हर असंभव को संभव कर अपने जीवन को साधना बनाने वाले राष्ट्र योगी एकनाथजी
आमतौर पर काफी बार हम असाधारण व साधारण व्यक्ति जैसी चीजों के बारे में सुनते व बोलते है। परन्तु हम सभी एक साधारण मनुष्य के रूप में जन्म लेते है तो कोई असाधारण कैसे हो सकता है। क्योंकि हम सभी साधारण मनुष्य के रूप में ही पैदा होते है, लेकिन हमारे राष्ट्र ने ऐसे कई सपूतों को जन्म दिया जिन्होंने अपने उच्च कर्मों, विश्वास व धैर्य से अपने जीवन को व स्वयं को असाधारण बनाया । ऐसे ही एक राष्ट्रयोगी को भारत माता ने जन्म दिया, जिसका नाम था एकनाथ रानाडे । जिनके बारे में आमतौर पर हमने कम ही सुना होगा, क्योंकि उन्होने अपने नाम को कभी अपने कार्य से बड़ा नहीं होने दिया । भारत के सुदूर दक्षिण कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद शीला स्मारक, एकनाथजी की प्रबल कार्यशैली और ध्येय के प्रति निष्ठा का उदाहरण है। एकनाथजी की इसी अद्वितीय कार्यरूपी साधना व राष्ट्र के प्रति संपूर्ण निष्ठा के कारण, उनकी पुण्यतिथि को साधना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
एकनाथजी का जन्म 19 नवंबर, 1914 में महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ । बचपन से ही पिता से उन्हें अनुशासन व व्यवस्थित रहने कि सीख मिली । वे बचपन से ही बुद्धिमान व शारीरिक तौर पर मजबूत होने के साथ-साथ धैर्यवान व दृढ़ भी थे। जब वे आठ वर्ष के थे, तब एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि अगर व अपने माता- पिता के साथ रहे तो, उन्हें माता पिता की जीवन को खतरा होगा । इसलिए बहुत ही कम आयु में एकनाथजी को अपने बड़े भाई के पास नागपुर में जाना पड़ा । उनकी मां को लगा कि उन्होंने अपने पुत्र को गोद दे दिया, पर शायद भारत मां ने उनके पुत्र को गोद ले लिया था । नागपुर में एकनाथजी राष्ट्र स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए व निरंतर शाखा में जाने लगे । कॉलेज में बाइबल क्लास में सनातन धर्म के सतत् तिरस्कार व आलोचना के कारण उन्होंने अपने धर्म को और संस्कृति को गहन अध्ययन करने के तय किया, जिस समय उन्होंने स्वामी विवेकानंद को पढ़ना शुरू किया ।
बहुत की कम आयु में, अपने जीवन यात्रा के उदय के समय से ही एकनाथजी ने अपने जीवन के लक्ष्य को तय किया । अपने कॉलेज की पढ़ाई के पश्चात, उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत माता को समर्पित करते हुए, संघ में प्रचारक बनने का तय किया । मात्र 24 साल की उम्र में एकनाथजी का यह निर्णय, उनके स्पष्ट आचरण, त्याग व साहस का परिचय देता है। 1938 में प्रचारक के रूप में एकनाथजी को महाकौशल, यानी आज के मध्य प्रदेश, में प्रचारक का दायित्व देकर भेजा गया, जहां उन्होंने कार्य की आवश्यकता के लिए हिंदी भी सीखी । अंग्रेजों के क्रूर गुंडा एक्ट से स्वयं व सामान्य लोगों की रक्षा के लिए एकनाथजी ने LLB में नामांकन करवाया व प्रचारक रहते हुए, फर्स्ट क्लास से LLB उत्तीर्ण की। एकनाथी ने पूरे जीवन भर अपने सपनों के लिए नहीं, बल्कि कार्य के लिए जो भी उपयुक्त था वह किया, क्योंकि कार्य का पूर्ण होना ही उनका सपना था।
एकनाथजी की कार्यशैली व अनुशासन इतना सुदृढ़ व प्रबल था कि व कपड़े सुखाने से लेकर बौद्धिक देना, किसी भी कार्य को हल्के में न लेते हुए पूर्णता से करते थे । जब उन्हें प्रथम बार बौद्धिक सत्र लेने का अवसर मिला तब, उन्होंने रात को 2 बजे जागकर भी अभ्यास किया और यह सुनिश्चित किया वह तैयार है। कार्यकताओं की खोज में व कार्य को आगे बढ़ाने की दृष्टि से वे एक बार कांग्रेस के अधिवेशन में भी गए । एकनाथजी ने कभी भी खुद को किसी राजनीतिक विचारधारा व बंधन में नहीं बांधा । एकनाथजी के बड़े भाई के देहांत के बाद, जब घर में उनकी मां समान वहिनी को उनकी आवश्यकता थी, तब भी उन्होंने बड़ी इकाई यानि, मातृभूमि को आगे रखकर कार्य को ही चुना । 1948 में जब संघ लड़ बेन लगा, तन एकनाथजी ने डटकर स्थिति का सामना किया और कार्य में लगे रहे । उस समय एकनाथजी के नेतृत्व में संघ ने एक बड़ा सत्याग्रह किया, जिसके बाद बेन हटा । उस समय सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी एकनाथजी से प्रभावित होकर उन्हें ‘स्टील मेन’ कहकर संबोधित किया ।
