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सत्यपाल मलिक का निधन: एक मुखर राजनीतिक जीवन का अंत

दिल्ली, 5 अगस्त 2025/ भारतीय राजनीति की एक मुखर और निर्भीक आवाज़ आज सदा के लिए शांत हो गई। जम्मू और कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक का आज दोपहर 1:10 बजे दिल्ली के डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया। 79 वर्षीय मलिक पिछले कुछ महीनों से जटिल मूत्र पथ संक्रमण और गुर्दे से जुड़ी समस्याओं से पीड़ित थे। मई 2025 से वह अस्पताल में भर्ती थे और उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी। अस्पताल प्रशासन के अनुसार उनकी मृत्यु मूत्र संक्रमण, अस्पताल-जनित निमोनिया, और बहु-अंग विफलता के कारण हुई। उनके स्वास्थ्य इतिहास में मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, और नींद से जुड़ी बीमारी (स्लीप एपनिया) शामिल थे।

उनका पार्थिव शरीर दिल्ली के आर. के. पुरम स्थित आवास पर लाया गया, जहां अंतिम दर्शन की व्यवस्था की गई। उनका अंतिम संस्कार 6 अगस्त को लोधी श्मशान घाट में किया जाएगा। सत्यपाल मलिक का निधन न केवल एक वरिष्ठ राजनेता के निधन के रूप में देखा जा रहा है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में भी, जो सत्ता के सामने सच बोलने का साहस रखते थे।

सत्यपाल मलिक का प्रारंभिक जीवन और राजनीतिक यात्रा
सत्यपाल मलिक का जन्म उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में हुआ था, हालांकि उनके पैतृक मूल हरियाणा से जुड़े थे। वे जाट समुदाय से आते थे और उनका झुकाव किशोरावस्था से ही राजनीति की ओर था। उन्होंने 1960 के दशक में राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से प्रेरणा ली और छात्र जीवन में ही राजनीति में सक्रिय हो गए। 1968-69 में वे मेरठ विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने और यहीं से उनके राजनीतिक जीवन की नींव पड़ी।

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1974 में वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने। इसके बाद उन्होंने राज्यसभा में 1980 से 1989 तक दो बार प्रतिनिधित्व किया, पहले लोक दल और फिर कांग्रेस के माध्यम से। 1989 में वे जनता दल के टिकट पर अलीगढ़ से लोकसभा पहुंचे। 1987 में, उन्होंने बोफोर्स घोटाले के विरोध में कांग्रेस से इस्तीफा देकर नैतिकता की मिसाल कायम की। इसके बाद उन्होंने जन मोर्चा की स्थापना की, जो बाद में जनता दल में विलीन हो गई।

वर्ष 2004 में सत्यपाल मलिक ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सदस्यता ग्रहण की और 2012 में पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। 2014 के आम चुनावों में वे नरेंद्र मोदी की टीम का हिस्सा रहे। उनका राजनीतिक सफर विचारधारा और वैचारिक भिन्नताओं से भरा रहा, लेकिन उन्होंने हर बार स्पष्ट और मजबूती से अपनी स्थिति रखी।

संवैधानिक जिम्मेदारियाँ और अनुच्छेद 370
उनका सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्यकाल जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल के रूप में रहा। वे 23 अगस्त 2018 को इस पद पर नियुक्त हुए और 30 अक्टूबर 2019 तक वहां रहे। इसी दौरान 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया, जो भारतीय संविधान में जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। इस फैसले ने उन्हें इतिहास में एक केंद्रीय पात्र बना दिया।

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इससे पूर्व वे बिहार के राज्यपाल (2017–2018) और बाद में गोवा (2019–2020) तथा मेघालय (2020–2022) के राज्यपाल भी रहे। इन सभी जिम्मेदारियों को उन्होंने सक्रियता और स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ निभाया।

विवादों से घिरा पर स्पष्टवाणी से परिपूर्ण व्यक्तित्व
सत्यपाल मलिक अपनी बेबाक और स्पष्टबोल शैली के लिए प्रसिद्ध रहे। सत्ता के निकट रहकर भी उन्होंने कई बार नीतियों और फैसलों की आलोचना की। वर्ष 2023 में उन्होंने एक साक्षात्कार में पुलवामा हमले को लेकर गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने दावा किया कि हमला खुफिया विफलताओं का परिणाम था और सीआरपीएफ के जवानों को एयरलिफ्ट करने से मना किया गया था। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने उन्हें इस विषय पर चुप रहने को कहा था। उनके इस बयान से देशभर में राजनीतिक हलचल मच गई और विपक्षी दलों ने इसे सरकार की नाकामी का सबूत बताया।

इसके अलावा उन्होंने किरू हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठाए। उनके ये आरोप प्रशासनिक पारदर्शिता पर सीधा प्रश्नचिह्न थे।

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वर्ष 2021 में जब देश में किसान आंदोलन चल रहा था, तब उन्होंने खुलकर किसानों का समर्थन किया। उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि सिख और जाट समुदायों को नजरअंदाज करना भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार और ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसी घटनाओं का उल्लेख करते हुए सरकार को आगाह किया। उनकी इस टिप्पणी पर तीखी प्रतिक्रियाएं आईं और सोशल मीडिया पर #SackSatyapalMalik ट्रेंड करने लगा।

राजनीतिक प्रभाव और विरासत
सत्यपाल मलिक का राजनीतिक जीवन विविधता और विचारों की स्पष्टता से भरा रहा। वे उन कुछ नेताओं में से थे जो सत्ता का हिस्सा रहते हुए भी सत्ता की आलोचना करने का साहस रखते थे। उनके समर्थकों ने उन्हें किसानों और आम जनता के हितों का रक्षक माना, जबकि आलोचकों ने उन्हें गैर-जिम्मेदार और भड़काऊ बयान देने वाला बताया।

उन्होंने न सिर्फ संवैधानिक पदों की गरिमा बनाए रखी, बल्कि कई बार सत्ता के दबावों से ऊपर उठकर अपनी राय रखी। यही कारण है कि उनका निधन भारतीय लोकतंत्र में एक निर्भीक और सिद्धांतवादी नेता के रूप में याद किया जाएगा।