स्वतंत्रता संग्राम से गौरक्षा आंदोलन तक संस्कृति जागरण के प्रतीक : संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
भारतीय स्वतंत्रता के लिए जितना संघर्ष प्रत्यक्ष आंदोलनों के माध्यम से हुआ, उससे कहीं अधिक उस अप्रत्यक्ष संघर्ष में जीवन समर्पित हुआ, जिसमें उन महापुरुषों ने भाग लिया जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और साथ ही भारतीय संस्कृति, मान्यताओं और परंपराओं के प्रति जागृति के लिए अपना संपूर्ण जीवन अर्पित किया। ऐसे ही जीवनदानी संत थे संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया, जेल गए, और बाद में गौरक्षा आंदोलन में भी अपना योगदान दिया।
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का जन्म 9 अक्टूबर 1885 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के अंतर्गत ग्राम नगला में हुआ था। उस दिन कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि थी। उनके पिता पंडित मेवाराम जी भगवताचार्य और माता अयोध्यादेवी भारतीय संस्कृति और परंपराओं के प्रति समर्पित, एक गृहस्थ संत के समान थीं। परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था, किन्तु आध्यात्म और मनोबल की दृष्टि से अत्यंत सुदृढ़ था।
सनातन परंपरा के अनुरूप, बालक प्रभुदत्त को बाल्यावस्था में ही शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजा गया, जहाँ उन्होंने संस्कृत, गीता और उपनिषदों का अध्ययन किया। गुरुकुल में ही उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया।
इसी बीच गुरुकुलों पर अंग्रेजों का दबाव बढ़ने लगा। इससे विद्यार्थियों में असंतोष व्याप्त हुआ। जब पंजाब और बंगाल के युवकों द्वारा स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने की खबरें आईं, तो प्रभुदत्त ने भी अपनी पढ़ाई छोड़कर गुरुकुलों के दमन के विरोध में आंदोलन शुरू किया। 1905 में वे गिरफ्तार हुए और अलीगढ़ जेल भेजे गए। रिहा होने के बाद वे मथुरा आए और एक आश्रम स्थापित किया, जो आगे चलकर सांस्कृतिक जागरण का केंद्र बन गया।
1921 में गांधी जी के आह्वान पर देशभर में असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ। प्रभुदत्त जी ने इसमें भी भाग लिया और पुनः गिरफ्तार हुए। हालांकि, जब असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन को जोड़ा गया, तो वे इससे सहमत नहीं थे। उन्होंने स्वयं को प्रत्यक्ष राजनीतिक आंदोलनों से अलग कर लिया, पर सामाजिक जागरण के कार्यों में सक्रिय हो गए और पूरे भारत की यात्रा की।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के विभाजन से वे अत्यंत दुखी हुए और एकांतवास अपनाया। उन्होंने गायत्री मंत्र की साधना शुरू की और हिमालय की ओर तप करने चले गए। बाद में वे वृंदावन लौटे और आश्रम बनाकर प्रवचन व श्रीमद्भागवत का काव्य रूपांतरण करने में जुट गए। वे ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे और उन्होंने श्रीमद्भागवत को ब्रजभाषा के छंदों में प्रस्तुत किया। ब्रजभाषा में पहला “भागवत चरित कोश” रचने वाले वे पहले विद्वान थे।
स्वतंत्रता के बाद देश में गौहत्या पर प्रतिबंध न लगने से वे अत्यंत दुखी रहे। उन्होंने 1960 में वृंदावन में गोहत्या निरोध समिति की स्थापना की और गौरक्षा के लिए पूरे देश में जनजागरण अभियान चलाया। 1966 में जब स्वामी करपात्री जी महाराज ने गौरक्षा आंदोलन आरंभ किया, तो प्रभुदत्त जी उसमें भी सहभागी बने। उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया और गौरक्षा के लिए 80 दिनों तक अनशन किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे अनशन त्यागने का आग्रह किया, और संतों ने रसपान कराकर उनका अनशन समाप्त कराया।