विवेकानंद शिला स्मारक और माननीय एकनाथ रानाडे जी
1963 में जब स्वामी विवेकानंद के जन्म को 100 वर्ष पूर्ण हुए, तब कन्याकुमारी के लोगों में उस शीला पर, जहां स्वामीजी ने तपस्या की थी, एक स्मारक बनाने का तय किया और सभी ने नागपुर में संघ के सरसंघचालक परम पूजनीय गुरु गोलवलकर जी से संपर्क किया। यह कोई इतिफाक नहीं था, उस समय एकनाथजी भी नागपुर में ही थे, और ईश्वरीय योजना से यह कार्य एकनाथजी को सौंपा गया । एकनाथजी ने स्थिति का संज्ञान लिया और शीला स्मारक का कार्य अपने हाथों में लिया, जिसके साथ साथ कई मुश्किलें उनके सामने आई । जिनमें थे तमिलनाडु में मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम, जिन्होंने यह कहा था कि उनके जीतेजी यहां कोई स्मारक नहीं बनेगा और साथ के देश के संस्कृति मंत्री, हुमायूं कबीर भी इसके विरोध में थे। एकनाथजी के सामने यह मुश्किल पहाड़ जैसी थी । उस काल खंड के समय एकनाथी ने शीला स्मारक के निर्माण हेतु देश के 323 सांसदों के हस्ताक्षर करवाए जिसमें सभी पार्टियां, विचारधाएं और नेता शामिल थे।
एकनाथजी ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के गुरु कांची कामकोटि के परमाचार्य से शिला स्मारक के विषय में संपर्क कर स्मारक के नियोजन किया और इस प्रकार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को भी अपने कार्य से जोड़ा । स्मारक के निधि संकलन के समय, शिला स्मारक को राष्ट्र का स्मारक बनाने के लिए उन्होंने एक और दो रूपये के फोल्डर्स के द्वारा, 30 लाख लोगों से 85 लाख रूपये संकलित किए। एकनाथजी ने प्रत्येक राज्य सरकार से 1 लाख रुपए शिला स्मारक के लिए लिए । यहां तक कि एकनाथजी ने उस समय के बड़े कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु से भी संपर्क किया, और ज्योति बसु की पत्नी ने भी शिला स्मारक के लिए निधि संकलन किया था। इस पूरे समय एकनाथी पूरे भारत में संपर्क करते थे और ज्यादा से ज्यादा लोगों को शिला स्मारक के कार्य से जोड़ रहे थे। एकनाथजी का कार्य हमेशा पूर्व व पूर्ण नियोजित रहता था, की स्मारक के 6 साल के निर्माण में किस दिन कौनसा काम होना है, यह उनके डायरी में लिखा था । यह एकनाथजी की समग्र कार्यशैली, दृढ़ संकल्प व कार्य के प्रति निष्ठा ही थी, की असंभव सा दिखने वाला शिला स्मारक का कार्य, मात्र 6 साल में ही पूरा हुआ ।
एकनाथजी हर कार्य को एक समग्र दृष्टि व नियोजन से करते थे। और उनका कार्य सिर्फ पत्थर पर पत्थर रख स्मारक बनाने का नहीं था। स्मारक के निर्माण के समय ही उन्होंने भविष्य की योजना की थी, और एक जीवंत स्मारक, यानि एक आध्यात्मिक सेवा संगठन का निर्माण करने का सोचा, जिसका नाम उन्होंने विवेकानंद केंद्र रखा । केंद्र में जीवनव्रती कार्य करने के इच्छुक युवाओं को आह्वान किया, जिसमें 1600 लोगों ने आवेदन किया जिनमें एकनाथजी ने सिर्फ 12 लोगों को चिह्नित किया और सभी को प्रशिक्षण पश्चात उत्तर पूर्व भारत में विशेषतः अरुणाचल प्रदेश में कार्य के लिए भेजा। एकनाथजी द्वारा बनाया संगठन, विवेकानंद केंद्र, आज 50 से ज्यादा वर्ष पूर्ण कर चुका है और देश के विभिन्न भागों में कार्य कर रहा है, जो एकनाथजी की दूरदृष्टी व उत्तम कार्य का प्रतीक है। एकनाथी का जीवन इतना सरल व सादगी भरा था कि आज ढूंढने पर उनकी मात्र एक फोटो मिलती है, क्योंकि एकनाथजी ने खुद से ज्यादा अपने कार्य को आगे रखा । एकनाथजी भारतमाता के सच्चे सपूत है जिन्होंने अपने कार्य से खुद को असाधारण बनाया और हर असंभव कार्य को संभव किया और अपने पूरे जीवन को एक साधना बनाया । इसलिए हर वर्ष 19 नवंबर को उनकी जन्मतिथि को साधना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
~सतीश कुमार
(लेखक विवेकानंद केंद्र, उत्तर प्रांत के प्रांत-सह युवा प्रमुख है व दिल्ली विश्वविद्यालय से पोस्टग्रेजुएट है)