बंद पड़े हृदय के द्वार एवं कीबोर्ड सुर खोल दिये। उन्होंने मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी की थी कि ‘मैने इससे तगड़ा व्यंग्य नहीं पढा इससे पहले।’
बस इसके बाद अंतर्मन के द्वार उन्मुक्त होते गये, चिंतन को विस्तार मिला, गहरे में उतरता गया कि क्या से क्या हो गया। सोचकर शब्द जागने लगे, मैं कीबोर्ड खटखटाते रहा था। बहते हुए शब्द जमने लगे, वाक्य का रुप लेने लगे और एक बतकही तैयार हो गई। कुछ जमा हुआ था जो शब्दों के माध्यम से पटल पर उतरता चला गया। पता नहीं कौन सा शब्द आपकी चेतना को जागृत कर दे। आज मेरे लिए दर्शन बवेजा जी की टिप्पणी उत्तरार्ध में जीवन को दिशा देने में कामयाब रही।
कबीर दास जी शब्द की महिमा बताते हुए कहते हैं –
शब्दे मारा गिर पड़ा, शब्दै छोड़ा राज।
जिन जिन शब्द विवेकिया, तिनका सरिगौ काज।।
बुल्लेशाह कहते हैं –
इक अल्फ तूं इत्थों मख लै होर इल्मां दी फिकर न कर”
लेखक भारतीय संस्कृति, पुरातत्व एवं इतिहास के जानकार हैं।
लेखन लेखक की आत्मा की आवाज होती है
उन्मुक्त चिंतन और लेखन सतत जारी रहे… शब्दों की जादूगरी चलती रहे… शुभकामनाएं ढ़ेर सारी
लेखन लेखक की आत्मा की आवाज होती है।हार्दिक शुभकामनाएं।