समय के साथ वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए और संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के निकट रहे। उन्होंने देश के अनेक भागों की यात्राएँ कीं। जब हिंदू कोड बिल आया, तो उन्होंने इसे हिंदू समाज के हितों के विपरीत माना और उसके विरोध में देशव्यापी सामाजिक जागरण यात्राएँ कीं।
सामाजिक जागरण के लिए उन्होंने दिल्ली में 26 फीट ऊँची हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित की। संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी भारतीय संस्कृति के एक सशक्त स्तंभ थे। उन्होंने अपने जीवन का हर क्षण भारतीय संस्कृति की स्थापना और सनातन जीवन शैली की शुद्धि के लिए समर्पित किया।
उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें महाभारत के प्राण महात्मा कर्ण, गोपालन, शिक्षा, बद्रीनाथ दर्शन, मुक्तिनाथ दर्शन, और महावीर हनुमान जैसे ग्रंथ प्रमुख हैं। उन्होंने दिल्ली, वृंदावन, बद्रीनाथ और प्रयाग में संकीर्तन भवन नाम से चार आश्रम स्थापित किए, जो आज भी सक्रिय हैं।
वे कहते थे, “समाज को पहले संकीर्तन से जोड़ो, फिर आध्यात्मिक ज्ञान के प्रवचन हों।” इसी विचार से उन्होंने वृंदावन में यमुना तट पर वंशीवट के निकट, तथा प्रयागराज के प्रतिष्ठानपुर (झूसी) में संकीर्तन भवन की स्थापना की। दिल्ली के वसंत विहार में भी उन्होंने संकीर्तन भवन के साथ हनुमान जी की विशाल प्रतिमा के निर्माण का कार्य आरंभ किया, जो उनके जीवनकाल में पूर्ण नहीं हो सका।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे झूसी आश्रम आए और देह त्याग का संकल्प लिया। उन्होंने 1 अप्रैल 1990 को गायत्री मंत्र जप करते हुए गंगा मैया के जल में प्रवेश किया और समाधिस्थ हो गए। उनके समाधि लेने के बाद, दिल्ली में 120 फीट ऊँची हनुमान प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई।
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने गौसेवा, गौरक्षा आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम, ग्रंथ रचना और पत्रकारिता के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य किया। उनकी पत्रकारिता से पंडित जवाहरलाल नेहरू भी प्रभावित थे। उन्होंने कई पत्रों का संपादन और प्रकाशन किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने खादी पहनने का संकल्प लिया और जीवनभर उसका पालन किया।
उन्होंने अपने कार्यों, लेखन और संस्कृति सेवा के माध्यम से समाज में आत्मविश्वास और धार्मिक पुनर्जागरण का जो प्रकाश फैलाया, वह अद्भुत था। वे आशु कवि थे और उन्होंने श्रीमद्भागवत, गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र जैसे गूढ़ ग्रंथों की सरल और सुबोध हिंदी में व्याख्या की।
उन्होंने श्रीमद्भागवत को 118 भागों में जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत किया। उनके रचित ब्रजभाषा के छप्पय छंद आज भी वाद्य-वृंद संगति के साथ पारायण रूप में गाए जाते हैं।
उनकी अन्य प्रमुख कृतियों में नाम संकीर्तन महिमा, शुक (नाटक), भागवत कथा की वानगी, भारतीय संस्कृति एवं शुद्धि, वृंदावन माहात्म्य, राघवेंद्र चरित्र, प्रभु पूजा पद्धति, कृष्ण चरित्र, रासपंचाध्यायी, गोपीगीत, प्रभुपदावली, और चैतन्य चरितावली शामिल हैं। उन्होंने 100 से अधिक आध्यात्मिक ग्रंथों की रचना की, जो आज भी समाज को आध्यात्मिकता और राष्ट्रप्रेम की दिशा देते हैं।
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